परोपकार (Paropkar) – Humanity का असली परिचय | Importance of Paropkar in Life
प्रस्तावना
परोपकार का महत्व
परोपकार करने से स्वार्थ की भावना नष्ट होती है और मनुष्य समाज में आदरणीय बन जाता है। भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, ठिठुरते को वस्त्र और रोगी को सेवा देने से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह ब्रह्मानन्द के समान है। यही कारण है कि परोपकारी व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अमर हो जाते हैं—उनकी कीर्ति और यश का गान सर्वत्र होता है।
भारतीय संस्कृति में परोपकार
भारतीय परम्परा में परोपकार का भाव यज्ञ के रूप में मिलता है। “इदं न मम” की भावना से दी गई आहुति केवल अग्नि में नहीं जाती, बल्कि अनगिनत लोगों के कल्याण का कारण बनती है।
अर्थात्, अठारह पुराणों का सार यही है कि परोपकार करना ही पुण्य है और परपीड़ा पाप है।
परोपकार बनाम स्वार्थ
दुनिया में दो प्रकार के लोग रहते हैं—
- सज्जन पुरुष, जो दूसरों के लिए जीते हैं, अपनी सम्पत्ति, समय और श्रम जन-कल्याण में समर्पित कर देते हैं।
- स्वार्थान्ध व्यक्ति, जो केवल अवसर की ताक में रहते हैं और दूसरों की भलाई से जलते हैं।
अर्थात्, ऐसे लोग दूसरों की प्रशंसा तक नहीं सह पाते। वे माया-जाल में फँसकर चिन्ता और क्लेश से भरा जीवन बिताते हैं और अन्त में गुमनामी में संसार से विदा हो जाते हैं।
इसके विपरीत सज्जन पुरुष मृत्यु के बाद भी अमर रहते हैं। उनकी कीर्ति चन्द्र-सूर्य के रहते तक फैलती रहती है।
संत और महापुरुषों का दृष्टिकोण
महापुरुषों ने परोपकार को ही अपने जीवन का लक्ष्य माना।
- राजा रन्तिदेव ने 48 दिन तक भूखे रहकर भी अन्तिम समय में अपने अन्न को चाण्डाल को दान कर दिया।
- व्यास जी ने इसे परम धर्म बताया।
- गोसाईं तुलसीदास ने संत का लक्षण यही माना—"पर उपकार वचन मन काया।सन्त सहज सुभाव खगराया।।"
अर्थात्, उपकार करने से वही आनन्द मिलता है जैसा मेहंदी बांटने पर हाथों में स्वयं रंग लग जाने से होता है।
परोपकार और अमरता
अर्थात्, जो लोग जनसेवा में रत रहते हैं, वे मृत्यु और वृद्धावस्था से परे होकर अपनी कीर्ति से अमर हो जाते हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परोपकार
आज “सर्वभूत हिते रत” की भावना धीरे-धीरे क्षीण हो रही है। परोपकार का आवरण धारण कर बहुत से लोग स्वार्थ साधन में लगे हैं। अतः आवश्यकता है कि भारतीय संस्कृति के आदर्शों को पुनः आत्मसात किया जाए—
- “वसुधैव कुटुम्बकम्” – पूरी पृथ्वी को परिवार मानना।
- “आत्मवत् सर्वभूतेषु” – सब प्राणियों में स्वयं को देखना।
- “सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय” – सबके सुख और कल्याण की भावना रखना।