"श्री शेषनाग कथा: Shesh Ji Ki Tapasya Aur Prithvi Dharan Ki Divya Katha"

Sooraj Krishna Shastri
By -
0

"श्री शेषनाग कथा: Shesh Ji Ki Tapasya Aur Prithvi Dharan Ki Divya Katha"


श्री शेषजी — व्यवस्थित, विस्तृत और सुव्यवस्थित प्रस्तुति

कथा का सार (संक्षेप में)
माता कद्रू की आज्ञा और उसके कारण उत्पन्न विवाद के फलस्वरूप शेषनाग ने कठोर तपस्या की। ब्रह्माजी के वर और निर्देश के कारण उन्होंने पृथ्वी को अपने शिरोपर धारण किया — जिससे पृथ्वी स्थिर हुई और शेष का स्थान सनातन प्रतीक बन गया।


पात्र और उनका परिचय

  • शेषजी (शेषनाग) — धर्मपरायण, संयमी, अति-दयालु व निर्भीक नाग। गम्भीर तपस्वी, नियंत्रित-बुद्धि के स्वामी।
  • माता कद्रू — सर्पों की जननी; गर्भस्थ श्रेष्ठता पर अभिमान और विवशता दोनों समाहित।
  • कर्कोटक, आदि सर्प — कद्रू के अनुगामी पुत्र; आदेश पालन में निश्चयशील और कर्मठ।
  • शेषजी के अन्य भाई — जो कद्रू की आज्ञा मानने को तैयार रहे, पर बुद्धि में विवेक की कमी दिखी।
  • ब्रह्माजी — सृष्टि के रचयिता; न्याय-मन और सम्यक् दृष्टि के साथ निर्णय देने वाले देव।
  • (पृष्ठभूमि में) गरुड़, पाण्डववंशी महाराज जनमेजय, और सर्पयज्ञ — कथा के सामाजिक व नैतिक संदर्भ के महत्वपूण्य़ पात्र/घटनाएं।

विस्तृत कथानक — क्रमबद्ध रूप

1) कद्रू का आदेश और विभाजन

माता कद्रू अपने पुत्रों से कहती हैं कि वे अगले प्रातः अरुणोदय के वक्त काले बालों सी छाया बनकर भगवान् भास्कर के रथ के अश्वों की पूँछ पर लिपट जाएँ, ताकि उनके बल और संख्या से शर्त पूरी होकर वे दासी न बनें। कुछ पुत्रों ने यह आज्ञा स्वीकार कर ली — वे भास्कर के रथ पर काले-ब्लैक बाल बनकर जा लगे। किन्तु कुछ — जिनमें शेषजी भी थे — ने इस अधर्ममय और जघन्य आज्ञा का विरोध किया। यहाँ पर माँ और पुत्रों के बीच नैतिक टकराव का आरम्भ होता है।

"श्री शेषनाग कथा: Shesh Ji Ki Tapasya Aur Prithvi Dharan Ki Divya Katha"
"श्री शेषनाग कथा: Shesh Ji Ki Tapasya Aur Prithvi Dharan Ki Divya Katha"

2) कद्रू का श्राप और देवों की सहमति

कद्रू की नाराज़गी और तीव्र क्रोध के कारण उसने विरोध करने वाले सर्पों पर भयंकर श्राप कर दिया — कि पाण्डववंशी महाराज जनमेजय का सर्पयज्ञ अग्नि के प्रकोप से इन्हें भस्म कर देगी। कद्रू का श्राप तेज और माँ के स्वभाव का प्रतिबिंब था — पर यह श्राप पृथ्वीय जीवों की सुरक्षा हेतु भी तार्किक ठहरा दिया गया: ब्रह्माजी को भी पृथ्वी पर सर्पों की बढ़ती संख्या और उनके विनाशकारी प्रभाव की चिंता थी। अतः ब्रह्माजी ने कद्रू के श्राप पर अनुपालन किया — क्योंकि संसार के हित में दैवीय दण्ड कभी-कभी आवश्यक होता है। (उद्धरण: “तेषां प्राणान्तको दण्डो दैवेन विनिपात्यते।”)

3) शेषजी की विरोधी भूमिका और तप ताप

शेषजी ने मां के दुष्ट और अवैध आदेशन का अनुसरण न किया। वे अपने परिवार से अलग होकर गन्धमादन पर्वत के समीप बद्रिकाश्रम के तीर्थ पर चले गए और वहाँ कठोर तपस्वित्व आरम्भ किया। भोजन-त्याग, केवल वायु से जीवन, और अनुशासित व्रत — सब से उनका शरीर सूख गया, पर मनोबल अडिग रहा। शेषजी का उद्देश्य न केवल स्वयं रक्षा था, बल्कि आत्म-नियमन और धर्म की स्थिति बनाए रखने का भी था।

4) ब्रह्माजी का परीक्षण और संवाद

ब्रह्माजी, जो शेषजी के तप की दृष्टि से प्रभावित हुए, उनसे बोले — “तुम क्या चाहते हो? कहो, तुम्हारी इच्छा पूर्ण कर दूँ।” शेषजी ने कहा कि वे अपने भाइयों के साथ नहीं रहना चाहते; उनकी बुद्धि और कृत्य उनसे असह्य थे। किन्तु शेषजी की वास्तविक आकांक्षा कोई वैभव या अनन्त आयु न थी — उनकी प्रार्थना थी: ‘बुध्दि: रतां धर्मे, आत्म-नियन्त्रण व तप में स्थिर रहें’ — अर्थात् कि उनकी बुद्धि सदैव धर्म, संयम और तप में व्यस्त रहे। यह वरदान भक्ति, धर्म और आत्मनियन्त्रण का आदर्श है।

5) वरदान के साथ जिम्मेवारी — पृथ्वी-संवलन

ब्रह्माजी शेषजी के तप से प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान के साथ एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी भी दी: वे पृथ्वी को अपने शिरोपर धारण करें ताकि यह स्थिर हो जाए। ब्रह्माजी ने कहा कि पर्वत, वन, सागर और ग्राम सब चलायमान हैं — शेषजी द्वारा पृथ्वी का शिरोपर धारण करने से पृथ्वी अचल हो जाएगी और सृष्टि का एक विशिष्ट कार्य सिद्ध होगा। शेषजी ने शिरोपर वासुधा को धारण किया — और तब से पृथ्वी स्थिर हुई। इस क्रिया से शेष का परम कर्तव्य और स्थिरता का प्रतीक बनना सिद्ध होता है।


संवादात्मक अंश

  • शेषजी — “देव! मेरे लिए सर्वोपरि वर यही है कि मेरी बुद्धि सदैव धर्म, शम तथा तप में रहे।”
  • ब्रह्माजी — “तुम्हारे तप का फल न केवल वर है, मैं तुम्हें पृथ्वी के लिए एक महान कर्तव्य भी सौंपता हूँ — इसे अपने शिरोपर धारण कर लो।”

ये संवाद शेषजी की विनम्रता, धर्म-प्रवृत्ति और ब्रह्मा के दायित्वपूर्ण-निर्णय को रेखांकित करते हैं।


विषयगत विश्लेषण — प्रतीक और अर्थ

  1. नैतिक विवेक बनाम पारिवारिक आज्ञा — कद्रू का आदेश पारिवारिक आज्ञा का प्रतीक है; शेषजी का विरोध विवेक और धर्म का प्रतीक। कथा यह सिखाती है कि यदि परिवारिक आदेश अधर्म की ओर ले जाएँ तो विवेक और धर्म का अनुसरण श्रेष्ठ है।
  2. तप और अनुशासन की महत्ता — शेषजी का तप आत्म-नियन्त्रण, अनुशासन और आध्यात्मिक प्राथमिकता का संदेश देता है।
  3. दायित्व में त्याग — ब्रह्माजी का आदेश शेष को दायित्व देता है जिसे शेष ने वैराग्य और समर्पण से स्वीकार किया — यह दर्शाता है कि सच्ची शक्ति सेवा और जिम्मेदारी में है।
  4. स्थिरता का प्रतिकात्मक स्वरूप — पृथ्वी का शिरोपर धारण शेष को संसार की स्थिरता का रक्षक बनाता है — विज्ञान/भौतिक दृष्टि से नहीं, पर दृष्टांत के रूप में — स्थिरता, संतुलन और धर्म की रक्षा।

नैतिक / उपदेश

  • सत्य और धर्म के लिए स्थिर रहो, चाहे विरोध अपने ही संबंधियों से ही क्यों न हो।
  • तप, संयम और बुद्धि का समन्वय व्यक्ति को उच्च पुरुषार्थ की ओर ले जाता है।
  • महान कर्तव्य अक्सर त्याग मांगते हैं; उसे स्वीकार करना व बड़ी बात को समझना ही सच्ची महानता है।


Post a Comment

0 Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!