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अभिज्ञान-शाकुन्तलम् , चतुर्थ अङ्क, श्लोक संख्या 12 (उद्गलितदर्भकवला मृग्यः..) |
अभिज्ञान-शाकुन्तलम्
, चतुर्थ अङ्क, श्लोक संख्या 12 (उद्गलितदर्भकवला मृग्यः..)
(सर्वे सविस्मयमाकर्णयन्ति)
(सभी
लोग आश्वर्यपूर्वक सुनते हैं) ।
गौतमी-
जाते, ज्ञातिजनस्निग्धाभिरनुज्ञातगमनाऽसि
तपोवनदेवताभिः । प्रणम भगवतीः । (जादे, ण्णादिजणसणिद्धाहिं अणुण्णादगमणासि तवोवणदेवदाहिं । पणम भञअवदीणं ।)
व्याकरण
एवं शब्दार्थ- ज्ञातिजनस्निग्धाभिः ~ ज्ञातिजनवत् स्निग्धाभिः (त०) = बन्धुजनों की भाँति प्रेम करने वाली ।
अनुमतगमना - अनुमतं गमनं यस्याः सा (बहु०) = जिसका (पतिगृह) गमन अनुमत
(स्वीकृत) हो गया है ऐसी ।
गौतमी-
बेटी,
बन्धुजनो के समान प्रेम करने वाले तपोवन के देवताओं द्वारा तुम्हें (पतिगृह) जाने के लिये अनुमति (स्वीकृति) मिल गयी है । अतः देवताओं को प्रणाम करो
।
शकुन्तला-
(सप्रणामं परिक्रम्य । जनान्तिकम्) हला प्रियंवदे, आर्यपुत्रदर्शनोत्सुकायाः अप्याश्रमपदं परित्यजन्त्या दुःखेन मे चरणौ
पुरतः प्रवर्तते । (हला प्रिअंवदे, अज्जउत्तदंसणुस्सुआए वि अस्समपदं परिच्चअन्तीए दुक्खेण मे चलणा पुरदो
पवटुन्ति ।)
व्याकरण
एवं शब्दार्थ- आर्यपुत्रदर्शनोत्सुकायाः - आर्यपुत्रस्य
दर्शनम् आर्यपुत्रदर्शनम् (ष०त०), आर्यपुत्रदर्शने
उत्सुकायाः (सह सुपा०) = आर्यपुत्र के दर्शन के लिये उत्सुक । परित्यजन्त्याः -
परि+त्यज्+शशत् स्त्री ष०ए०ब० = छोड़ती हयी ।
शकुन्तला-
(प्रणाम करती हई चारों ओर घूमकर । हाथ की ओट मे) सखी प्रियंवदा, आर्यपुत्र (दुष्यन्त) के दर्शन के लिये उत्कण्ठित होने पर भी आश्रम-भूमि
को छोड़ते हए मेरे पैर दुःख के साथ (कठिनाई से) आगे की ओर बढ़ रहे हें ।
प्रियंवदा-
न केवलं तपोवनविरहकातरा सख्येव । त्वयोपस्थितवियोगस्य तपोवनस्यापि तावत् समवस्था
दृश्यते । (ण केवलं तपोवणविरहकादरा सही एव्व । तुए
उवड़िदविओअस्स तवोवणस्स वि दाव समवत्था दीसइ ।)
व्याकरण
एवं शब्दार्थ- तपोवनविरहकातरा - तपावनेन विरहः तेन कातरा -
तृ०त० = तपोवन के वियोग से दुःखी । उपस्थितवियोगस्य - उपस्थितः वियोगः यस्य तस्य =
सामने उपस्थित वियोग से युक्त ।
प्रियंवदा-
केवल सखी (तुम शकुन्तला) ही तपोवन के वियोग से व्याकुल (दुःखी) नहीं हो । तुम्हारे
वियोग (विदाई) के समय उपस्थित होने के कारण तपोवन की भी (तुम्हारे) समान अवस्था
दिखायी पड़ रही है-
उद्गलितदर्भकवला
मृग्यः परित्यक्तनर्तना मयुराः ।
अपसृतपाण्डुपत्राः
मुञ्चन्त्यश्रूणीव लताः ॥१२॥
(उग्गलिअदन्भमकवला
मि परिच्चत्तणच्चणा मोस ।
ओसरिअपण्डुपत्ता
मुअन्ति अस्सू विअ लदा ॥)
अन्वय-
मृग्यः उद्गलितदर्भकवलाः, मयूराः परित्यक्तनर्तनाः,
लताः अपसृतपाण्डपत्राः, अश्रूणि मुञ्चन्ति इव
।
शब्दार्थ-
मृग्यः = हरिणिरयों । उद्रलितदर्भकवलाः = जिन्होने कुश के ग्रास (कवल) को उगल दिया
है ऐसी (कुश के ग्रास को उगल देने वाली) । मयूराः = मयूर (मोर) । परित्यक्तनर्तनाः
= जिन्होंने नृत्य (नाचना) छोड दिया है एसे । लताः = लतायें । अपसृतपाण्डपत्राः =
जिन्होने पीले पत्तों को गिराया है । अश्रूणि = ओंसुओं को । मुञ्चन्ति इव = मानो
छोड़ (बहा) रही हैं ।
अनुवाद-
(तुम्हारे वियोग से दुःखी) हरिणियो ने कुश के यास (कवल) को उगल दिया है, मयूरो (मोरों) ने नाचना छोड दिया है ओर लताये पीले पत्तो को गिराकर
(डालकर) मानो ओंसुओं को बहा रही है।
संस्कृत-व्याख्या-
मृग्यः - हरिण्यः, उद्लितदर्भकवलाः -
त्यक्तकुशग्रासाः, मयुराः परित्यक्तनर्तनाः - वर्जितनृत्यव्यापाराः,
लताः - वल्लयः, अपसृतपाण्डुपत्राः -
पतितपरिणतपत्राः, अश्रूणि - नेत्रजलानि, मुञ्चन्ति इव - त्यजन्ति इव ।
संस्कृत-सरलार्थः-
प्रियंवदा स्वप्रियसखीं शकुन्तलां तपोवनविरहकातरताया दशां वर्णयन्ती कथयति यत्
सखि ! इदानीं तव वियोगकाले मृग्यः कुशग्रासान् त्यजन्ति, मयूरा न नृत्यन्ति, लताः पाण्ड्पत्राणि मुञ्चन्ति।
मन्ये ताः पाण्डुपत्रत्यागव्याजेन स्वदुःखाश्रूणि एव त्यजन्ति ।
व्याकरण—उद्गलितदर्भकवलाः
- उद्गलितः दर्भाणां कवलः याभिः ताः (बहु°) ।
परित्यक्तनृत्याः - परित्यक्तं नृत्यं यैः ते (बहु०) । अपसुतपाण्डुपत्राः -
अपसृतानि पाण्डूनि पत्राणि याभ्यः ताः (बहु°) ।
रस-भाव-
इस शलोक मे शकुन्तला के वियोगजनित कष्ट से पशु-पक्षियो की अतिशय व्यथा की
अभिव्यक्ति से करुण रस की व्यञ्जना है ।
कोष-
ग्रासस्तु कवलः पुमान्" इत्यमरः ।
अलङ्कार-
१) इस पद्य मे शकुन्तला के वियोग से उत्पन्न तपोवन की विहलतारूप कार्य का
प्रतिपादन के लिये मृगियों द्वारा कुशो के ग्रास को उगल देने, मोरों द्वारा नाचना छोड देने तथा लताओं द्वारा अश्रुरूपी पीले पत्ते
गिराने - इन तीन कारणों का कथन करने से "समुच्चय अलङ्कार है । (२)
मुञ्जन्त्यश्रणीव - मे लताओं के पीले पत्तो के गिरने में आंसुओं के गिरने की
सम्भावना की गयी है अतः क्रियोत्रेक्षा अलङ्कार है । (३) मृगियो, मयुरो तथा लताओं पर बन्धुजनो के व्यवहार का आरोप होने से समासोक्ति
अलङ्कार है ।
छन्द-
श्लोक में आर्या छन्द है।
टिप्पणी-
१) इस श्लोक से शकुन्तला का पशु- पक्षियों एवं वनस्पतियों से अतिशय लगाव व्यञ्जित
हो रहा है । शकुन्तला के वियोगजनित पीडा से मृगों द्वारा कुशो का ग्रास उगलना, मयुर का नृत्य छोड देना तथा लताओं का आंसू बहाना उनका शकुन्तला के प्रति
अन्यन्त अनुराग को प्रकट कर रहा है । इस श्लोक का कारुण्य भाव अपनी पराकाष्ठा को
प्राप्त हो गया है । (इसी प्रकार का वर्णन कालिदास के रघुवंश में भी आया है-नृत्यं
मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान् विजहुर्हरिण्यः । तस्याः प्रपन्ने
समदुःखभावमत्यन्तमासीद् रुदितं वनेऽपि ॥ (१४/६९)