बैर और प्रेम कभी छिप नहीं सकते

Sooraj Krishna Shastri
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 तात कुतरक करहु जनि जाएँ।

बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराए॥

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं

बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥

    कोई कितना ही षडयन्त्र करे । बैर और प्रेम कभी छिप नहीं सकते। मुनियों के आश्रमों में पक्षी-मृग अभय घूमते हैं पर बधिक को देखते ही भाग खड़े होते हैं। जिस तत्व को पशु-पक्षी समझ सकते हैं।

हित अनहित पशु-पच्छिउ जाना।

मानुष तनु गनु ग्यान निधाना॥

 मनुष्य जैसा गुणी-ज्ञानी जीव उसे कैसे नहीं जान सकता। प्रेम मनुष्य की भावनाओं से, उसकी मुखाकृति, प्राण और प्रत्येक हाव-भाव से दिखाई देता है।

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।

बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥

 वह जीवात्माओं को इस तरह जोड़ देता है जैसे जल और दूध मिलकर एक तन हो जाते हैं किन्तु यदि किसी ने केवल प्रेमाडम्बर किया, छल किया, कामना पूर्ति के लिए बहकाना चाहा तो वे ऐसे ही अलग हो जाती है जैसे दूध में खटाई डाल देने पर एकरूपता नष्ट हो जाती है और दोनों न्यारे-न्यारे हो जाते हैं।

जाने बिनु न होइ परतीती।

बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति ॥

प्रीति बिना नहिं भगति दिढाई ।

जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥

परमात्मा की महत्ता पर जब तक विचार नहीं किया जाता तब तक ब्रह्म है ऐसा विश्वास भी नहीं होता। विश्वास के बिना प्रेम नहीं होता, जब तक प्रेम नहीं, भक्ति ऐसी ही है जैसे जल के ऊपर तेल फिरता तो है पर मिल नहीं पाता।इस सम्पूर्ण संदर्भ में भक्ति के लिए, ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम की आवश्यकता है ।

 मनुष्य की स्थिति ऐसी है कि उसे जहाँ आनन्द मिलता है वहीं उसकी सम्पूर्ण चेष्टायें केन्द्रित रहती हैं। इसी भाव से केन्द्रीकरण का नाम प्रेम है। इस प्रेम का आधार लौकिक भी हो सकता है और पारलौकिक भी। एक का नाम आसक्ति है, दूसरे का नाम मुक्ति मुक्ति प्रेम ही परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सरल उपाय है। 

   रामचरित मानस ने स्थान-स्थान पर इसकी पुष्टि की है और लौकिक प्रेम से, दिव्य प्रेम के स्वरूप को अलग बताकर मनुष्य को अज्ञान से बचाने का प्रयत्न किया है। 

अज्ञान क्या है माया ही अज्ञानता है 

मनुष्य ईश्वर को नहीं याद करता।

उसे केवल धन रुपी मकड़जाल में जीना चाहता है, जब कि भवसागर पार करने के लिए धन, नहीं ईश्वर की कृपा की जरूरत है 

     धन- चांदी, तांबे और कागज के टुकडे नोटों की एक निराली दुनियां है। वे एक हाथ से दूसरे में और दूसरे से तीसरे में मस्ती के साथ घूमते रहते हैं। देर तक वे कहीं भी नहीं ठहर सकते। फिर भी लोग सोचते रहते हैं कि हमारे पास इतना धन जमा है, इतने धन के स्वामी हैं। तिजोरी में, बैंक में धन रखा हो या सरकारी खजाने में जमा हो या अपने बाद उस पर किसी और का कब्जा हो जाए, इसमें अपना क्या बनता-बिगडता है? 

   सिक्के हमारे मरने-जीने की परवाह किए बिना अपनी व्यवस्था के अनुसार घूमते-फिरते रहते हैं पर लोग उनके साथ न जाने क्या-क्या अरमान संजोए बैठे रहते हैं। जमीन-जायदाद, सोना-चांदी तथा अत्यावश्यक वस्तुएं एक की मालिकी में से दूसरे के हाथ जाती रहती हैं। वे वस्तुएं ज्यों की त्यों रहती हैं। स्वामित्व जताने वाले एक के बाद दूसरे, तीसरे आते हैं और मरते-खपते चले जाते हैं। जाने वालों में से हर एक खाली हाथ प्रयाण करता है फिर भी जिसे मरने वाले का उत्तराधिकार मिला है, वह सोचता है कि मुझे दौलत मिल गई। दौलत हंसती है कि बेवकूफ, तू जितना सदुपयोग कर ले उतना तेरा लाभ है, जमा हुई संपदा तो तीसरे, चौथे, पांचवें, छठवें को उसी क्रम से हस्तांतरित होती रहेगी जैसी तुझे हुई है। दौलत मुस्कराती है पर बेचारा भोला दर्शक यह सब समझ नहीं पाता और अपने धनी होने के अभिमान में इतराता फिरता है। जादू की नगरी में लोग व्यर्थ ही बावले बने फिरते हैं। काम और लोभ के वशीभूत होकर वासना और तृष्णा से ग्रसित होकर हम क्या-क्या अनर्थ नहीं करते?

रहिमन बहु भेषज करत , व्याधि न छाँड़त साथ ।

खग, मृग बसत अरोग बन , हरि अनाथ के नाथ ॥

   कितने ही इलाज किये, कितनी ही दवाइयाँ लीं, फिर भी रोग ने पिंड नहीं छोड़ा। पक्षी और हिरण आदि पशु जंगल में सदा निरोग रहते हैं भगवान् के भरोसे, क्योंकि वह अनाथों का नाथ है।


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