जाको प्रभु दारुण दुख देही । ताकी मति पहले हर लेही ।। जाको विधि पूरन सुख देहीं । ताकी मति निर्मल कर देही ।।

Sooraj Krishna Shastri
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  जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहले हर लेही" यह चौपाई श्री रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड की है। 

जाको प्रभु दारुण दुख देही । ताकी मति पहले हर लेही ।। 
जाको विधि पूरन सुख देहीं । ताकी मति निर्मल कर देही ।।

अर्थात — जिस व्यक्ति को भगवान बहुत बड़ा, असहनीय दुख देना चाहते हैं, उसकी समझ-बूझ (मति/बुद्धि) पहले ही छीन लेते हैं, ताकि वह गलत निर्णय लेकर अपने दुःख का कारण स्वयं बना ले।

और जिसे भगवान बहुत अधिक सुख देना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को शुद्ध, निर्मल और सही दिशा वाली बना देते हैं, ताकि वह सही निर्णय ले सके और उसका सुख सुरक्षित रहे।

"जाको प्रभु दारुण दुख देही" चौपाई का विश्लेषण 

प्रारब्ध में दुष्कर्म के फल प्राप्त होने का समय आता है तो सर्वप्रथम माया उसकी बुद्धि को हर लेती है। यानि प्रभु को जिसे दुःख देना होता है उसकी बुद्धि को पहले ही छीन लेते हैं, जैसे रावण की बुद्धि सीता जी के हरण के समय हो गई थी। इसी प्रकार जब सत्कर्मों का फल प्राप्त होने वाला होता है तब बुद्धि निर्मल हो जाती है। उदाहरण स्वरुप जैसे विभीषण को प्रभु से मिलवाना आदि। सबसे पहले आपको यह बता देना चाहता हूं कि यह चौपाई श्री राम चरित मानस की संभवत नहीं है। यदि किसी मानस प्रेमी को इसके बारे मे जानकारी हो तो हमें भी अवगत कराएं, बड़ी कृपा होगी। यह एक क्षेपक है क्षेपक का मतलब किसी मूल रचना में कुछ भी जोड़ देना।

आज हम चर्चा करेंगे कर्म बड़ा या भाग्य !

 कर्म बड़ा या भाग्य, यह एक ऐसा प्रसन्न है, जिसके अंतिम निष्कर्ष पर एक मत से नहीं पहुंचा जा सकता। भाग्य के संदर्भ में बहुत पुराने दौर से दो परस्पर विरोधी विचार धाराएं रही है। एक के अनुसार मनुष्य उस से बंधा हुआ है, जो उसके भाग्य में पहले से ही लिख दिया

manas mantra: jako prabhu darun dukh dehi, taki mati pahle har lehi
manas mantra: jako prabhu darun dukh dehi, taki mati pahle har lehi

 गया है। वह उससे बाहर नहीं निकल सकता और वही करेगा जो उसके भाग्य में लिखा है। दूसरे मत के अनुसार मनुष्य स्वतंत्र है। वह जो चाहे वह करे, लेकिन जो भी कर्म करेगा उसका परिणाम उसे हर हाल में भुगतना पड़ेगा। इन दोनों विचारधाराओं में से कौन-सी सही है, यह कहना उतना ही कठिन है, जितना यह बताना कि पहले मुर्गी आई या अंडा। 

 इस बारे में धर्म ग्रंथों और वैज्ञानिकों की धारणाओं में भी काफी भेद मिलता है।

एक कहावत है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। लेकिन ज़रा सोचिये 84 लाख योनियों में मनुष्य योनी में जन्म भाग्य की ओर इशारा नहीं करता, संसार में कई ऐसे विरले पड़े हैं जिनको पारिवारिक प्रेम नहीं मिला लेकिन समाज में उन्हें पूर्ण सम्मान प्राप्त है, यह भी भाग्य का ही एक रूप माना जा सकता है।

 वास्तव में भाग्य-यश, प्रेम, धन, स्वास्थ्य; इन सभी रूपों में या किसी एक रूप में आपके पास हो सकता है. ईश्वर सभी को योग्यता व कर्मानुसार भाग्य प्रदान करता ही है। अतः जरूरत है कि हम हमारे हिस्से में आए आशीर्वाद को सस्नेह ग्रहण करें और ईश्वर से संतोषरूपी धन की याचना करें, क्योंकि ‘हर स्थिति में संतुष्ट रहने से ही सुख प्राप्त होता है।

 रामचरितमानस में ही तुलसीदास लिखते हैं।

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करै सो तस फलु चाखा।

 यानी जो जैसा कर्म करेगा, उसको वैसा ही परिणाम भुगतना पड़ेगा, जिससे यह स्पष्ट है कि भाग्य में पहले से कुछ नहीं लिखा हुआ। 

सब कुछ कर्म पर निर्भर होता है।

 महाभारत में कर्मफल का सिद्धांत समझाते हुए कृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा

 जैसे बछड़ा सैकड़ों गायों की टांगों में से होता हुआ अपनी मां को तलाश ही लेता है, वैसे ही हमारे कर्म हम पर हावी हो जाते हैं। 

कर्मवादी कहते हैं -

"उद्योगिनं पुरुष सिंह मुपैति लक्ष्मी"

 अर्थात सोते हुए सिंह के मुँह में कही कोई मृग आ सकते हैं ?

भाग्यवादी कहते हैं -

"भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम्।।"

 अर्थात भाग्य ही सर्वत्र होता है जिसके सामने विद्या और पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाते हैं

बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा के अनुसार- हमें अपने कर्मों पर कोई नियंत्रण नहीं होता। हमारे सारे अनुभव हमारे पिछले कर्मों का नतीजा हैं।

मृत्यु तीन प्रकार से होती है -

  • हमारे कर्मों के परिणाम स्वरुप,
  • जब हमारी उपयोगिता समाप्त हो जाती है 
  •  दुर्घटना के कारण।

 लेकिन इन तीनों का आपस में गहरा संबंध है, जो पिछले कर्मों की वजह से है। इसी तरह बीमारी भी कर्मों की वजह से ही होती है”। बहरहाल इस बहस का कोई अंत नहीं है कि कर्म और भाग्य में प्रबल क्या होता है?

 जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। एक कीड़े पेड़ पौधे वनस्पति से लेकर तारे तक के साथ क्या होगा, यह सब पहले से ही तय है। 

  लेकिन जिसका स्वभाव संतोषी है, वह अभाव की परिस्थितियों में भी व्यग्र अथवा दुखी नहीं होता । इस संसार में हजारों - लाखों ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें सामान्यतः आर्थिक कष्ट रहता है । मुश्किल से रूखी - सूखी रोटी मिल पाती है । तब भी वे संतुष्ट तथा प्रसन्न देखे जा सकते हैं । अपने आर्थिक कष्ट का रोना रोते अथवा भाग्य को कोसते रहना उन्हें आता ही नहीं । इसके विपरीत असंख्यों ऐसे भी मिलेंगे जो दिन - रात अपने अभाव का रोना रोते और दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं । वे कभी भी सुखी अथवा संतुष्ट रह ही नहीं पाते । सुख का निवास संतोषी मनोवृत्ति में है, प्राप्ति तथा उपलब्धियों में नहीं ।

 भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-

 "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

 अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। यहां पर श्री कृष्ण खुद कह रहे हैं- “कि कर्म प्रधान है”।

कर्म और भाग्य के संबंध में एक कहानी याद आती है -

एक चाट वाला था। जब भी उसके पास चाट खाने जाओ तो ऐसा लगता कि वह हमारा रास्ता देख रहा हो। हर विषय पर उसको बात करने में बड़ा मजा आता था। कई बार उसे कहा कि भाई देर हो जाती है, जल्दी चाट लगा दिया करो, पर उसकी बात खत्म ही नहीं होती। एक दिन अचानक उसके साथ मेरी कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गई। तकदीर और तदबीर की बात सुन मैंने सोचा कि चलो आज उसका दर्शन शास्त्र देख ही लेते हैं। मैंने उससे एक सवाल पूछ लिया। मेरा सवाल उस चाट वाले से था कि- आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से? उसने जो जवाब दिया, उसके जवाब को सुनकर मेरे दिमाग के सारे जाले साफ हो गए। वह चाट वाला मुझसे कहने लगा, आपका किसी बैंक में लाकर्स तो होगा? मैंने कहा हां, तो उस चाट वाले ने मेरे से कहा कि उस लाकर की चाबियां ही इस सवाल का जवाब हैं। हर लाकर की दो चाबियां होती हैं, एक आपके पास होती है और एक मैनेजर के पास। आपके पास जो चाबी है वह परिश्रम और मैनेजर के पास वाली चाबी है वह भाग्य। जब तक दोनों चाबियां नहीं लगती, लाकर का ताला नहीं खुल सकता। आप कर्म योगी पुरुष हैं और मैनेजर भगवान। आपको अपनी चाबी भी लगाते रहना चाहिए, पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाबी लगा दे। 

 कहीं ऐसा ना हो कि भगवान अपनी भाग्य वाली चाबी लगा रहा हो और हम परिश्रम वाली चाबी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाए। 

 मेरे विचार में न कर्म बड़ा है और न भाग्य। कर्म और भाग्य एक दूसरे के पूरक हैं। जब हम भाग्य की रेखाएं देखते हैं जो हमारी हथेली में मौजूद हैं, तो उनसे पहले उंगलियां आती हैं, जो हमें कर्म करने की प्रेरणा देती हैं।

 लेकिन दुर्भाग्यवश किसी के हाथ नहीं होते तो इसका अभिप्राय यह नहीं है, कि उसका भाग्य नहीं है और वह कर्म नहीं कर सकता। हमारे पिछले जन्मों के कुछ संचित कर्म होते हैं, जो भाग्य बनकर हमारे जीवन में प्रवेश करते हैं।

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