नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥

Sooraj Krishna Shastri
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नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
यह रहा आपका उच्च-गुणवत्ता वाला आध्यात्मिक चित्र, जिसमें एक संत वृक्ष के नीचे बैठे हैं, भक्तगण उनकी वाणी सुन रहे हैं, और वातावरण दिव्यता से परिपूर्ण है। यह चित्र आपके लिए प्रेरणादायक और शांति देने वाला होगा। जय श्रीराम!




नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥

चौपाई:

"नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥"

अर्थ - 

 जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। दरिद्र सोच वाला आदमी अर्थात इस जग में जिसकी सोच छोटी है उससे ज्यादा दुखी कोई और नहीं ,और जो संतों की संगति कर रहा है या जो संतों की संगति करता है उससे ज्यादा सुखी कोई नहीं है।

व्याख्या:

यह चौपाई श्रीरामचरितमानस की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और शिक्षाप्रद चौपाई है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने दो महत्वपूर्ण जीवन-सत्य बताए हैं—

  1. दरिद्रता संसार का सबसे बड़ा दुःख है।
  2. संतों का मिलना (सत्संग) संसार का सबसे बड़ा सुख है।

इन दोनों बातों को यदि गहराई से समझें, तो यह चौपाई केवल भौतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।


1. दरिद्रता: संसार का सबसे बड़ा दुःख

तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में दरिद्रता से बड़ा कोई दुःख नहीं। लेकिन यहाँ दरिद्रता का अर्थ केवल आर्थिक निर्धनता नहीं है, बल्कि मानसिक, वैचारिक और आत्मिक दरिद्रता भी है।

(क) भौतिक दरिद्रता:

जब व्यक्ति के पास जीविका के साधन नहीं होते, भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं होती, तो वह अत्यंत कष्ट में होता है। गरीबी व्यक्ति को मजबूर कर देती है, वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हो जाता है, जिससे उसे तिरस्कार और अपमान सहना पड़ता है।

(ख) मानसिक दरिद्रता:

केवल धन का न होना ही दरिद्रता नहीं है। अगर किसी व्यक्ति के पास धन तो है, लेकिन उसकी सोच छोटी है, वह लोभी, क्रोधी, असंतोषी और ईर्ष्यालु है, तो वह भी दरिद्र ही कहलाएगा।

"जिसके पास सब कुछ होते हुए भी वह उसका सदुपयोग न करे, वह दरिद्र है।"

कई लोग अत्यधिक धन होने के बावजूद हमेशा असंतुष्ट रहते हैं, उनके भीतर लालच भरा होता है। वे दूसरों की चीजों को हड़पने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग भी मानसिक रूप से दरिद्र हैं।

(ग) आध्यात्मिक दरिद्रता:

आध्यात्मिक रूप से दरिद्र वे होते हैं, जो ईश्वर और धर्म से दूर होते हैं। जिनके पास भक्ति, सत्य, धर्म और सद्गुणों की पूँजी नहीं होती, वे सच्चे अर्थों में दरिद्र हैं।

"जहाँ इच्छाएँ अनंत होती हैं, वहाँ दरिद्रता कभी समाप्त नहीं होती।"

जो व्यक्ति संसार के भौतिक सुखों के पीछे भागता है, उसकी इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। जितना उसे मिलता है, वह उससे अधिक चाहता है। ऐसे व्यक्ति सदा दुःखी रहते हैं, क्योंकि वे संतोष से कोसों दूर होते हैं।

इसलिए भक्ति, सद्गुण और संतोष का अभाव भी दरिद्रता का एक बड़ा रूप है।


2. संतों का मिलना संसार का सबसे बड़ा सुख

तुलसीदास जी कहते हैं कि जैसे दरिद्रता संसार का सबसे बड़ा दुःख है, वैसे ही संतों का संग ही सबसे बड़ा सुख है।

(क) सत्संग का महत्व:

संत वे होते हैं, जो हमें ईश्वर के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं, जो स्वयं भी धर्म और भक्ति में स्थित होते हैं और दूसरों को भी सन्मार्ग दिखाते हैं।

संतों की संगति में व्यक्ति को वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है, उसका मन शुद्ध होता है और वह संसार के मोहजाल से बाहर आ सकता है।


"बिनु सत्संग विवेक न होई।" 

संतों के बिना व्यक्ति को सही और गलत का ज्ञान नहीं हो सकता। सत्संग करने से व्यक्ति की बुद्धि निर्मल होती है और वह भगवान की भक्ति में प्रवृत्त हो जाता है।

(ख) संतों का संग अमूल्य है:

तुलसीदास जी कहते हैं कि भले ही व्यक्ति के पास अपार धन-दौलत हो, लेकिन अगर वह संतों के संग से वंचित है, तो वह वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।

संतों की संगति से मनुष्य में विनम्रता, दया, प्रेम, करुणा और संतोष जैसे सद्गुण आते हैं, जिससे उसका जीवन सुखमय बनता है।

"संत सरोवर मीठे जल जैसे।"
(संतों की संगति वैसे ही जीवन को मधुर बनाती है जैसे सरोवर का मीठा जल प्यास को शांत करता है।)

(ग) संतों की संगति से मिलने वाले लाभ:

  1. सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
  2. मन शुद्ध और शांत होता है।
  3. भक्ति और धर्म का मार्ग मिलता है।
  4. संसार की मायाजाल से मुक्ति मिलती है।
  5. ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है।

संत संगति ही आत्मिक सुख और मोक्ष का मार्ग दिखाती है।


"नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥" चौपाई का विश्लेषण

1. दरिद्रता क्या है 

 मेरा मानना है कि जिसके पास सब कुछ होते हुए उसका सदुपयोग नहीं कर पाता वह दरिद्र है। जो पराई सम्पत्ति पर अपना अनाधिकृत रूप से कब्जा करना चाहता है उससे बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। किसी प्रकार की अत्यधिक आसक्ति भय का कारण होती है। धन संपदा में आसक्ति घोर दरिद्रता की ओर ले जाती है, सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति आसक्ति अपयश के भय का कारण होती है, दुर्व्यसनों में आसक्ति पाप के परिणामों की चिंता का भय उत्पन्न करती है और शरीर के सुखों आदि के प्रति आसक्ति से अस्वस्थ होने का भय सताता है। दरिद्र वही व्यक्ति कहलाता है जिस व्यक्ति की कामनाएं बहुत ही ज्यादा विशाल होती है। जिसकी महत्वाकांक्षाएं इतनी ज्यादा बढ़ जाती है समुद्र को भी वह निगल जाए तो भी उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती है वही व्यक्ति वास्तव में दरिद्र कहलाने का अधिकारी बनता है।

2. इच्छाएं अथवा महत्वाकांक्षाएं

आवश्यकताएँ निर्धन व्यक्ति भी पूरी हो सकती है पर इच्छाएं महत्वाकांक्षाएं राजा के भी इस संसार के अंदर कभी भी पूरी नहीं हो सकती है सारे संसार का साम्राज्य भी उसको प्राप्त हो जाए तो भी उसके मन के अंदर शांति का नामोनिशान नजर नहीं आएगा। जहां महत्वाकांक्षाएं होती है वहां पर दरिद्रता काम नहीं होती है और ज्यादा तेजी के साथ के अंदर बढ़ाने प्रारंभ हो जाती है। 

खेते न किसान को, भिखारी को न

भीख, बलि को बनिज, न चाकर को चाकरी

जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस

कहैं एक एकन सों ‘ कहाँ जाई, का करी ?’


बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत

साँकरे स सबैं पै, राम ! रावरें कृपा करी।

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !

दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।

अकाल की भयानक स्थिति हो। इस समय किसानों की खेती नष्ट हो गई है। उन्हें खेती से कुछ नहीं मिल पा रहा है। कोई भीख माँगकर निर्वाह करना चाहे तो भीख भी नहीं मिलती। कोई बलि का भोजन भी नहीं देता। व्यापारी को व्यापार का साधन नहीं मिलता। नौकर को नौकरी नहीं मिलती। इस प्रकार चारों तरफ बेरोजगारी है। आजीविका के साधन न रहने से लोग दुखी हैं तथा चिंता में डूबे हैं। वे एक-दूसरे से पूछते हैं-कहाँ जाएँ? क्या करें?

3. ईश्वर की सब पर कृपा 

वेदों-पुराणों में ऐसा कहा गया है और लोक में ऐसा देखा गया है कि जब-जब भी संकट उपस्थित हुआ, तब-तब राम ने सब पर कृपा की है। हे दीनबंधु! इस समय दरिद्रतारूपी रावण ने समूचे संसार को त्रस्त कर रखा है अर्थात सभी गरीबी से पीड़ित हैं। चारों तरफ हाय-हाय मची हुई है। ऐसे कठिन समय मे आप ही दुखों से उबार सकते हो। वे राम से प्रार्थना करते हैं कि अब आप ही इस दरिद्रता रूपी रावण का विनाश कर सकते हैं।

4. दैवीय गुण

अभयंसत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥

अहिंसा सत्यमक्रोधास्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥

परम पुरुषोत्तम भगवान् ने कहाः हे भरतवंशी! निर्भयता, मन की शुद्धि, अध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, तपस्या और स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधहीनता, त्याग, शांतिप्रियता, दोषारोपण से मुक्त, सभी जीवों के प्रति करूणा भाव, लोभ से मुक्ति, भद्रता, लज्जा, अस्थिरहीनता, शक्ति, क्षमाशीलता, धैर्य, पवित्रता किसी के प्रति शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होना, ये सब दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों के दैवीय गुण हैं।

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥

तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता॥

चौपाई का सारांश:

  1. दरिद्रता केवल धन की कमी नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक निर्धनता भी है।
  2. अत्यधिक इच्छाएँ और लोभ दरिद्रता को जन्म देती हैं।
  3. संतों की संगति जीवन का सबसे बड़ा सुख है, क्योंकि वे हमें ईश्वर की ओर ले जाते हैं।
  4. भक्ति, संतोष और सद्गुण से ही वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है।

निष्कर्ष:

इस चौपाई में तुलसीदास जी ने दुःख और सुख के वास्तविक कारणों को बताया है। जो व्यक्ति लोभ, मोह, और विषय-वासनाओं में लिप्त रहता है, वह सदा दुःखी रहता है। लेकिन जो संतों की संगति करता है, जो भक्ति के मार्ग पर चलता है, वही सच्चा सुखी है।

"राम भजत सुख होत अपारा।
 भव भय बिनस संत करतारा।।"

इसलिए, जो लोग वास्तव में सुखी होना चाहते हैं, उन्हें संतों की संगति करनी चाहिए और भगवान के भजन में मन लगाना चाहिए। यही वास्तविक संपत्ति है, जो कभी नष्ट नहीं होती।



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