श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार

Sooraj Krishna Shastri
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श्री आदि शंकराचार्य द्वारा रचित मनीषा पंचकम् अद्वैत वेदांत का सार है। जानिए काशी में चाण्डाल संवाद की कथा और इसके पाँच श्लोकों का गूढ़ अर्थ।

श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार


🌼 काशी में दिव्य प्रसंग

एक बार जगद्गुरु श्री आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों सहित गंगाजी में स्नान के लिए काशी पधारे।
स्नान के पश्चात जब वे मार्ग से लौट रहे थे, तभी सामने से एक चाण्डाल चार कुत्तों के साथ उसी मार्ग से आता दिखाई दिया।

आचार्य शंकर मार्ग के एक ओर ठहर गए और ऊँचे स्वर में बोले —

“दूर हटो, दूर हटो।”


🌿 चाण्डाल का अद्वैत प्रश्न

चाण्डाल ने शांत स्वर में कहा —

“ब्राह्मण देवता! आप तो वेदान्त के अद्वैत सिद्धांत का प्रचार करते हैं।
फिर आपमें यह अस्पृश्यता और भेदभाव कैसे?”

वह आगे बोला —

“क्या मेरे शरीर का स्पर्श आपको अपवित्र कर देगा?
क्या हमारा शरीर एक ही पंचतत्व से निर्मित नहीं?
क्या हमारे भीतर विद्यमान आत्मा और आपकी आत्मा भिन्न हैं?”


🌸 भगवान विश्वनाथ का रूपोद्घाटन

शंकराचार्य तत्काल समझ गए —
यह कोई सामान्य चाण्डाल नहीं,
स्वयं भगवान विश्वनाथ चाण्डाल रूप में दर्शन देने आए हैं।

वे तुरंत भूमि पर दण्डवत प्रणाम कर बोले —

“आप ही मेरे गुरु हैं।”

फिर उन्होंने जिन पाँच श्लोकों में इस अद्वैत सत्य की स्तुति की,
वे श्लोक “मनीषा पंचकम्” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार
श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार


🕉️ मनीषा पंचकम् का भाव

प्रत्येक श्लोक के अंत में आचार्य कहते हैं —

“चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरु‍रित्येषा मनीषा मम।”

अर्थात् — जिसने अद्वैत ब्रह्म को अनुभव कर लिया है, वह चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, वही मेरा गुरु है — यही मेरी दृढ़ मनीषा (बुद्धि) है।


📜 मनीषा पंचकम् — संस्कृत श्लोक और भावार्थ सहित


🔶 प्रथम श्लोक

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते ।
या ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी ।
सैवाहं न च दृश्यवस्त्विति दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत् ।
चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरु‍रित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥

भावार्थ:
जो चेतना जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में प्रकाशित रहती है,
जो ब्रह्मा से लेकर एक चींटी तक में व्याप्त है,
जो सम्पूर्ण जगत की साक्षी है —
जिसकी ऐसी दृढ़ निष्ठा है कि “मैं वह चैतन्य हूँ, दृश्य जगत नहीं”,
वह चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल — वही मेरा गुरु है।


🔶 द्वितीय श्लोक

ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं ।
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले ।
चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरु‍रित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥

भावार्थ:
मैं ही ब्रह्म हूँ, और यह सम्पूर्ण जगत उसी चेतन ब्रह्म का विस्तार है।
जो कुछ भिन्न दिखाई देता है, वह त्रिगुणमयी अविद्या से कल्पित है।
जिसकी बुद्धि इस सत्य में दृढ़ है —
वह नित्य, निर्मल, परमानंदस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त है — वही मेरा गुरु है।


🔶 तृतीय श्लोक

शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः ।
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके ।
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥

भावार्थ:
जो गुरु के वचनों से यह निश्चित कर चुका है कि यह जगत नश्वर है,
जो निरंतर ब्रह्म का चिंतन करता है,
जो अपने कर्मों की वासनाओं को चेतनाग्नि में जला चुका है,
और देह को केवल प्रारब्ध के लिए समर्पित मानता है —
वह चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, वही मेरा गुरु है।


🔶 चतुर्थ श्लोक

या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते ।
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।
तां भास्यैर्पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावयन् ।
योगी निर्वृतमानसो हि गुरु‍रित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥

भावार्थ:
जिस ज्योति से मनुष्य, देवता, और पशु तक “मैं” का बोध करते हैं,
जिसके प्रकाश से हृदय, इन्द्रियाँ और विषय प्रकाशित होते हैं,
जो मेघ से आवृत सूर्य के समान विषयों से ढकी रहती है —
उस आत्मा का निरंतर चिंतन करने वाला योगी ही मेरा गुरु है।


🔶 पञ्चम श्लोक

यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता ।
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।
यस्मिन्नित्यसुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद् ।
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥

भावार्थ:
जिस परमानंद के सागर की केवल एक बूँद से ही इन्द्र आदि देव संतुष्ट होते हैं,
जिस आनंद में अपनी बुद्धि गलाकर स्थित योगी स्वयं ब्रह्म बन जाता है,
जिसके चरणों की वंदना देवगण करते हैं —
वह चाहे कोई भी हो, वही मेरा गुरु है।


🌺 निष्कर्ष : अद्वैत का सार

जो अपने में, सबमें, और सबमें अपने को देखता है — वही सच्चा ज्ञानी है।

जाति, वर्ण, देह या स्थिति से किसी का श्रेष्ठत्व या हीनत्व नहीं —
ज्ञान ही एकमात्र मापदंड है।


🔖 संक्षिप्त तथ्य-सार

शीर्षक विवरण
ग्रंथ मनीषा पंचकम्
रचयिता श्री आदि शंकराचार्य
प्रसंग भगवान विश्वनाथ का चाण्डाल रूप दर्शन
श्लोक संख्या
मूल सिद्धांत अद्वैत ब्रह्मज्ञान में भेद-भाव का अभाव
अंतिम पंक्ति “चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरु‍रित्येषा मनीषा मम”

॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ मनीषा-पञ्चकरत्नम् ॥



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