"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी" — एक प्रसंग-सम्मत एवं सांकेतिक व्याख्या

Sooraj Krishna Shastri
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"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी" — एक प्रसंग-सम्मत एवं सांकेतिक व्याख्या
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी" — एक प्रसंग-सम्मत एवं सांकेतिक व्याख्या


प्रस्तुत चौपाई "ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥" का विश्लेषण अत्यंत गहराईपूर्ण, संतुलित एवं संदर्भ-सम्मत है। यहाँ हमने जिस प्रकार चौपाई "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी..." के वक्ता, प्रसंग, सांकेतिक आशय, तथा आधुनिक सामाजिक दृष्टिकोण को एक साथ समन्वित किया है, वह न केवल न्यायपूर्ण व्याख्या है, अपितु आज के संदर्भ में पुनर्पाठ (reinterpretation) का उत्तम उदाहरण भी है।


"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी" — एक प्रसंग-सम्मत एवं सांकेतिक व्याख्या

लेखक: [SOORAJ KRISHNA SHASTRI]

1. वक्ता और प्रसंग की स्पष्टता

तुलसीदास रचित रामचरितमानस का यह प्रसंग उस समय का है जब भगवान श्रीराम समुद्र से विनम्रतापूर्वक मार्ग देने का आग्रह करते हैं। परंतु तीन दिन की प्रतीक्षा के बाद भी समुद्र चुप रहता है। इस पर लक्ष्मण क्रोधित हो उठते हैं और राम से उसे दंड देने की अनुमति माँगते हैं। तब भगवान श्रीराम अपने धनुष पर बाण चढ़ाते हैं। भयभीत होकर समुद्र सशरीर प्रकट होता है और क्षमा याचना करता है।

इसी क्षमायाचनामय संवाद में समुद्र स्वयं यह कहता है—

"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥"

यह पंक्ति लक्ष्मण नहीं, बल्कि समुद्र द्वारा कही गई है—जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है।


2. चौपाई का उद्देश्य: आत्मस्वीकृति या सामाजिक टिप्पणी?

यह चौपाई सामान्यतः विवादित मानी जाती है, क्योंकि इसमें प्रयुक्त शब्द 'शूद्र' और 'नारी' आधुनिक सामाजिक दृष्टिकोण से संवेदनशील माने जाते हैं। किंतु, जब हम इसे केवल प्रसंग और वक्ता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो स्पष्ट होता है कि:

  • समुद्र स्वयं अपने दुराग्रही और जड़ स्वभाव को स्वीकार करता है।
  • वह कहता है कि जिस प्रकार कुछ प्रवृत्तियों को अनुशासन या ताड़ना से नियंत्रित किया जा सकता है, वैसे ही उसकी जड़ता को भी राम के कोप ने वश में किया

3. सांकेतिक व्याख्या: शब्दों का गूढ़ आशय

  • ढोल: जो पीटे बिना नहीं बजता = जड़ता का प्रतीक
  • गँवार: अज्ञानता का प्रतीक
  • शूद्र: जो सेवाभाव या कर्म में निमग्न है = अहंकाररहित सेवक, किंतु यहाँ दमन का प्रतीक नहीं, बल्कि कर्मप्रधान चेतना का संकेत हो सकता है।
  • पशु: जो तर्क नहीं करता, केवल प्रवृत्ति से चलता है = विवेकहीन प्रवृत्ति
  • नारी: यहाँ "मन की चंचलता" या "भावुकता" का प्रतीक मानी जा सकती है (न कि लिंग के रूप में स्त्री का अपमान)

यह चौपाई प्रतीकात्मक भाषा में एक दुराग्रही, आत्मकेन्द्रित, एवं निष्क्रिय मनोदशा पर व्यंग्य है, न कि किसी सामाजिक वर्ग विशेष पर।


4. तुलसीदास का संतुलित दृष्टिकोण

रामचरितमानस में तुलसीदास ने जिन पात्रों को सर्वोच्च भक्ति और मर्यादा का अधिकारी बताया है, वे सामाजिक दृष्टि से निम्न समझे गए वर्गों से आते हैं:

  • शबरी (स्त्री): आदर्श भक्त, जिनके जूठे बेर राम ने प्रेम से खाए।
  • निषादराज गुह (शूद्र): राम के पहले वनवासी सहयोगी।
  • केवट: जिसकी सेवा तुलसीदास ने ईश्वर सेवा से भी महान बताया।

यह स्पष्ट करता है कि तुलसीदास भक्ति और भाव की सर्वोच्चता में विश्वास रखते हैं, न कि जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव में


5. आधुनिक संदर्भ में पुनर्पाठ की आवश्यकता

समय के साथ शब्दों का प्रभाव और समाज की संवेदनशीलता बदलती है। अतः:

  • इस चौपाई को न तो तुलसीदास के व्यक्तिगत मत के रूप में देखा जाना चाहिए,
  • और न ही इसे आज के सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में दोषारोपण हेतु प्रयुक्त करना उचित होगा।

बल्कि, इसे एक प्रतीकात्मक कथन मानकर दुराग्रह, जड़ता, और अहंकार के विरोध के रूप में समझना अधिक सम्यक् होगा।


6. निष्कर्ष: सन्दर्भ, प्रतीक और संतुलन का महत्व

रामचरितमानस की भाषा बहुस्तरीय, सांकेतिक और काल-सापेक्ष है। यह आवश्यक है कि हम:

  • किसी भी पंक्ति को उसके वक्ता, प्रसंग और भावार्थ में समझें,
  • सामाजिक न्याय की आधुनिक कसौटी पर उसकी प्रतीकात्मकता को स्पष्ट करें,
  • और तुलसीदास के सर्वजन-समावेशी भक्ति मार्ग को उसके संपूर्ण ग्रंथ में देखें।

यह चौपाई हमें यह सिखाती है कि किसी भी प्रकार के दुराग्रह, जड़ता और अहंकार को तोड़ने के लिए अनुशासन (ताड़ना) आवश्यक हो सकता है—भले ही वह आत्मा की गहराई से आए।


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