सज्जनता फिर झुक गई, देखा बेवश रुप। पाण्डु पुत्र के हित बनी, निर्भय काली धूप।।

Sooraj Krishna Shastri
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प्रणाम ज्येष्ठ पिताश्री!

चक्रवर्ती सम्राट भव! आओ मेरे निकट बैठो। मैं एक बड़े धर्म संकट में हूं पूत्र! यदि मैं यह नहीं जानता होता कि तुम मेरी सहायता अवश्य करोगे तो आत्महत्या कर लेता।

आप आदेश दीजिए ज्येष्ठ पिताश्री! छोटे अपने बड़ों की सहायता नहीं करते हैं अपितु आज्ञा पालन करते हैं।

मेरी बातें ध्यान से सुनो पुत्र युधिष्ठिर! तुम पांचों भाई उस अनुज पांडु के उत्तराधिकारी हो जिसने लगभग पूरी पृथ्वी को जीत ली थी। विजयश्री उसके अधिकार में थी। परन्तु जब तक मैंने उसे यह नहीं कहा कि यह सिंहासन ग्रहण करो, तब तक उसने यह राज सिंहासन ग्रहण नहीं किया। जबकि इस राज सिंहासन पर उसका ही अधिकार था।

आप किसी भूमिका के भी आदेश दे सकते हैं ज्येष्ठ पिताश्री!

यह भूमिका आवश्यक है पुत्र! यह राज सिंहासन मेरा नहीं है। मैं तो अनुज पांडु का प्रतिनिधि हूं, और मैं जो भी निर्णय लेता हूं, अनुज पांडु की ओर से लेता हूं।

परन्तु ज्येष्ठ पिताश्री! आपके स्वर में उदासी क्यों है?

प्रश्न न करो पुत्र! अपने ज्येष्ठ पिता को बोलने दो। क्योंकि यह सब मैं दुर्योधन से नहीं कह सकता हूं। उसका अभिमान मेरे और उसके बीच दीवार है। मेरी समस्या यह है पुत्र! कि मैं हस्तिनापुर को संकट के किसी द्वार पर नहीं छोड़ सकता। यदि राज्य तुम्हें देता हूं तो दुर्योधन का अभिमान सामने आता है, और यदि राज्य दुर्योधन को देता हूं, तो तुम्हारे साथ अन्याय होता है। और यह भी पारिवारिक जीवन का एक सत्य है पुत्र! जहां बर्तन अधिक होंगे तो आपस में टकराव भी होगा। इसलिए उन्हें अलग ही कर देना चाहिए। इसलिए यह निर्णय लिया गया है कि हस्तिनापुर का विभाजन कर दिया जाय।

देश का विभाजन...? नहीं ज्येष्ठ पिताश्री! मेरे भाग का आधा राज्य भी अनुज दुर्योधन को दे दीजिए। परन्तु देश का विभाजन न कीजिए।

नहीं पुत्र! मैं तुम्हारे साथ यह अन्याय नहीं कर सकता हूं। मैं तुम्हें हस्तिनापुर ही देता था और दुर्योधन को ययाति की राजधानी, देकर कहता कि तुम युधिष्ठिर के अनुज हो! जाओ जाकर खांडवप्रस्थ को बसाओ। परन्तु वह यह अवश्य कहेगा कि मैं भी उसके साथ चलूं। मैं तो हस्तिनापुर की परछाई हूं। मैं इसे छोड़कर कहां जा सकता हूं। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम खांडवप्रस्थ को बसाओ।

आज्ञा का पालन होगा ज्येष्ठ पिताश्री......!

सज्जनता फिर झुक गई, देखा बेवश रुप।

पाण्डु पुत्र के हित बनी, निर्भय काली धूप।।


यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।२/४६।

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय से जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण का वेदों से उतना प्रयोजन रहता है। तात्पर्य यह है कि जो वेदों से उपर उठता है, वह ब्रह्म को जनता है, वही ब्राह्मण है। अर्थात् तू वेदों से उपर उठ, ब्राह्मण बन।

अर्जुन क्षत्रिय था। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण बन। ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि वर्ण स्वभाव की क्षमताओं का नाम हैं। यह कर्म प्रधान है, न कि जन्म से निर्धारित होनेवाली कोई रूढ़ि। जिसे गंगा की धारा प्राप्त हो, उसे क्षुद्र जलाशय से क्या प्रयोजन? कोई उसमे शौच लेता है, तो कोई पशुओं को नहला देता है। इससे आगे कोई उपयोग नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म को साक्षात् जानने वाले उस विप्र महापुरूष का, उस ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है। प्रयोजन रहता अवश्य है, वेद रहते हैं; क्योंकि पीछे वालों के लिए उनका उपयोग है। वहीं से चर्चा आरम्भ होगी।

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