History Repeats? Constantinople की गलती दोहरा रहा है हिंदू समाज?

Sooraj Krishna Shastri
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History Repeats? Constantinople की गलती दोहरा रहा है हिंदू समाज?

प्रस्तुत लेख अत्यंत प्रेरक और ऐतिहासिक दृष्टांत के माध्यम से वर्तमान सामाजिक वास्तविकताओं को झकझोरने वाला है। इस शैली को और भी व्यवस्थित, प्रभावशाली, और व्यापक संदर्भों सहित प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे यह एक जागरूकता पैदा कर सके।


🏛️ कस्तुनतुनिया की गिरती दीवारें और भारतीय समाज का मौन पतन

“इतिहास केवल भूत नहीं होता, वह वर्तमान का आईना और भविष्य की चेतावनी भी होता है।”

जब आप बाइज़ेंटाइन साम्राज्य (Byzantine Empire) का नाम सुनते हैं, तो एक वैभवशाली, समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न साम्राज्य की छवि उभरती है। इस साम्राज्य की राजधानी थी – कॉन्स्टेंटिनोपल, जिसे अरबों ने कस्तुनतुनिया कहा और आज की

History Repeats? Constantinople की गलती दोहरा रहा है हिंदू समाज?
History Repeats? Constantinople की गलती दोहरा रहा है हिंदू समाज?


दुनिया उसे इस्तांबुल के नाम से जानती है।

यह नगर था—

  • रोमन साम्राज्य की ईसाई शाखा का राजनीतिक और धार्मिक गढ़।
  • Eastern Orthodox Church का सबसे पवित्र केन्द्र।
  • यूरोप और एशिया को जोड़ने वाले बोस्फोरस जलडमरूमध्य पर स्थित एक व्यापारिक और रणनीतिक चमत्कार।
  • ईसाई सभ्यता की आत्मा, और पश्चिमी संस्कृति का प्रमुख आधार।

✝️ जब मक्का से उठी एक दृष्टि कस्तुनतुनिया की ओर...

सातवीं शताब्दी में जब मक्का से एक नया मज़हब जन्म ले रहा था, उसके प्रवर्तक ने कस्तुनतुनिया की फ़तह को एक दिव्य कार्य घोषित किया। उन्होंने कहा—

"जो कैसर-ए-रूम के शहर पर पहला हमला करेगा, उसे जन्नत की बशारत है।"

ध्यान दीजिए, यहाँ जन्नत की शर्त ‘विजय’ नहीं बल्कि ‘प्रयास’ थी।

सदियों तक इस नगरी पर अरबों और तुर्कों ने बार-बार हमले किए। असफलताओं के बावजूद उनका जुनून कम नहीं हुआ। ये उनके ‘संकल्प का प्रतीक’ था — और यह जन्नत की तलाश में नहीं, अपनी पहचान की स्थापना के लिए था।


🏹 और फिर आया वो दिन — 29 मई, 1453

21 वर्षीय सुल्तान मोहम्मद द्वितीय (Mohammad al-Fatih) के नेतृत्व में उस्मानी (Ottoman) सेनाएं, तोपों के साथ कस्तुनतुनिया की दीवारों पर टूट पड़ीं। ईसाई पादरी हाजिया सोफिया गिरजे में घंटियाँ बजा रहे थे, लेकिन रणनीति के लिए नहीं।

वे वहाँ संभवत: ईसा के अंतिम भोज में खाई रोटी खमीरी थी या अखमीरी, इस पर बहस कर रहे थे।
या फिर मरियम (Maryam) ईसा के जन्म के बाद भी कुँवारी रहीं या नहीं, इस पर मतभेद रख रहे थे।

इस बीच...
दीवारें टूटीं,
तोपें गरजीं,
ध्वज बदला,
हाजिया सोफिया मस्जिद बनी,
और कस्तुनतुनिया इतिहास हो गया।


🧠 और साथ ही मरा — हज़ार वर्षों का बौद्धिक वैभव...

  • यूनानी विद्वान, वैज्ञानिक, लेखक — या तो मारे गए या पलायन कर गए।
  • ईसाई साम्राज्य का स्तंभ ढह गया।
  • एक समृद्ध सभ्यता, "अंतर्मुखी और निरर्थक वाद-विवादों" में उलझी रही, जब बाहर शत्रु ने निर्णायक प्रहार किया।

⚠️ भारत के वर्तमान परिदृश्य से यह इतिहास क्या कहता है?

आज भी भारत का बौद्धिक वर्ग, सामाजिक नेतृत्व और धार्मिक दिशा "कस्तुनतुनिया की चर्च बैठकों" की तरह दिखाई दे रही है—

  • भाषा-बोली पर बेमतलब की बहसें।
  • मतांतरण की आंधी पर मौन।
  • सैकड़ों मंदिरों की लड़ाइयाँ कोर्ट में, लेकिन प्रबुद्ध वर्ग 'ध्यान' में।
  • छात्र, रोजगार और नैतिक मूल्य की जगह ‘किसे क्या कहना चाहिए था’ के विमर्श में।

👉 क्या आप जानते हैं कि भारत के कई हिंदी भाषी राज्यों में छांगुड़ अभियान की तरह मतांतरण टोलियाँ गाँव-गाँव घूम रही हैं?
👉 क्या आपको ज्ञात है कि अर्बन-इलीट समाज 'हिन्दू' शब्द से परहेज़ करने लगा है, उसे ‘सेक्युलर’ दिखने का शौक चढ़ गया है?


🔚 और सवाल ये नहीं कि 'हमें क्या करना है'...

सवाल है — हम कब तक चर्च जैसी बैठकों में उलझे रहेंगे?

कस्तुनतुनिया की दीवारें कमज़ोर नहीं थीं, लेकिन
वहाँ का नेतृत्व, वहाँ की चर्चा, वहाँ का चिंतन कमज़ोर हो गया था।
वो एक 'विचारहीन आत्ममुग्धता' में खो गया था।

हिंदू समाज की दीवारें भी मजबूत हैं,
लेकिन सवाल यह है — 29 मई की वो अर्धरात्रि कहीं हमारे लिए भी नज़दीक तो नहीं?


📌 निष्कर्ष :

इतिहास केवल 'अतीत' नहीं होता, वह एक दर्पण है — जो हमसे प्रश्न करता है —
"क्या हम तैयार हैं, या हम भी चर्च की घंटियों में उलझे हैं?"

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