सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ।।

Sooraj Krishna Shastri
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  जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है॥

  सच बात तो यह है कि भोगासक्त संसारवालो का प्रेम है ही नहीं, सच्चे प्रेमी तो प्रभु है, जो गुण नहीं देखते और कामना तो उनके मन में है ही नहीं , भगवान का प्रेम ही असली प्रेम है ,अतएव भगवान को छोड़ जो भोग में मन लगता है, सो यह बड़े दुर्भाग्य की बात है , मजे की बात तो यह है कि जगत में जिन लोगों के पास जगत की कुछ वस्तुएँ है, वे अपने को भाग्यवान मानते है और मूर्खतावश और लोग भी उन्हें ‘भाग्यवान’ कहते है ,किन्तु एक फ़क़ीर, जिसके पास जगत की कोई वस्तु नहीं है और जिनकी उसे कामना भी नहीं है तथा जो अपनी स्थिती में भगवान का स्मरण करते हुए सर्वथा निश्चिन्त और मस्त है, उसे लोग गरीब या अभागा कहते है और कह देते है ‘बेचारे को सुख कहाँ ?’ पर जो पदार्थ हमे भगवान से दूर कर दे और जो नरकानल में दग्ध करने में सहायक हो, उस पदार्थजनित भाग्यशीलता के लिए क्या कहा जाये ?

  श्रीमद्भागवत पुराण में धुंधकारी की कथा यदि आपने सुना हो तो हम अभागे धुंधली की सन्तान धुंधकारी के पदानुचर जीवन पर्यन्त उन्ही पंच वेश्याओं (काम, क्रोध, लोभ, मद और मोह) के साथ के साथ रास रचाते हैं जो जीवन की अवसान बेला में उनको ही मुखाग्नि देती हैं। परन्तु हम तो श्री कृष्णोपासक हैं, हमारी जननी तो देवकी, यशोदा, सीता आदि दिव्य नारियां हैं, इसलिए हम क्यों उन पंच वेश्याओं के साथ रास रचाएं ?

 धुंधुकारी कौन है हर समय द्रव्य सुख, और काम सुख का चिन्तन करे, धर्म को नही बल्कि काम सुख एवं द्रव्य सुख ही प्रधान है ऐसा माने वही धुँधुकारी है। बड़ा होने पर धुँधुकारी पाँच वेश्याएँ लाया, ऐव कह सकते हैं, अर्थात् शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध ये पाँच विषय ही पाँच बेश्याएँ है जो धुँधुकारी अर्थात् जीव को बाँधती है। धुँधुकारी के लिए कहा गया है —

 "शव हस्तेषु भोजनम्"

 अर्थात् के हाथ से भोजन करता था। जो हाथ परोपकार नही करते, श्रीकृष्ण की सेवा नही करते, वे हाथ शव के ही हाथ हैं। धुँधुकारी स्नानादि क्रिया से हीन था। धुँधुकारी कामी था अतः स्नान तो करता ही होगा किन्तु स्नान के बाद सन्ध्या सेवा न करे, सत्कर्म न करे तो वह स्नान ही व्यर्थ है वह पशु स्नान है अतः कहा गया वह स्नान ही नही करता था ।

 सत्संग से आत्मशक्ति जाग्रत होती है। सन्त महात्मा द्वारा दिया गया विवेक रुपी फल बुद्धि को पसन्द नही है।

  धुँधली (बुद्धि) छोटी बहन है। मन बुद्धि की सलाह लेता है तो दुःखी होता है। मन कई बार आत्मा को धोखा देता है।

  आत्मदेव की आत्मा बड़ी भोली है उसे मन बुद्धि का छल समझ मे नही आता । अतः फल गाय को खिलाया। गो का अर्थ गाय, इन्द्रिय, भक्ति आदि है।

  मानव काया ही तुंगभद्रा है। भद्रा का अर्थ है कल्याण करने वाली, और तुंग का अर्थ है अधिक। अत्यधिक कल्याण करने वाली नदी ही तुंगभद्रा नदी है और वही मानव शरीर है। अपनी आत्मा को स्वयं देव बनाये वही आत्मदेव है। आत्मदेव ही जीवात्मा है। हम सब आत्मदेव है। नर ही नारायण बनता है। मानव देह मे रहा हुआ जीव देव बन सकता है, और दूसरों को भी देव बना सकता है। पशु अपने शरीर से अपना कल्याण नहीं कर सकते । किन्तु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी होने के कारण अपने शरीर से अपना तथा दूसरो का कल्याण कर सकता है।

  गुस्सा एवं कुतर्क करने वाली बुद्धि ही धुंधुली है। द्विधा बुद्धि, द्विधा बृत्ति ही धुंधुली है। यह द्विधा बुद्धि जब तक होती है तब तक आत्मशक्ति जाग्रत नहीं होती ।

  बुद्धि के साथ आत्मा का विवाह सम्बन्ध तो हुआ किन्तु जब तक उसे कोई महात्मा न मिले, सत्संग न हो तब तक विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता है। विवेक ही आत्मा का पुत्र है।

 "बिनु सत्संग विवेक न होई"

  जिसके घर मे विवेक रुपी पुत्र का जन्म नही होता वह संसार रुपी नदी में डूब जाता है। स्वयं को देव बनाने और दूसरों को देव बनाने की सामर्थ्य आत्मा में है किन्तु आत्मशक्ति जाग्रत तभी होती है जब सत्संग होता है। 

  हनुमान जी समर्थ थे किन्तु जब जामवन्त ने उनके स्वरुप का ज्ञान कराया तभी उन्हे अपने स्वरुप का आत्मशक्ति का ज्ञान हुआ।" 

"का चुपि साधि रहा हनुमाना"

  उदाहरणार्थ दो भाई नर्मदा किनारे नहाने के लिए गये। बड़ा भाई नहाकर निकल गया। छोटा भाई नहाने के लिए 2-4 कदम आगे चला गया। इतने में मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। पानी में मगरमच्छ का जोर ज्यादा होता है। वह छोटे भाई को घसीटने लगा।। यह देखकर बड़ा भाई पानी में गया एवं छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे किनारे की ओर खींचने लगा। अब छोटा भाई किधर जायेगा? मगरमच्छ की ओर जायेगा कि बड़े भाई की ओर? 

  जिधर वह स्वयं जोर लगायेगा उधर की तरफ उसे सहयोग मिलेगा। ऐसे ही बड़ा भाई है परा प्रकृति एवं मगरमच्छ है अपरा प्रकृति। जीव है बीच में। वह कभी सत्संग की तरफ, योग की तरफ खिंचता है और कभी भोग उसे अपनी ओर खींचते हैं। अब जीव स्वयं जिस ओर पुरुषार्थ करता है, वहीं से उसे सहयोग मिलता है।

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