संस्कृत श्लोक "सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
🙏 जय श्रीराम 🌷सुप्रभातम् 🙏
प्रस्तुत श्लोक का गूढ़ विश्लेषण संस्कृत मूल, अंग्रेजी लिप्यंतरण, हिंदी अर्थ, व्याकरण, आधुनिक संदर्भ, तथा एक नीति-कथा सहित प्रस्तुत है —
🪷 मूल संस्कृत श्लोक:
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिस्स हि शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥
🔤 Transliteration (English):
Sarveṣāmeva śaucānām arthaśaucaṃ paraṃ smṛtam।
Yo’rthe śucis sa hi śucir na mṛdvāriśuciḥ śuciḥ॥
🇮🇳 हिंदी भावार्थ:
सभी प्रकार की शुचिता (पवित्रता) में धन की शुचिता (ईमानदारी) को ही श्रेष्ठ माना गया है।
जो व्यक्ति धन के व्यवहार में निर्मल (ईमानदार) है, वही वास्तव में शुचि (पवित्र) है।
केवल मिट्टी (स्नान) और जल से शरीर को धो लेने वाला शुद्ध नहीं कहलाता।
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संस्कृत श्लोक "सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
🧠 व्याकरणीय विश्लेषण:
पद | पदच्छेद | प्रकार | अर्थ |
---|---|---|---|
सर्वेषाम् | सर्व+इषाम् | सर्वनाम-षष्ठी बहुवचन | सभी का |
एव | एव | अव्यय | ही |
शौचानाम् | शौच+आनाम् | नपुंसक-षष्ठी बहुवचन | पवित्रताओं का |
अर्थशौचम् | अर्थ+शौचम् | समास (तत्पुरुष) | धन की पवित्रता |
परम् | पर | विशेषण | सर्वोत्तम |
स्मृतम् | स्मृ (धातु) + क्त | कृतपद | माना गया |
य: | य: | सम्बन्धवाचक सर्वनाम | जो |
अर्थे | अर्थ+े | सप्तमी एकवचन | धन में |
शुचिः | शुच् (धातु) + इ | विशेषण | पवित्र |
स: | स: | सर्वनाम | वह |
हि | हि | अव्यय | निश्चय ही |
शुचिः | पवित्रता | ||
न | न | निपात | नहीं |
मृद्वारि | मृद् (मिट्टी) + वारि (जल) | द्वंद्व समास | मिट्टी और जल |
शुचिः | पवित्र | ||
शुचिः | पवित्र |
🌍 आधुनिक सन्दर्भ में अर्थ:
आज के समय में, लोग बाहरी स्वच्छता पर बहुत ज़ोर देते हैं — अच्छे वस्त्र, स्नान, परफ्यूम आदि।
परन्तु नैतिक शुचिता, विशेषतः धन और लेन-देन में ईमानदारी, कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
भ्रष्टाचार, छल, टैक्स चोरी, रिश्वत — यह सब व्यक्ति को भीतर से अपवित्र बनाते हैं, चाहे वह बाहर से कितना भी 'स्वच्छ' क्यों न लगे।
💡 सन्देश:
"पवित्रता केवल तन की नहीं, मन और धन की शुद्धता से होती है।"
📘 नीति कथा: “सच्चा ब्राह्मण कौन?”
स्थान: काशी
चरित्र: एक प्रसिद्ध तांत्रिक गुरु, एक स्नातक ब्राह्मण
गुरु ने कई वर्षों तक एक ब्राह्मण शिष्य को मंत्र और साधना की शिक्षा दी। दीक्षा पूर्ण होने पर, ब्राह्मण ने गुरु से आशीर्वाद माँगा कि वह विद्वान और समृद्ध बने।
गुरु ने एक शर्त रखी –
“जाते समय मेरी कुटिया के कोने में जो स्वर्ण मुद्रा रखी है, उसे मत लेना।”
ब्राह्मण ने सिर हिलाया — परंतु रात में ही उसने सोचा – "गुरु तो योगी हैं, उन्हें क्या आवश्यकता?"
और वह मुद्रा चुपचाप ले गया।
कुछ वर्षों बाद वह विद्वान ब्राह्मण प्रसिद्ध हो गया – वेदज्ञ, भाष्यकार, दर्शनों का ज्ञाता।
पर एक दिन वह काशी में फिर गुरु से मिला।
गुरु ने उसकी आँखों में देख कर कहा —
"तेरे वेदपाठ का कोई अर्थ नहीं... जो धन में शुद्ध नहीं, वह आचार्य नहीं, पाखंडी है।"
ब्राह्मण लज्जित हुआ और मुद्रा लौटाकर गुरु से क्षमा माँगी।
📜 नीति:
धन की शुद्धता न हो तो विद्या भी व्यर्थ हो जाती है।
🪔 निष्कर्ष व अनुकरणीय विचार:
- केवल बाहरी सफाई पर ध्यान देना अधूरा है।
- जो धन कमाने, खर्च करने और दान देने में पारदर्शी, ईमानदार, और सत्यनिष्ठ है — वही सच्चा ‘शुचि’ कहलाता है।
- शिक्षा, सेवा, व्यापार, राजनीति — हर क्षेत्र में अर्थशुचिता का मूल्य सर्वोपरि है।