गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान। जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान

Sooraj Krishna Shastri
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  मनुष्य के पास भले ही गौ रूपी धन हो, गज (हाथी) रूपी धन हो, वाजि (घोड़ा) रूपी धन हो और रत्न रूपी धन का भंडार हो, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। जब उसके पास सन्तोष रूपी धन आ जाता है, तो बाकी सभी धन उसके लिए धूल या मिट्टी के बराबर है। अर्थात् सन्तोष ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।

  मनुष्य के जीवन में सुख और शांति की शुरुआत संतोष की नीव पर ही होती है ।जब तक व्यक्ति के मन में संतोष नहीं आता तब तक वह सुख का अनुभव कर ही नहीं सकता । व्यक्ति के पास जो कुछ भी अपना है या अपने पास है, उसी में सुख का अनुभव करना संतोष कहलाता है ।मानव की अभिलाषा अनंत है। व्यक्ति उन्हें पाने के लिए प्रयास करता है। इस प्रकार एक के बाद दूसरी इच्छा जन्म लेती है तथा मनुष्य महत्वाकांक्षी हो जाता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति कभी सुखी हो ही नहीं सकता । वह सदैव तनावपूर्ण जीवन जीता हुआ बीमारियों का शिकार होता है । इस तरह संतोष के बिना सुख संभव नहीं होता । बढती महत्त्वाकांक्षा के साथ अपराध बढते है - जैसे कि चोरी ,डकैती, , तस्करी एवं भ्रष्टाचार । 

  जहाँ संतोष है वहाँ लालच का कोई स्थान नहीं ।सुख के लिए व्यक्ति के मन मे त्याग तथा परोपकार का होना आवश्यक है ।

काम, क्रोध, मद, लोभकी, जौ लौं मन में खान।

तौं लौ पंडित मूरखौ, तुलसी एक समान ॥

  तुलसीदास जी कहते हैं कि जब तक मनुष्य के मन में काम (वासना), क्रोध, घमंड, लोभ आदि विकार उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह विद्वान होते हुए भी मूर्ख के समान है। इसलिए मनुष्य को काम, क्रोध, मद तथा लोभ का शीघ्र ही त्याग कर देना चाहिये।

  धनवान बनना भला कौन नहीं चाहता। लेकिन किसी भी धनवान से पूछ कर देखिए कि क्या वह धन से संतुष्ट है, उसका उत्तर होगा भाई, पैसे की तो इतनी दिक्कत है कि क्या बताऊं। यानी जिसे धनवान मान रहें हैं वह भी धन के लिए रोता हुआ दिखाई देगा। तो फिर सवाल उठता है कि धनवान कौन है।

  यही संतोष रूपी धन हनुमान जी को प्राप्त हो गया था। कथा है कि लंका से लौटने के बाद भगवान राम ने राज्याभिषेक के बाद सभी लोगों को कुछ न कुछ उपहार दिया। जब हनुमान जी की बारी आयी तो भगवान राम ने अत्यंत मूल्यवान मोतियों की माला अपने गले से उतारकर हनुमान जी को दिया। हनुमान जी ने अपने दांतों से माला तोड़ दिया और एक-एक मोती लेकर बड़े गौर से देखने लगे।

  जब सभी मोतियों को हनुमान जी ने देख लिया तब हाथ जोड़कर राम जी से बोले  -

 प्रभु किसी भी मोती में आपकी छवि नहीं है, मैं इन मोतियों का क्या करूंगा'।

  ऐसे कहते हुए हनुमान जी ने अपनी छाती चीर कर हृदय में बसे राम और सीता की छवि भगवान राम की सभा में उपस्थिति लोगों को दिखाई। भगवान राम हनुमान जी की भक्ति और संतोष को देखकर प्रसन्न हो उठे और गले से लगा लिया।

  भगवान श्री कृष्ण ने गीता में संतोष की महिमा को समझाते हुए कहा है कि -

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥

 अर्थात जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है जिसे किसी चीज में आसक्ति नही होती है ऎसा स्थिर-बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित मनुष्य मुझे प्रिय है। इससे स्पष्ट होता है कि संतुष्टि से ही भगवान को पाने का मार्ग भी निकलता है। संतोष रूपी धन के कारण ही हनुमान जी के हृदय में राम और सीता की छवि प्रकट हुई थी।

  संतोष के साथ सुख की बात कबीर दास जी सरल शब्द में कहते हैं।

 सांईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।

मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाय।

 अर्थात् भगवान से इतना ही कहिये कि हे प्रभु मेरे पास इनता हो कि जिसमें मैं और मेरा परिवार का भरण-पोषण हो जाए। अगर कोई संत मेरे द्वार आए तो उसे भूखा न जाना पड़े। जिसने संतोष की इस महिमा को समझ लिया वास्तव में वही धनवान है।

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च।

न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावाताम्॥

  सन्तोष के अमृत से तृप्त व्यक्तियों को जो सुख और शान्ति मिलता है, वह सुख- शान्ति धन के पीछे इधर-उधर भागनेवालों को नहीं मिलती ।

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