कलियुग में पाँच निषिद्ध कर्म – अश्वमेध, गोमेध, संन्यास, श्राद्ध में मांस, देवर-सुतोत्पत्ति | Brahma Vaivarta Purana Explained
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलियुग में पाँच कर्म निषिद्ध हैं – अश्वमेध यज्ञ, गोमेध (गोवध), संन्यास, श्राद्ध में मांस का प्रयोग और देवर द्वारा पुत्रोत्पत्ति। जानिए इन पाँचों के निषेध के धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक कारणों का विस्तृत विश्लेषण।
कलियुग में निषिद्ध पाँच कर्म | Ashwamedh, Gomedh, Sannyas, Shraddha aur Devar Sutotpatti – Kalyug Mein Panch Nishedh Karm
🔹 श्लोक
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृष्णजन्मखण्ड 115.112–113)
🔹 पदच्छेद (Padaccheda)
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| कलियुग में निषिद्ध पाँच कर्म | Ashwamedh, Gomedh, Sannyas, Shraddha aur Devar Sutotpatti – Kalyug Mein Panch Nishedh Karm |
🔹 शाब्दिक अर्थ (Literal Meaning)
- अश्वमेधम् — अश्वमेध यज्ञ को
- गवालम्भम् — गोमेध (गाय का बलिदान)
- संन्यासम् — संन्यास-आश्रम ग्रहण करना
- पलपैतृकम् — श्राद्ध में मांस अथवा पल द्वारा पितृ-क्रिया करना
- देवरेण सुतोत्पत्तिम् — देवर द्वारा पुत्र उत्पत्ति (नियोग-प्रथा)
- कलौ पञ्च विवर्जयेत् — कलियुग में इन पाँचों का त्याग करना चाहिए
🔹 भावार्थ (Bhavārtha)
भगवान श्रीकृष्ण के वचनों में कहा गया है कि कलियुग में निम्नलिखित पाँच आचरणों को पूरी तरह त्याग देना चाहिए —
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अश्वमेध यज्ञ — यह प्राचीन काल में राजाओं द्वारा किया जाने वाला एक महान यज्ञ था, जिसमें एक अश्व (घोड़ा) छोड़ा जाता था।परंतु कलियुग में लोगों में न तो यज्ञ की पात्रता रही, न ब्राह्मणों में मंत्र-शुद्धि का बल, न राजाओं में धर्मबल।अतः अश्वमेध जैसे हिंसात्मक और जटिल यज्ञ अब निषिद्ध हैं।
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गवालम्भ या गोमेध — अर्थात् गो-वध या गाय का यज्ञ में बलिदान देना।कलियुग में यह अत्यंत पाप माना गया है, क्योंकि गाय धर्म, कामधेनु और मातृस्वरूपा मानी जाती है।गोवध का कोई भी रूप धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है।
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संन्यास — यद्यपि संन्यास आश्रम परम श्रेष्ठ माना गया है,परंतु कलियुग में मनुष्यों का मन अस्थिर, विषयासक्त और असंयमी है।इसलिए अनेक शास्त्रों में कहा गया है कि कलियुग में संन्यास लेने वाला यदि मन और इंद्रियों पर विजय नहीं पा सके तो वह पतित होता है।अतः गृहस्थ जीवन में रहते हुए ईश्वरस्मरण ही श्रेष्ठ बताया गया।
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पलपैतृकम् — ‘पल’ का अर्थ मांस और ‘पैतृकम्’ का अर्थ पितृकर्म अर्थात् श्राद्ध।अर्थात् श्राद्धकर्म में मांस का प्रयोग करना कलियुग में निषिद्ध है।पूर्वकाल में जब यज्ञ में हिंसा अहिंसा से परे थी, तब पितृ-क्रिया में मांस का प्रयोग होता था।परंतु अब वह भावना लुप्त है; इसलिए केवल फल, तिल, जल और ब्राह्मण-भोजन से क्रिया श्रेष्ठ है।
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देवरेण सुतोत्पत्ति — यह नियोग-प्रथा है।यदि किसी पुरुष की मृत्यु संतानहीन हो जाती थी, तो उसका भाई (देवर) विधवा से संतान उत्पन्न करता था ताकि वंश आगे बढ़े।परंतु कलियुग में यह प्रथा अत्यंत अनैतिक और अधर्मपूर्ण मानी गई है।अतः शास्त्रों में इसे स्पष्ट रूप से त्याज्य कहा गया है।
🔹 कालसापेक्ष धर्म का संकेत
🔹 अन्य पुराणों में समान भाव
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भागवत पुराण (12.3.52):कलेः दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येको महान् गुणः।कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥— अर्थात कलियुग में असंख्य दोष हैं, परंतु एक महान गुण है —केवल श्रीकृष्ण-नामस्मरण से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
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मनुस्मृति (5.56) में भी कहा गया —अध्येतव्यो न गोघातः सर्वेषां मांसभक्षणं त्याज्यम्।— गोवध और मांसाहार सर्वथा त्याज्य हैं।
🔹 आधुनिक सन्दर्भ में विवेचन
आज के युग में इस श्लोक का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि —
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धर्म के नाम पर हिंसा — अनेक लोग यज्ञ, बलि या परंपरा के नाम पर हिंसात्मक कर्म करते हैं;यह श्लोक बताता है कि कलियुग में “अहिंसा परमॊ धर्मः” ही प्रमुख सिद्धांत है।
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संन्यास का दुरुपयोग — समाज में कई बार संन्यास बाह्य आडंबर बन गया है,इसलिए गृहस्थ रहते हुए भक्ति करना ही वास्तविक संन्यास है।
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श्राद्ध का शुद्ध स्वरूप — अब केवल सत्कर्म, जल, तिल, फल, और ब्राह्मण-सत्कार से ही पितृ तृप्त होते हैं।
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नैतिक मर्यादा — देवर-नियोग जैसी प्रथा अब सामाजिक और नैतिक दोनों दृष्टि से अनुचित है।
🔹 सारांश (Essence)
कलियुग में धर्म का स्वरूप सरल, अहिंसामय और भक्तिपरक है।अतः हिंसात्मक यज्ञ, अनैतिक आचरण या बाह्य संन्यास की अपेक्षा —अहिंसा, सत्य, करुणा और हरिनाम-स्मरण को ही परम धर्म कहा गया है।

