भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र राजा परीक्षित को धर्म (एक पैर वाले बैल) और पृथ्वी (एक दुःखी स्त्री के रूप में) के संवाद के साथ दिखाता है। 




भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 नीचे भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों का हिन्दी अनुवाद क्रमवार प्रस्तुत किया गया है:


श्लोक 1

सूत उवाच
ततः परीक्षिद्द्विजवर्यशिक्षया
महीं महाभागवतः शशास ह।
यथा हि सूत्यामभिजातकोविदाः
समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: तत्पश्चात, परीक्षित ने ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में, एक महान भागवत के रूप में पृथ्वी पर उसी प्रकार शासन किया, जैसा कि उनके जन्म के समय विद्वान ब्राह्मणों ने उनके गुणों का वर्णन किया था।


श्लोक 2

स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम्।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत्सुतान्॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने उत्तरा के पुत्र (परीक्षित) ने इरावती से विवाह किया और उनसे जनमेजय आदि चार पुत्रों को जन्म दिया।


श्लोक 3

आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गङ्गायां भूरिदक्षिणान्।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः॥

हिन्दी अनुवाद:
परीक्षित ने गंगा के तट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किए, जिनमें उन्होंने भारी दक्षिणा दी। इन यज्ञों में गुरु शारद्वत को प्रमुख बनाया और देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए।


श्लोक 4

निजग्राहौजसा वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित्।
नृपलिङ्गधरं शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा॥

हिन्दी अनुवाद:
अपने दिग्विजय अभियान में, वीर परीक्षित ने एक बार कलियुग का सामना किया, जो राजा के वेश में था और गाय-बैल को अपने पैरों से मार रहा था।


श्लोक 5

शौनक उवाच
कस्य हेतोर्निजग्राह कलिं दिग्विजये नृपः।
नृदेवचिह्नधृक्शूद्र कोऽसौ गां यः पदाहनत्॥

हिन्दी अनुवाद:
शौनक ऋषि ने पूछा: राजा परीक्षित ने किस कारण दिग्विजय के दौरान कलियुग को पकड़ा? वह कौन शूद्र था, जिसने नृप का प्रतीक धारण किया और गाय को पैरों से मारा?


श्लोक 6

तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम्।
अथवास्य पदाम्भोज मकरन्दलिहां सताम्।
किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्ययः॥

हिन्दी अनुवाद:
हे महाभाग! यदि यह कथा श्रीकृष्ण से संबंधित हो, तो कृपया हमें बताएं। अन्यथा, मिथ्या वार्ताओं में जीवन का अपव्यय क्यों करें?


श्लोक 7

क्षुद्रायुषां नृणामङ्ग मर्त्यानामृतमिच्छताम्।
इहोपहूतो भगवान्मृत्युः शामित्रकर्मणि॥

हिन्दी अनुवाद:
हे अंग! छोटे जीवन वाले मर्त्य प्राणियों के लिए, जो अमृत की इच्छा करते हैं, भगवान मृत्यु को हराने वाले मित्र के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 8

न कश्चिन्म्रियते तावद्यावदास्त इहान्तकः।
एतदर्थं हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः।
अहो नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः॥

हिन्दी अनुवाद:
जब तक मृत्यु का समय नहीं आता, तब तक कोई नहीं मरता। यही कारण है कि भगवान को परम ऋषियों ने बुलाया। मनुष्य लोक में हरि की लीलाओं का अमृत वचनों द्वारा पान करना चाहिए।


श्लोक 9

मन्दस्य मन्दप्रज्ञस्य वयो मन्दायुषश्च वै।
निद्रया ह्रियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
आज के युग में, मंद बुद्धि और अल्पायु के मनुष्य अपना रात्रिकाल नींद में और दिन का समय व्यर्थ कर्मों में नष्ट कर देते हैं।


श्लोक 10

सूत उवाच
यदा परीक्षित्कुरुजाङ्गलेऽवस –
त्कलिं प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते।
निशम्य वार्तामनतिप्रियां ततः
शरासनं संयुगशौण्डिराददे॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: जब परीक्षित ने कुरुजांगल प्रदेश में अपने राज्य में कलियुग के प्रवेश की अप्रिय वार्ता सुनी, तो युद्धकला में निपुण राजा ने अपना धनुष उठा लिया।


श्लोक 11

स्वलङ्कृतं श्यामतुरङ्गयोजितं
रथं मृगेन्द्रध्वजमाश्रितः पुरात्।
वृतो रथाश्वद्विपपत्तियुक्तया
स्वसेनया दिग्विजयाय निर्गतः॥

हिन्दी अनुवाद:
परीक्षित ने सुंदर सुसज्जित रथ, जिसमें काले घोड़े जुते हुए थे और जिस पर सिंह का ध्वज लहरा रहा था, उस पर सवार होकर अपनी सेना के साथ दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया।


श्लोक 12

भद्राश्वं केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरून्।
किम्पुरुषादीनि वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम्॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तर कुरु और किम्पुरुष जैसे प्रदेशों को जीतकर वहां से कर वसूला।


श्लोक 13

नगरांश्च वनांश्चैव नदीश्च विमलोदकाः।
पुरुषान् देवकल्पांश्च नारीश्च प्रियदर्शनाः॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने नगर, वन, पवित्र जल वाली नदियों और देवताओं के समान पुरुषों और सुंदर स्त्रियों को देखा।


श्लोक 14

अदृष्टपूर्वान् सुभगान् स ददर्श धनञ्जयः।
सदनानि च शुभ्राणि नारीश्चाप्सरसां निभाः॥

हिन्दी अनुवाद:
परीक्षित ने पहले कभी न देखे गए अत्यंत मनोहर स्थानों, शुभ्र भवनों और अप्सराओं के समान सुंदर स्त्रियों को देखा।


श्लोक 15

तत्र तत्रोपशृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम्।
प्रगीयमाणं च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जहाँ-जहाँ वे गए, उन्होंने अपने पूर्वजों के यश को सुना, जिसमें श्रीकृष्ण के महात्म्य का भी वर्णन होता था।


श्लोक 16

आत्मानं च परित्रातमश्वत्थाम्नोऽस्त्रतेजसः।
स्नेहं च वृष्णिपार्थानां तेषां भक्तिं च केशवे॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने सुना कि कैसे श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी और वृष्णि तथा पाण्डवों का भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति थी।


श्लोक 17

तेभ्यः परमसन्तुष्टः प्रीत्युज्जृम्भितलोचनः।
महाधनानि वासांसि ददौ हारान्महामनाः॥

हिन्दी अनुवाद:
परीक्षित, जो उन बातों से अत्यधिक संतुष्ट हुए और प्रेम से उनके नेत्र भर आए, ने महा धन, वस्त्र और आभूषण दान किए।


श्लोक 18

सारथ्यपारषदसेवनसख्यदौत्य
वीरासनानुगमनस्तवनप्रणामान्।
स्निग्धेषु पाण्डुषु जगत्प्रणतिं च विष्णोर्
भक्तिं करोति नृपतिश्चरणारविन्दे॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पाण्डवों के श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम, उनके सारथ्य, सखा, दूत और सेवक के रूप में किए गए कार्य, उनकी स्तुति और प्रणाम को सुनकर भगवान विष्णु के चरण-कमलों में भक्ति स्थापित की।


श्लोक 19

तस्यैवं वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम्।
नातिदूरे किलाश्चर्यं यदासीत्तन्निबोध मे॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित इस प्रकार अपने पूर्वजों के आदर्शों का पालन कर रहे थे। उस समय उनके राज्य में एक अद्भुत घटना घटी, जिसे मैं अब आपको बताने जा रहा हूँ।


श्लोक 20

धर्मः पदैकेन चरन् विच्छायामुपलभ्य गाम्।
पृच्छति स्माश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम्॥

हिन्दी अनुवाद:
धर्म (बैल के रूप में) केवल एक पैर पर खड़ा था और उसने पृथ्वी को देखा, जो आँसुओं से भीगी हुई थी और बिना बछड़े के माँ की तरह दुःखी लग रही थी।


श्लोक 21

धर्म उवाच
कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते
विच्छायासि म्लायतेषन्मुखेन।
आलक्षये भवतीमन्तराधिं
दूरे बन्धुं शोचसि कञ्चनाम्ब॥

हिन्दी अनुवाद:
धर्म ने पूछा: हे सुंदरी पृथ्वी! क्या तुम ठीक हो? तुम्हारा मुख उदास और मलिन क्यों है? क्या तुम भीतर से दुःखी हो? क्या तुम अपने किसी प्रियजन के वियोग में शोक कर रही हो?


श्लोक 22

पादैर्न्यूनं शोचसि मैकपाद
मात्मानं वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम्।
आहो सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा उत स्विन्मघवत्यवर्षति॥

हिन्दी अनुवाद:
क्या तुम इस बात पर शोक कर रही हो कि मैं केवल एक पाँव पर खड़ा हूँ? या तुम अपने ऊपर शूद्रों द्वारा शासन होने पर दुःखी हो? या फिर तुम यह देखकर व्यथित हो कि देवताओं के यज्ञ भाग छीने जा रहे हैं या वर्षा देवता (इंद्र) वर्षा नहीं कर रहे हैं?


श्लोक 23

अरक्ष्यमाणाः स्त्रिय उर्वि बालान्
शोचस्यथो पुरुषादैरिवार्तान्।
वाचं देवीं ब्रह्मकुले कुकर्म
ण्यब्रह्मण्ये राजकुले कुलाग्र्यान्॥

हिन्दी अनुवाद:
क्या तुम इस पर दुःखी हो कि स्त्रियाँ और बालक पुरुषों के द्वारा सताए जा रहे हैं? या इस पर कि ब्राह्मणों और राजाओं का आचरण धर्म के अनुरूप नहीं है?


श्लोक 24

किं क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान्
राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि।
इतस्ततो वाशनपानवासः
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम्॥

हिन्दी अनुवाद:
क्या तुम क्षत्रिय वंशजों के कलियुग के प्रभाव में आ जाने से दुःखी हो? या इस पर कि लोग अब केवल भोजन, वस्त्र, स्नान, और भोग में ही लिप्त हो गए हैं?


श्लोक 25

यद्वाम्ब ते भूरिभरावतार
कृतावतारस्य हरेर्धरित्रि।
अन्तर्हितस्य स्मरती विसृष्टा
कर्माणि निर्वाणविलम्बितानि॥

हिन्दी अनुवाद:
हे धरती! क्या तुम इस बात पर दुःखी हो कि भगवान हरि, जिन्होंने तुम्हारे भार को उतारा था, अब अदृश्य हो गए हैं, और उनकी अनुपस्थिति में धर्म के कार्य भी बाधित हो रहे हैं?


श्लोक 26

इदं ममाचक्ष्व तवाधिमूलं
वसुन्धरे येन विकर्शितासि।
कालेन वा ते बलिनां बलीयसा
सुरार्चितं किं हृतमम्ब सौभगम्॥

हिन्दी अनुवाद:
हे वसुंधरा! कृपया मुझे अपने दुःख का कारण बताओ। क्या यह काल के बल से हुआ है? क्या तुम्हारा वह सौभाग्य, जिसे देवताओं ने भी पूजा था, अब समाप्त हो गया है?


श्लोक 27

धरण्युवाच
भवान् हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि।
चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः॥

हिन्दी अनुवाद:
पृथ्वी ने कहा: हे धर्म! आप सब कुछ जानते हैं और मुझसे पूछ रहे हैं। आप चारों पाँवों के आधार पर लोकों के सुख का कारण हैं।


श्लोक 28

सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम्।
शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम्॥

हिन्दी अनुवाद:
सत्य, शौच (पवित्रता), दया, क्षमा, त्याग, संतोष, सरलता, आत्मसंयम, इंद्रिय-निग्रह, तप, समानता, सहनशीलता, वैराग्य और वेदों का ज्ञान—ये धर्म के आधार हैं।


श्लोक 29

ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः।
स्वातन्त्र्यं कौशलं कान्तिर्धैर्यं मार्दवमेव च॥

हिन्दी अनुवाद:
ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शौर्य, तेज, बल, स्मृति, स्वातंत्र्य, कौशल, कान्ति, धैर्य और विनम्रता भी धर्म के गुण हैं।


श्लोक 30

प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः।
गाम्भीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहङ्कृतिः॥

हिन्दी अनुवाद:
वाक्पटुता, विनम्रता, शील, सहनशीलता, ओज, बल, ऐश्वर्य, गाम्भीर्य, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, सम्मान और अहंकार-रहितता भी धर्म के आवश्यक गुण हैं।


श्लोक 31

एते चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः।
प्रार्थ्या महत्त्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित्॥

हिन्दी अनुवाद:
हे भगवन्! ये और अन्य महान गुण, जहाँ भी धर्म और भगवत्कृपा विद्यमान है, वहाँ सदा उपस्थित रहते हैं और इन्हें महानता की इच्छा रखने वाले लोग हमेशा चाहते हैं।


श्लोक 32

तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम्।
शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम्॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीहरि, जो इन गुणों के धाम थे, के प्रस्थान के कारण मैं दुखी हूँ। अब कलियुग के प्रभाव से यह संसार पाप से ग्रसित हो गया है।


श्लोक 33

आत्मानं चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम्।
देवान् पितॄनृषीन् साधून् सर्वान् वर्णांस्तथाश्रमान्॥

हिन्दी अनुवाद:
मैं स्वयं को, आपको (धर्म), देवताओं, पितरों, ऋषियों, साधुओं, सभी वर्णों और आश्रमों को भी शोकयुक्त देख रही हूँ।


श्लोक 34

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपाङ्गमोक्ष
कामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय
यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता॥

हिन्दी अनुवाद:
ब्रह्मादि देवता, जो भगवान के कृपा-कटाक्ष की कामना से तपस्या करते थे, अब वही भगवती लक्ष्मी भगवान के चरण-सौंदर्य की भक्त बनकर उनका प्रेम करती हैं।


श्लोक 35

तस्याहमब्जकुलिशाङ्कुशकेतुकेतैः
श्रीमत्पदैर्भगवतः समलङ्कृताङ्गी।
त्रीनत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं
लोकान् स मां व्यसृजदुत्स्मयतीं तदन्ते॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान के कमल, वज्र, अंकुश और ध्वजा से सुशोभित चरणों से अलंकृत होने के बाद, मुझे तीनों लोकों में शोभा मिली थी। लेकिन अब मैं उस वैभव को खो चुकी हूँ।


श्लोक 36

यो वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञाम्
अक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः।
त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण
सम्पादयन् यदुषु रम्यमबिभ्रदङ्गम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जिस भगवान ने असुर राजाओं की सौ अक्षौहिणी सेनाओं का विनाश किया और अपने पौरुष से मुझे (पृथ्वी) को सुरक्षित किया, वही अब चले गए हैं।


श्लोक 37

का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य
प्रेमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो मम यदङ्घ्रिविटङ्कितायाः॥

हिन्दी अनुवाद:
कौन ऐसा है, जो पुरुषोत्तम भगवान के प्रेम भरे दृष्टि-संकेत, सुंदर हंसी और मधुर वार्तालाप के बिना रह सकता है? उनके चरणों के स्पर्श से मेरे रोम-रोम पुलकित हो जाते थे।


श्लोक 38

तयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा।
परीक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जब धर्म और पृथ्वी इस प्रकार वार्ता कर रहे थे, उसी समय राजर्षि परीक्षित प्राची दिशा में सरस्वती नदी के तट पर आ पहुँचे।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे षोडशोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध में "पृथ्वी और धर्म का संवाद" नामक सोलहवां अध्याय समाप्त हुआ।


यदि आपको इस भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के किसी भाग का और विस्तृत अनुवाद चाहिए तो कृपया कमेंट में बताएं। उपर भागवत प्रथम स्कन्ध, षोडश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों का हिन्दी अनुवाद क्रमवार प्रस्तुत किया गया।

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