तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अर्थात्,
हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई॥
आज़ हम बात करेंगे महाऋषि वाल्मीकि जी एवं वेदव्यास जी के बारे में।
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तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥ अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥ |
महर्षि वाल्मीकि के विषय में रहस्यमय तथ्य
वास्तव में महर्षि वाल्मीकि जी के संदर्भ में सनातन द्रोहियो ने बहुत गंभीर साजिश रची है । मैकाले के अनौरस सन्तान वामपंथियों ने महर्षि वाल्मीकि को किरात, भील, मल्लाह, शूद्र तक बना डाला मिथ्या प्रचार कर लोगो मे भ्रम उत्पन्न किया है जबकि यह असत्य और शास्त्र विरुद्ध है । महर्षि वाल्मीकि को हमारे शास्त्रों में आदिकवि बताया गया है। महर्षि वाल्मीकि श्रीमद्वाल्मीकिरामायण में अपना परिचय देते हुए कहते है कि मैं भृगुकुल वंश उत्पन्न ब्राह्मण हूँ-
सन्निबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्रकम् ।
उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना।।
महाकाव्य 24000 श्लोक और एक सौ उपाख्यान का है जिसमें अंत तक 500 सर्ग तथा 6 का काण्ड का निर्माण किया गया है
जिसे भृगुवंशीय महर्षि वाल्मीकि जी ने ही रचा है । महाभारत में भी वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव ) कहा गया है और यही रामायण के रचनाकार है ।
उपनिषदों के अनुसार वाल्मीकि जी प्रचेता के पुत्र थे । मरीचि अत्रि अंगिरा पुलस्त्य पुलह क्रतु प्रचेता वशिष्ठ भृगु नारद यह दस भाई थे। पितरों को तिलांजलि देने के पूर्व ही इन 10 ऋषियों को तिलांजलि दी जाती है । इन्हीं में प्रचेता ऋषि के वाल्मीकि जी पुत्र हैं। वाल्मीकि जी ब्राह्मण है। तपस्या करते समय चीटियों ने चारों तरफ से आपके ऊपर अपना घर बना लिया इसीलिए आपका नाम बाल्मीकि पड़ा।
श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि अपना परिचय देते हुए कहते है-
प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ।।
मैं प्रचेतस का दसवां पुत्र वाल्मीकि हूँ।
अर्थात कल्पान्तरों के बीतने पर सृष्टा के नवीन सृष्टि विधान में ब्रह्मा के चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित् से उत्पन्न होने के कारण प्रचेता कहा गया । इस लिए ब्रह्मा के चित् से उत्पन्न दस पुत्रो में वाल्मीकि प्रचेतस प्रसिद्ध हुए । मनुस्मृति में वर्णन है ब्रह्मा जी ने प्रचेता आदि दस पुत्र उतपन्न किये।
अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन्प्रजानां असृजं महर्षीनादितो दश ।
मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च ।।
यह शास्त्र प्रमाणित है कि महर्षि बाल्मीकि जी जन्म से ब्राह्मण थे और भृगुवंश में उत्पन्न हुए थे। लोकापवाद के कारण श्रीराम ने सीता जी को वाल्मीकि के आश्रम के पास छोड़ा था। वाल्मीकि इस कारण श्रीराम पर नाराज थे। ऐसे ही कुछ दिन बीते। एक शाम वे नदी के किनारे संध्या-वंदन कर रहे थे। एक शिकारी ने पास के पेड़ पर प्रणयमग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े को निशाना बनाया। क्रौंची तीर लगने के कारण नीचे गिर गई। उसको देखते ही ऋषि व्याकुल हो गये। इतने में क्रौंची के शोक में क्रौंच भी प्रेमवश उस पर गिर पड़ा और मर गया। ऋषि का हृदय टूक-टूक हो गया। एकाएक उनके मुख से करुणावश शिकारी के लिए यह शाप निकाला-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमागम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काम मोहितम्॥
वाल्मीकि के जीवन में इस प्रकार के दुख की तीव्रानुभूति प्रथम बार ही थी। उन्हें स्वयं पर तथा स्वयं के मुख से निकली शाप वाणी पर आश्चर्य होने लगा। विचार तरंग प्रारंभ हुआ। आखिर हर घटनाचक्र के पीछे नियति का आशय छिपा होता है। उनके अंदर का कवि जग रहा था। जब कवि के हृदय की करुणा जागती है तो वह सर्वोत्तम कला की सृष्टि करता है। रामायण का जन्म वाल्मीकि की इसी करुणा से हुआ है। श्रीराम की प्रशंसा या रावण के द्वेष से नहीं। प्रथम सीता जी के प्रति और बाद में क्रौंच-युगल के प्रति वाल्मीकि में करुणा उत्पन हुई थी। इस करुणा-बीज का ही रामायण रूपी मधुर फल है। इसी मानसिक स्थिति में वाल्मीकि की भेंट नारद जी से हुई। मनुष्य को उसके धर्म का ज्ञान कराने वाले नारद है
नरस्य धर्मो नारं तद्वदहातीति नारद:।
नारद ही ऐसे ऋषि थे जिन्हें संसार में कहीं भी रोकथाम नहीं थी क्योंकि सभी को यह विश्वास था कि यह हमारा अहित नहीं करेंगे। वाल्मीकि ने नारद से घटना के पीछे का रहस्य एवं आगे का कर्तव्य पूछा। नारद जी ने कहा—काव्य की धारा निरंतर प्रवाहित हो रही है अत: काव्य रचना करो। वाल्मीकि द्वारा पूछा गया-
कोऽन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके?
(ऐसा कौन पुरुष वर्तमान काल में है जिसका चरित्र काव्यबद्ध किया जाये?)
नारद ने कहा- लोक शिक्षण के लिए सर्वोत्तम चरित्र श्रीराम का ही है। साथ ही नारद जी ने संक्षेप में राम कथा सुनाई। यह 100 श्लोकों में थी। इसको ही 100 श्लोकी रामायण कहा जाता है जिसका विस्तार महर्षि बाल्मीकि ने 24 हजार श्लोकों में किया।
भगवान श्री व्यास जी का रहस्यमयी अवतार
मत्स्यगंधा, जिसे सत्यवती भी कहा जाता है, की उत्पत्ति एक अनोखी कहानी से जुड़ी है। वह एक अप्सरा (दिव्य अप्सरा) अद्रिका के गर्भ से जन्मी थी, जिसे श्राप के कारण मछली का रूप धारण करना पड़ा था. मत्स्यगंधा का जन्म एक मछली के रूप में हुआ था, और उसके शरीर से मछली जैसी गंध आती थी, जिसके कारण उसका नाम मत्स्यगंधा पड़ा।
सत्यवती ने पाराशर ऋषि के पुत्र को जन्म दिया। जन्म लेते ही वह बड़ा हो गया और एक द्वीप पर तप करने चला गया। द्वीप पर तप करने और इनका रंग काला होने की वजह से वे कृष्णद्वैपायन के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने ही वेदों का संपादन किया और महाभारत ग्रंथ की रचना की थी।
शांतनु और सत्यवती का विवाह
ऋषि पाराशर के वरदान से मत्स्यगंधा के शरीर से मछली की दुर्गंध खत्म हो गई थी। इसके बाद वह सत्यवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। एक दिन शांतनु ने सत्यवती को देखा तो वे मोहित हो गए। बाद में शांतनु के पुत्र देवव्रत ने सत्यवती और शांतनु का विवाह करवाया।
सत्यवती और शांतनु की दो संतानें थीं। चित्रांगद और विचित्रवीर्य। शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद को राजा बनाया गया था। चित्रांगद की मृत्यु के बाद विचित्रवीर्य राजा बना। भीष्म पितामह ने विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका और अंबालिका से करवाया था।
विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद सत्यवती ने अपने पुत्र वेदव्यास को बुलाया। विचित्रवीर्य की कोई संतान नहीं थी। तब वेदव्यास की कृपा से अंबिका और अंबालिका ने धृतराष्ट्र और पांडु को जन्म दिया। एक दासी से विदुर का जन्म हुआ। भगवान व्यास जी भी ब्राह्मण हीं थे।
हमारे धर्म ग्रंथों एवं शास्त्रों के साथ बहुत ज्यादा ही खिलवाड़ किया गया है, कृपया अपने आप को पहचानें, सनातन ही धर्म है, बाकी सब सम्प्रदाय है जो आदि है अनन्त है, शाश्वत है।