वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा, भागवत पुराण, षष्ठ स्कंध, अध्याय 11-12

Sooraj Krishna Shastri
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यह चित्र भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध, अध्याय 11-12 में वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा को दर्शाता है। इसमें राजा चित्रकेतु की ध्यानस्थ मुद्रा और उनके वृत्रासुर बनने की यात्रा को प्रभावशाली और पारंपरिक भारतीय शैली में प्रस्तुत किया गया है। दृश्य में स्वर्गीय देवता, दिव्य प्रकाश, और अद्वितीय युद्धभूमि के साथ आध्यात्मिक और भावनात्मक दृश्य उभरते हैं।

यह चित्र भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध, अध्याय 11-12 में वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा को दर्शाता है। इसमें राजा चित्रकेतु की ध्यानस्थ मुद्रा और उनके वृत्रासुर बनने की यात्रा को प्रभावशाली और पारंपरिक भारतीय शैली में प्रस्तुत किया गया है। दृश्य में स्वर्गीय देवता, दिव्य प्रकाश, और अद्वितीय युद्धभूमि के साथ आध्यात्मिक और भावनात्मक दृश्य उभरते हैं।



 वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा भागवत पुराण के षष्ठ स्कंध, अध्याय 11-12 में वर्णित है। वृत्रासुर का पूर्व जन्म एक पवित्र भक्त चित्तकेतु के रूप में था। यह कथा यह सिखाती है कि भक्ति में दृढ़ता और भगवान के प्रति समर्पण से किसी भी प्रकार की कठिनाई से ऊपर उठकर भगवान का धाम प्राप्त किया जा सकता है।

चित्तकेतु का जीवन

चित्तकेतु सुरसेन राज्य के राजा थे। उनका राज्य धन, वैभव और साधनों से समृद्ध था, लेकिन उन्हें संतान न होने का दुःख था। उनकी कई रानियाँ थीं, लेकिन कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई थी।

अंगिरा ऋषि का आगमन और वरदान

चित्तकेतु ने पुत्र प्राप्ति के लिए कई यज्ञ और तपस्या की। उनकी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न होकर अंगिरा ऋषि ने उन्हें दर्शन दिया। ऋषि ने उन्हें एक यज्ञ कराकर प्रसन्न किया और वरदान दिया कि उन्हें पुत्र होगा।

श्लोक:

ततोऽङ्गिरा महाभागः कृतयज्ञविधिर्नृप।

ददौ पयो नृपायाहुर्वृद्धयेऽल्पस्य भागिनाम्।।

(भागवत पुराण 6.14.12)

भावार्थ:

अंगिरा ऋषि ने यज्ञ के माध्यम से चित्तकेतु को पुत्र का वरदान दिया।

हर्ष और शोक का आगमन

  • चित्तकेतु की रानी कृता से एक पुत्र का जन्म हुआ। राजा और रानी हर्षित हुए, लेकिन अन्य रानियाँ ईर्ष्या के कारण षड्यंत्र करने लगीं। उन्होंने उस बालक को विष देकर मार दिया।
  • राजा और रानी अपने पुत्र की मृत्यु से अत्यंत दुःखी हो गए।

नारद और अंगिरा ऋषि का उपदेश

जब राजा शोक में डूबे थे, तब नारद मुनि और अंगिरा ऋषि ने उन्हें समझाया। नारद ने उन्हें आत्मा का ज्ञान दिया और बताया कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा शाश्वत है।

श्लोक:

यथा धूमेन गूढेन दह्यते व्रीहिमण्डलम्।

तद्वद्भिर्यज्ञसंतप्तः कर्मबन्धैर्विपर्ययः।।

(भागवत पुराण 6.16.22)

भावार्थ:

नारद मुनि ने समझाया कि संसार में जो कुछ भी होता है, वह कर्मों के अनुसार होता है। शोक करना व्यर्थ है।

भगवद्भक्ति का मार्ग

नारद मुनि ने चित्तकेतु को भगवान विष्णु के भजन और ध्यान का मार्ग दिखाया। उन्होंने राजा को एक दिव्य मंत्र दिया और भक्ति में लीन होने का उपदेश दिया।

श्लोक:

तं स्मरन्ति जगत्यत्र नारायणमनन्तध्रुक्।

मोक्षाय भजनं चैतत्सर्वपापहरं स्मृतम्।।

(भागवत पुराण 6.16.37)

भावार्थ:

नारद मुनि ने कहा, "भगवान नारायण का भजन ही मोक्ष का मार्ग है।"

चित्तकेतु का वैराग्य और सिद्धि

  • चित्तकेतु ने नारद मुनि के उपदेशों का पालन किया और भगवान विष्णु के दिव्य स्वरूप का ध्यान किया। कुछ ही समय में वे भगवान शेषनाग के दर्शन करने में सफल हुए।
  • भगवान शेषनाग ने चित्तकेतु को दिव्य ज्ञान और भक्ति का आशीर्वाद दिया। उन्होंने चित्तकेतु को चेतावनी दी कि भक्ति में दृढ़ता बनाए रखना महत्वपूर्ण है।

पार्वती और शिव के प्रति टिप्पणी

चित्तकेतु को दिव्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद, वे आकाश मार्ग से विचरण करने लगे। एक दिन उन्होंने देखा कि भगवान शिव, माता पार्वती के साथ सभा में बैठे हैं। चित्तकेतु ने मजाकिया स्वर में कहा कि भगवान शिव आदर्श गुरु होते हुए भी सभा में माता पार्वती को गोद में बैठाए हुए हैं।

पार्वती का शाप

माता पार्वती ने चित्तकेतु की टिप्पणी को अपना अपमान समझा और उन्हें शाप दिया कि वे असुर बनकर जन्म लें।

श्लोक:

पार्वत्युवाच-

योऽसावस्मिन्सहस्राक्षे स्वधर्मं नानुतिष्ठति।

स शप्तः पतत्वस्माद्देवयोनिर्महासुरः।।

(भागवत पुराण 6.17.18)

भावार्थ:

माता पार्वती ने चित्तकेतु को शाप दिया कि वे असुर योनि में जन्म लेंगे।

वृत्रासुर का जन्म

पार्वती के शाप के कारण चित्तकेतु ने असुर योनि में जन्म लिया और वे वृत्रासुर बने। हालांकि, उन्होंने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। वृत्रासुर का हृदय भक्तिपूर्ण था, और वे हर स्थिति में भगवान को स्मरण करते रहे।

वृत्रासुर की भक्ति

वृत्रासुर ने देवताओं से युद्ध करते समय भी भगवान की भक्ति का परिचय दिया। उन्होंने इंद्र से कहा कि वे उन्हें मारें, ताकि उनकी आत्मा भगवान के चरणों में समर्पित हो सके।

श्लोक:

नाहं विप्रं न च नृपतिं न वैश्यम्।

न शूद्रं न च कृतनं न चाश्रमं।

ब्रह्मा केवलं परं पुरुषं।

वृष्णि नित्यं हरिं स्मरामि।।

(भागवत पुराण 6.17.28)

भावार्थ:

वृत्रासुर ने कहा, "मैं न ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र। मैं केवल भगवान नारायण का दास हूँ।"

वृत्रासुर का मोक्ष

जब इंद्र ने वृत्रासुर का वध किया, तब उनकी आत्मा भगवान में लीन हो गई। वृत्रासुर ने भक्ति और समर्पण के कारण मोक्ष प्राप्त किया।

कथा का संदेश

1. भक्ति का महत्व: चित्तकेतु और वृत्रासुर ने हर परिस्थिति में भक्ति का मार्ग अपनाया।

2. भगवान का नाम: भगवान का स्मरण और उनकी शरण ही मोक्ष का मार्ग है।

3. दृढ़ता और समर्पण: पार्वती के शाप के बाद भी वृत्रासुर ने भक्ति नहीं छोड़ी।

4. पाप और पुण्य से परे भक्ति: असुर योनि में जन्म लेने के बावजूद वृत्रासुर की भक्ति ने उन्हें भगवान का धाम दिलाया।

निष्कर्ष

वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा यह सिखाती है कि जीवन में चाहे कैसी भी स्थिति हो, भगवान के प्रति अटूट विश्वास और भक्ति से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। यह कथा भक्ति के सर्वोच्च महत्व को उजागर करती है।

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