Bhagavad Gita ke 18 Adhyay ke naam, unka saar (summary) aur yaad karne ka aasaan 'Smriti Shloka' yahan padhein. Jaaniye Gita ke har chapter ka mahatva short mein.
Bhagavad Gita ke 18 Adhyay kaise yaad karein? Short Trick aur Chapter-wise Parichay
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| Bhagavad Gita ke 18 Adhyay kaise yaad karein? Short Trick aur Chapter-wise Parichay |
श्रीमद्भगवद्गीता : अष्टादश अध्यायों का विस्तृत एवं सुव्यवस्थित विवेचन
भूमिका : गीता का समग्र दर्शन
श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव जीवन की पूर्ण जीवन-दर्शन संहिता है। यह ग्रंथ यह स्पष्ट करता है कि—
- मनुष्य का जीवन कर्म से प्रारंभ होकर
- भक्ति द्वारा परिष्कृत होकर
- ज्ञान में प्रतिष्ठित होता है
इसी दार्शनिक क्रम को स्पष्ट करने के लिए गीता को तीन षट्कों में विभाजित किया गया है—
- कर्मप्रधान षट्क (प्रथम षट्क)
- भक्तिप्रधान षट्क (द्वितीय षट्क)
- ज्ञानप्रधान षट्क (तृतीय षट्क)
प्रथम षट्क (अध्याय 1 से 6)
कर्मयोग का दार्शनिक आधार
यह षट्क यह सिद्ध करता है कि कर्तव्य से पलायन नहीं, बल्कि शुद्ध, निष्काम कर्म ही आध्यात्मिक उन्नति का प्रथम सोपान है।
प्रथम अध्याय : अर्जुनविषाद योग
इस अध्याय में कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि का दृश्य प्रस्तुत होता है। अर्जुन जब अपने ही संबंधियों, गुरुओं और स्वजनों को युद्ध के लिए तत्पर देखते हैं, तो उनका मन करुणा, मोह और शोक से भर जाता है। वे अपने धनुष गांडीव को छोड़कर युद्ध से विमुख हो जाते हैं।
द्वितीय अध्याय : सांख्य योग
यह अध्याय गीता का दार्शनिक आधार है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का ज्ञान देते हैं। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न नष्ट होती है।
इस अध्याय में—
- आत्मा का स्वरूप
- कर्मयोग की प्रारंभिक शिक्षा
- स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षण
तृतीय अध्याय : कर्मयोग
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि संसार में रहते हुए कर्म से बचना असंभव है। अतः कर्म का त्याग नहीं, बल्कि कर्म में आसक्ति का त्याग ही वास्तविक योग है।
यहाँ बताया गया है कि—
- निष्काम कर्म आत्मशुद्धि का साधन है
- श्रेष्ठ पुरुष का आचरण समाज के लिए आदर्श बनता है
- लोकसंग्रह हेतु कर्म आवश्यक है
चतुर्थ अध्याय : ज्ञानकर्मसंन्यास योग
इस अध्याय में भगवान अपने अवतार-तत्त्व का उद्घाटन करते हैं और बताते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब वे अवतार लेते हैं।
पंचम अध्याय : कर्मसंन्यास योग
यह अध्याय यह स्पष्ट करता है कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों में से कर्मयोग अधिक सरल और श्रेष्ठ है। यहाँ संन्यास का अर्थ कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि कर्मफल की आसक्ति का त्याग बताया गया है।
भगवान बताते हैं कि—
- कर्मयोगी शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त होता है
- ज्ञान और कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं
षष्ठ अध्याय : आत्मसंयम योग (ध्यान योग)
इस अध्याय में मन के निग्रह और ध्यान की विधि का विस्तृत वर्णन है। भगवान योगी के लक्षण बताते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि मन चंचल है, किंतु अभ्यास और वैराग्य से उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
यह अध्याय आंतरिक साधना का आधार है।
द्वितीय षट्क (अध्याय 7 से 12)
भक्ति योग की प्रतिष्ठा
यह षट्क यह सिद्ध करता है कि कर्म और ज्ञान की पूर्णता भक्ति में होती है।
सप्तम अध्याय : ज्ञानविज्ञान योग
इस अध्याय में भगवान अपने सगुण और निर्गुण स्वरूप का विवेचन करते हैं। वे बताते हैं कि यह संपूर्ण जगत उनकी अपरा और परा प्रकृति से निर्मित है।
यहाँ ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराया गया है।
अष्टम अध्याय : अक्षरब्रह्म योग
इस अध्याय में मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने की महिमा बताई गई है। ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म और अधिभूत आदि की परिभाषा दी गई है।
यह अध्याय मरणोत्तर गति का दार्शनिक विवेचन करता है।
नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्य योग
यह गीता का अत्यंत गोपनीय और करुणापूर्ण अध्याय है। भगवान अपनी अनन्य भक्ति की महिमा बताते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि वे सभी प्राणियों के प्रति समान हैं।
यह अध्याय भक्ति का हृदय है।
दशम अध्याय : विभूति योग
इस अध्याय में भगवान अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन करते हैं और बताते हैं कि संसार की हर श्रेष्ठता उन्हीं से उत्पन्न है।
यह अध्याय ईश्वर-दर्शन को सरल बनाता है।
एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शन योग
इस अध्याय में अर्जुन भगवान के विराट रूप का दर्शन करते हैं। यह रूप काल, संहार और सृष्टि—तीनों का एक साथ दर्शन कराता है।
यह अध्याय मनुष्य के अहंकार को पूर्णतः तोड़ देता है।
द्वादश अध्याय : भक्तियोग
इस अध्याय में साकार और निराकार उपासना की तुलना करते हुए भगवान बताते हैं कि साकार भक्ति सरल है। यहाँ भगवान को प्रिय भक्त के गुणों का विस्तार से वर्णन है।
तृतीय षट्क (अध्याय 13 से 18)
ज्ञान योग का चरम विकास
त्रयोदश अध्याय : क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग
इस अध्याय में शरीर और आत्मा के भेद का विवेचन किया गया है। ज्ञान की परिभाषा और ज्ञेय तत्व का वर्णन है।
चतुर्दश अध्याय : गुणत्रयविभाग योग
इस अध्याय में सत्त्व, रज और तम गुणों का विस्तार से वर्णन है और बताया गया है कि मनुष्य इनसे कैसे ऊपर उठ सकता है।
पंचदश अध्याय : पुरुषोत्तम योग
इस अध्याय में संसार रूपी उल्टे अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन है और परम पुरुषोत्तम तत्व का बोध कराया गया है।
षोडश अध्याय : दैवासुरसम्पद्विभाग योग
इस अध्याय में दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है।
सप्तदश अध्याय : श्रद्धात्रयविभाग योग
इस अध्याय में श्रद्धा, आहार, यज्ञ, तप और दान के तीन-तीन प्रकारों का वर्णन है।
अष्टादश अध्याय : मोक्षसंन्यास योग
यह गीता का निष्कर्ष है। इसमें संपूर्ण गीता का सार प्रस्तुत है और अंत में भगवान पूर्ण शरणागति का उपदेश देते हैं।
गीता का स्मृति-श्लोक : संक्षेप में
🔖 अष्टादश अध्याय स्मरण-श्लोक
अ–सां–क–ज्ञा, क–आत्म च ।ज्ञा–अ–राज, वि–विश्व–भ ॥क्षे–गु–पु–दै, श्र–मोक्ष च ।अष्टादश, गीता स्मृतः ॥
- पहली पंक्ति (1–6): अर्जुनविषाद, सांख्य, कर्म, ज्ञानकर्मसंन्यास, कर्मसंन्यास, आत्मसंयम — कर्मप्रधान षट्क।
- दूसरी पंक्ति (7–12): ज्ञानविज्ञान, अक्षरब्रह्म, राजविद्या, विभूति, विश्वरूप, भक्ति — भक्तिप्रधान षट्क।
- तीसरी पंक्ति (13–18): क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, गुणत्रय, पुरुषोत्तम, दैवासुर, श्रद्धात्रय, मोक्षसंन्यास — ज्ञानप्रधान षट्क।
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