श्री आदि शंकराचार्य द्वारा रचित मनीषा पंचकम् अद्वैत वेदांत का सार है। जानिए काशी में चाण्डाल संवाद की कथा और इसके पाँच श्लोकों का गूढ़ अर्थ।
श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार
🌼 काशी में दिव्य प्रसंग
आचार्य शंकर मार्ग के एक ओर ठहर गए और ऊँचे स्वर में बोले —
“दूर हटो, दूर हटो।”
🌿 चाण्डाल का अद्वैत प्रश्न
चाण्डाल ने शांत स्वर में कहा —
“ब्राह्मण देवता! आप तो वेदान्त के अद्वैत सिद्धांत का प्रचार करते हैं।फिर आपमें यह अस्पृश्यता और भेदभाव कैसे?”
वह आगे बोला —
“क्या मेरे शरीर का स्पर्श आपको अपवित्र कर देगा?क्या हमारा शरीर एक ही पंचतत्व से निर्मित नहीं?क्या हमारे भीतर विद्यमान आत्मा और आपकी आत्मा भिन्न हैं?”
🌸 भगवान विश्वनाथ का रूपोद्घाटन
वे तुरंत भूमि पर दण्डवत प्रणाम कर बोले —
“आप ही मेरे गुरु हैं।”
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| श्री आदि शंकराचार्य लीलामृत : Manisha Panchakam की अद्भुत कथा और अद्वैत वेदांत का सार |
🕉️ मनीषा पंचकम् का भाव
प्रत्येक श्लोक के अंत में आचार्य कहते हैं —
“चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम।”
अर्थात् — जिसने अद्वैत ब्रह्म को अनुभव कर लिया है, वह चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, वही मेरा गुरु है — यही मेरी दृढ़ मनीषा (बुद्धि) है।
📜 मनीषा पंचकम् — संस्कृत श्लोक और भावार्थ सहित
🔶 प्रथम श्लोक
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते ।या ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी ।सैवाहं न च दृश्यवस्त्विति दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत् ।चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
🔶 द्वितीय श्लोक
ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं ।सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले ।चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
🔶 तृतीय श्लोक
शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः ।नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके ।प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥
🔶 चतुर्थ श्लोक
या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते ।यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।तां भास्यैर्पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावयन् ।योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥
🔶 पञ्चम श्लोक
यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता ।यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।यस्मिन्नित्यसुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद् ।यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
🌺 निष्कर्ष : अद्वैत का सार
जो अपने में, सबमें, और सबमें अपने को देखता है — वही सच्चा ज्ञानी है।
जाति, वर्ण, देह या स्थिति से किसी का श्रेष्ठत्व या हीनत्व नहीं —ज्ञान ही एकमात्र मापदंड है।
🔖 संक्षिप्त तथ्य-सार
| शीर्षक | विवरण |
|---|---|
| ग्रंथ | मनीषा पंचकम् |
| रचयिता | श्री आदि शंकराचार्य |
| प्रसंग | भगवान विश्वनाथ का चाण्डाल रूप दर्शन |
| श्लोक संख्या | ५ |
| मूल सिद्धांत | अद्वैत ब्रह्मज्ञान में भेद-भाव का अभाव |
| अंतिम पंक्ति | “चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम” |
॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ मनीषा-पञ्चकरत्नम् ॥

