परोपकार (Paropkar) – Humanity का असली परिचय | Importance of Paropkar in Life

Sooraj Krishna Shastri
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परोपकार (Paropkar) – Humanity का असली परिचय | Importance of Paropkar in Life

प्रस्तावना

मनुष्य का वास्तविक धर्म क्या है? वह केवल अपने लिए जीए या दूसरों के लिए भी जिए? भारतीय संस्कृति ने इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट शब्दों में दिया है—“परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।”
अर्थात्, दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई धर्म नहीं और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से नीच कोई कार्य नहीं। परोपकार ही वह सद्गुण है जो साधारण मनुष्य को महामानव बना देता है। यह मानवता का परम परिचायक है और मनुष्य को देवतुल्य बना देता है।


परोपकार का महत्व

परोपकार करने से स्वार्थ की भावना नष्ट होती है और मनुष्य समाज में आदरणीय बन जाता है। भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, ठिठुरते को वस्त्र और रोगी को सेवा देने से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह ब्रह्मानन्द के समान है। यही कारण है कि परोपकारी व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अमर हो जाते हैं—उनकी कीर्ति और यश का गान सर्वत्र होता है।

मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है—
"अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।"

परोपकार (Paropkar) – Humanity का असली परिचय | Importance of Paropkar in Life
परोपकार (Paropkar) – Humanity का असली परिचय | Importance of Paropkar in Life



भारतीय संस्कृति में परोपकार

भारतीय परम्परा में परोपकार का भाव यज्ञ के रूप में मिलता है। “इदं न मम” की भावना से दी गई आहुति केवल अग्नि में नहीं जाती, बल्कि अनगिनत लोगों के कल्याण का कारण बनती है।

महापुराणों में भी परोपकार का महत्व स्पष्ट है—
"अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयं।
परोपकाराय पुण्याय, पायाय पर पीडनम्।।"

अर्थात्, अठारह पुराणों का सार यही है कि परोपकार करना ही पुण्य है और परपीड़ा पाप है।


परोपकार बनाम स्वार्थ

दुनिया में दो प्रकार के लोग रहते हैं—

  • सज्जन पुरुष, जो दूसरों के लिए जीते हैं, अपनी सम्पत्ति, समय और श्रम जन-कल्याण में समर्पित कर देते हैं।
  • स्वार्थान्ध व्यक्ति, जो केवल अवसर की ताक में रहते हैं और दूसरों की भलाई से जलते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा—
"जो काहू की सुनहिं बड़ाई।
स्वाँस लेई जनु जूड़ी आई।।"

अर्थात्, ऐसे लोग दूसरों की प्रशंसा तक नहीं सह पाते। वे माया-जाल में फँसकर चिन्ता और क्लेश से भरा जीवन बिताते हैं और अन्त में गुमनामी में संसार से विदा हो जाते हैं।

इसके विपरीत सज्जन पुरुष मृत्यु के बाद भी अमर रहते हैं। उनकी कीर्ति चन्द्र-सूर्य के रहते तक फैलती रहती है।


संत और महापुरुषों का दृष्टिकोण

महापुरुषों ने परोपकार को ही अपने जीवन का लक्ष्य माना।

  • राजा रन्तिदेव ने 48 दिन तक भूखे रहकर भी अन्तिम समय में अपने अन्न को चाण्डाल को दान कर दिया।
  • व्यास जी ने इसे परम धर्म बताया।
  • गोसाईं तुलसीदास ने संत का लक्षण यही माना—
    "पर उपकार वचन मन काया।
    सन्त सहज सुभाव खगराया।।"

रहीम भी कहते हैं—
"रहिमन यो सुख होत है उपकारी के संग,
बाँटनवारे को लगे ज्यों मेंहदी के रंग।।"

अर्थात्, उपकार करने से वही आनन्द मिलता है जैसा मेहंदी बांटने पर हाथों में स्वयं रंग लग जाने से होता है।


परोपकार और अमरता

मानव जीवन क्षणभंगुर है, किन्तु परोपकार अमरत्व प्रदान करता है।
मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में—
"विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।"

संस्कृत श्लोक भी कहता है—
"जयन्ति ते महाभागाः जनसेवा परायणः।
जरामृत्यु नास्ति, येषां कीर्तितनोः क्वचित्।।"

अर्थात्, जो लोग जनसेवा में रत रहते हैं, वे मृत्यु और वृद्धावस्था से परे होकर अपनी कीर्ति से अमर हो जाते हैं।


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परोपकार

आज “सर्वभूत हिते रत” की भावना धीरे-धीरे क्षीण हो रही है। परोपकार का आवरण धारण कर बहुत से लोग स्वार्थ साधन में लगे हैं। अतः आवश्यकता है कि भारतीय संस्कृति के आदर्शों को पुनः आत्मसात किया जाए—

  • “वसुधैव कुटुम्बकम्” – पूरी पृथ्वी को परिवार मानना।
  • “आत्मवत् सर्वभूतेषु” – सब प्राणियों में स्वयं को देखना।
  • “सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय” – सबके सुख और कल्याण की भावना रखना।

उपसंहार

परोपकार ही वह शक्ति है जो मनुष्य को क्षुद्र से महान और साधारण से विराट बनाती है। यही सच्चे मानव जीवन का सार है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं—
"पर उपकार निरत जो सज्जन कभी नहीं मरते हैं,
चन्द्र सूर्य जब तक हैं उनके यशः पुष्प झरते हैं।।"

अतः यह निष्कर्ष स्पष्ट है कि –
👉 जो केवल अपने लिए जीता है, वह पशु है।
👉 जो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए जीता है, वही सच्चा मनुष्य है।
👉 और जो केवल दूसरों के लिए जीता है, वही महामानव है।

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