श्रीमद्भागवत पुराण के 10 स्कन्धों का मूल विषय

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Sooraj krishna Shastri
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  यहां पर भागवत के विषयों को स्कंध के अनुसार बताया गया है, ताकि पाठक को भागवत के मूल विषय समझ में आ जाये और इसके प्रति रूचि बढे।

श्रीमद्भागवत महात्म्य

  श्रीमद्भागवत के माहत्म्य में ‘गोकर्णोपाख्यान’ और ‘भक्ति’ के कष्ट निवारण दोनो के माध्यम से ये बताया गया है कि श्रीमद्भागवत के केवल श्रवण मात्र से कैसे जीव का उद्धार हो जाता है। श्रवण की महिमा है, यही इसका सार है।

प्रथम स्कन्ध

  प्रथम स्कन्ध मे कुन्ती और भीष्म के द्वारा ‘भक्ति योग’ के बारे में बताया गया और ‘परीक्षित की कथा’ के माध्यम से ये बताया गया है कि एक मरणशील व्यक्ति को क्या करना चाहिये ? क्योंकि ये प्रश्न केवल परीक्षित का नहीं, हम सब का है, क्योकि ‘सात दिन’ ही प्रत्येक जीव के पास है, आठवां दिन है ही नही, इन्हीं सात दिन में उसका जन्म होता है और इन्ही सात दिन में मर जाता है।

द्वितीय स्कन्ध

  द्वितीय स्कन्ध मे ‘योग-धारणा’ के द्वारा शरीर त्याग की विधि बताई गयी है, भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिये उसके बारे बताया गया है।

तृतीय स्कन्ध

  इसमे ‘कपिल-गीता’ का वर्णन है जिसमें ‘भक्ति का मर्म’ ‘काल की महिमा’ और देह-गेह में आसक्त पुरुषों की ‘अधोगति’, मनुष्य योनि को प्राप्त हुये जीव की गति क्या होती है, का वर्णन है। केवल भक्ति से ही वह इन सबसे छूटकर भगवान की ओर जा सकता है।

चतुर्थ स्कन्ध

  इसमें यह बताया गया है कि यदि भक्ति सच्ची हो तो उम्र का बंधन नही होता ‘ध्रुव की कथा’ ने यही सिद्ध किया है। ‘पुरञ्जनोपाख्यान’ में इन्द्रियों की प्रबलता के बारे में बताया गया है।

 पंचम स्कन्ध

  इसमें ‘भरत-चरित्र’ के माध्यम से यह बताया गया है कि भरतजी कैसे एक हिरण के मोह मे पडकर अपने तीन जन्म गवां देते है। ‘भवाटवी वर्णंन’ के प्रसंग में यह बताया गया है कि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के बस में होकर कैसे अपनी दुर्गति करता है। ‘नरकों का वर्णन’ किया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति की अपने-अपने कर्मों के हिसाब से कैसे नरकों की यातना भोगनी पडती है।

 षष्ठ स्कन्ध  

  षष्ठ स्कन्ध मे भगवान ‘नाम की महिमा’ के सम्बन्ध में ‘अजामिलोपाख्यान’ है। “नारायण कवच” का वर्णन है जिससे वृत्रासुर का वध होता है, नारायण कवच वास्तव में भगवान के विभिन्न नाम है जिसे धारण करने वाले व्यक्ति को कोई परास्त नही कर सकता। ‘पुंसवन विधि’ एक संस्कार है जिसके बारे में बताया गया है।

सप्तम स्कन्ध

  इसमे ‘प्रह्लाद-चरित्र’ के माध्यम से बताया गया है कि हजारों मुसीबत आने पर भी भगवान का नाम न छूटे, यदि भगवान का बैरी पिता ही क्यों न हो तो उसे भी छोड़ देना चाहिये। मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, ब्रह्मचर्य गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम का कैसे पालन करना चाहिये, इसका निरुपण है। कर्म व्यक्ति को कैसे करना चाहिये, यही इस स्कन्ध का सार है।

अष्टम स्कन्ध 

  भगवान कैसे भक्त के चरण पकडे हुये व्यक्ति का पहले और बाद मे भक्त का उद्धार करते है यह ‘गजेन्द्र-ग्राह कथा’ के माध्यम से बताया गया है। ‘समुद्र मंथन’, ‘मोहिनी अवतार’, वामन अवतार’, के माध्यम से भगवान की भक्ति और लीलाओं का वर्णन है।

नवम स्कन्ध 

  नवम स्कन्ध मे ‘सूर्य-वंश’ और चन्द्र-वंश’ की कथाओं के माध्यम से उन राजाओं का वर्णन है जिनकी भक्ति के कारण भगवान ने उन्के वंश मे जन्म लिया। जिसका चरित्र सुनने मात्र से जीव पवित्र हो जाता है। यही इस स्कन्ध का सार है।

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध)

  भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है। बडे-बडे संत महात्मा, भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध। भगवान अजन्मा है, उनका न जन्म होता है न मृत्यु। श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है। भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे, और क्यों होता है, किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है, भक्तो पर कृपा करने के लिये, उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये, चाहे जैसे भी पद्धति हो, के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ, उनकी सारी लीलायें, केवल अपने भक्तो के लिये थी। जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा, वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रीडा करनी चाही वह भक्त, सखा, गोपी, के माध्यम से सामने आते गये। उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध में है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास, महारास, गोपीगीत तो दिव्यातिदिव्य लीलायें हैं। इन दिव्य लीलाओं का श्रवण, चिंतन, मनन बस यही जीवन का सार’ है।

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)

  इसमें भगवान की ‘ऐश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि, नित्यचर्या, गृहस्थ, का बडा ही अनुपम वर्णन है।

एकादश स्कन्ध

  इसमें भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का शाप दिलाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे  उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा। भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है, यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।

द्वादश स्कन्ध

  इसमें कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नहीं क्योंकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योंकि जिसने इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है।

श्रीमद्भागवत माहात्म्य

  कीर्तनोत्सव में उद्धव जी का प्रकट होना, श्रीमद्भागवत मे विशुद्ध भक्ति, भगवान श्री कृष्ण के नाम लीला गुण आदि का संकीर्तन किया जाय तो वे स्वयं ही हृदय मे आ विराजते है और श्रवण, कीर्तन करने वाले भक्तों के सारे दुःख मिटा देते है। ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकार को और आंधी बादलों को तितर-बितर कर देते है। 

  जिस वाणी से घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम लीला, गुण का उच्चारण नही होता, वह वाणी भावपूर्ण होने पर भी निरर्थक है, सारहीन है। जिस वाणी से चाहे वह रस, भाव, अंलकार आदि से युक्त ही क्यो न हो – जगत को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो अत्यन्त अपवित्र है। इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नही है, और जो व्याकरण आदि की दृष्टि से दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु प्रत्येक श्लोक में भगवान के सुयश नाम जड़े हैं वही वाणी लोगो के सारे पापों का नाश कर देती है।

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