भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह रहा पांडवों के स्वर्गारोहण का भव्य चित्रण। यदि कोई और सहायता चाहिए तो बताएं।




भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 नीचे भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के प्रत्येक श्लोक का हिन्दी अनुवाद क्रमवार प्रस्तुत किया गया है:


श्लोक 1

सूत उवाच
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्र राज्ञाऽऽविकल्पितः।
नानाशंकास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्षितः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: भगवान श्रीकृष्ण के सखा अर्जुन, अपने भाई राजा युधिष्ठिर के सामने अनिश्चित, संशययुक्त और श्रीकृष्ण के वियोग से अत्यंत व्यथित हो गए।


श्लोक 2

शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्रोत्प्रतिभाषितुम्॥

हिन्दी अनुवाद:
वियोग के शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-रूपी कमल मुरझा गया। वे अत्यंत अशक्त हो गए और भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए कुछ बोलने में असमर्थ हो गए।


श्लोक 3

कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः॥

हिन्दी अनुवाद:
अर्जुन ने कठिनाई से अपने दुःख को नियंत्रित किया, अपने आँसुओं को पोंछा और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने गहन प्रेम और उत्कंठा से व्याकुल होकर बोले।


श्लोक 4

सख्य मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन्।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा॥

हिन्दी अनुवाद:
अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ अपनी मित्रता, स्नेह और उनके सारथी बनने जैसी बातों को स्मरण करते हुए, आँसुओं से भरी आवाज में अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से कहा।


श्लोक 5

अर्जुन उवाच
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरुपिणा।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत्॥

हिन्दी अनुवाद:
अर्जुन बोले: हे महाराज! मैं भगवान श्रीकृष्ण के बिना, जो मेरे बंधु रूप में थे, ठगा हुआ महसूस कर रहा हूँ। उनके बिना मेरा वह तेज, जो देवताओं को चकित कर देता था, मुझसे छिन गया है।


श्लोक 6

यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण के एक क्षण के वियोग से यह संसार अप्रिय और निरर्थक प्रतीत होता है, जैसे प्राणों के बिना शरीर मृत कहलाता है।


श्लोक 7

यत्संश्रयाद् द्रुपदगेहमुपागतानां
राज्ञा स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम्।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः
सज्जीकृतेन धनुष्याधिगता च कृष्णा॥

हिन्दी अनुवाद:
उनके (श्रीकृष्ण) संरक्षण के कारण ही मैं द्रुपद के घर गया और स्वयंवर सभा में अन्य राजाओं को परास्त किया। मैंने मत्स्य को भेदकर द्रौपदी को वरण किया।


श्लोक 8

यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया
दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते॥

हिन्दी अनुवाद:
उनकी उपस्थिति में ही मैंने खाण्डव वन अग्निदेव को समर्पित किया और इंद्र व अन्य देवताओं को परास्त किया। मयदानव द्वारा बनाई अद्भुत सभा प्राप्त की, और तुम्हारे राजसूय यज्ञ के लिए राजाओं से कर वसूला।


श्लोक 9

यत्तेजसा नृपशिरोऽङ्घ्रिमहन्मखार्थे
आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा
यन्मोचितास्तदनयन् बलिमध्वरे ते॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण के तेज से ही, तुम्हारा यह भाई (भीम), जो गजों के समान बलशाली है, ने राजाओं के सिर झुकाए। उन्होंने राक्षसराज को पराजित किया और यज्ञ के लिए उन राजाओं से कर प्राप्त किया।


श्लोक 10

पत्‍न्यास्तवधिमखक्लृप्तमहाभिषेक
श्‍लाघिष्ठन्चारुकाबरं कितवैः सभायाम्।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या
यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः॥

हिन्दी अनुवाद:
यज्ञ के दौरान तुम्हारी पत्नी द्रौपदी के अपमान के समय, दुष्टों ने उसकी साड़ी खींची। लेकिन, श्रीकृष्ण ने उस कठिन समय में उन्हें बचाया।


श्लोक 11

यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद्
दुर्वाससोऽरिविहतादयुताग्रभुग यः।
शाकान्नशिशःटमुपयुज्य यतास्त्रिलोकीं
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमंग्नसंघः॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण ने वनवास के समय दुर्वासा ऋषि और उनके दस हज़ार शिष्यों से हमें बचाया। उन्होंने हमारी थाली के शेष अंश से समस्त लोकों को संतुष्ट किया।


श्लोक 12

यत्तेजसाथ भगवान युधि शुलपाणि
र्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण
प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम्॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण के तेज से, भगवान शूलपाणि (शिव) भी युद्ध में विस्मित हो गए और मुझे अपने अस्त्र का आशीर्वाद दिया। उसी शरीर से, मैं इंद्र के महल में गया और वहाँ सम्मानित हुआ।


श्लोक 13

तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः।
सेन्द्रा श्रिता यदनुभावितमाजमीढ
तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्नः॥

हिन्दी अनुवाद:
देवता और इंद्र ने मेरे गाण्डीव धनुष और मेरे पराक्रम की शरण ली। आज मैं उसी पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के वियोग में सब कुछ खो चुका हूँ।


श्लोक 14

यद्वान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार
मेको रथेन ततरेऽहमतार्यसत्त्वम्।
प्रत्याहृतं बहु धनं च मयो परेषां
तेजास्पदं मणीमयं च हृतं शिरोभ्यः॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण के साथ, मैंने अकेले रथ पर सवार होकर कुरुक्षेत्र के महान युद्ध में विजय पाई। मैंने शत्रुओं का धन लौटाया और उनके मुकुट से रत्न भी छीने।


श्लोक 15

यो भीष्मकर्णगुरुशल्यमूष्वदभ्र
रजन्यवर्यरथमण्डलमन्डितासु।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत्॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण, जो मेरे रथ के सारथी बने, भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य और अन्य महारथियों की सेनाओं के बीच आगे-आगे चल रहे थे। उनकी दृष्टि से मेरे मन और प्राण में शक्ति आई।


श्लोक 16

यद्दोष्षु मा प्राणीहितं गुरुभिष्मकर्ण
नप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबाह्निकाद्यैः।
अस्त्राण्यमोघमाहिमानि निरुपिताने
नो पस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि॥

हिन्दी अनुवाद:
युद्ध में श्रीकृष्ण की उपस्थिति के कारण ही भीष्म, कर्ण, द्रोण, जयद्रथ, और अन्य महारथियों के अमोघ अस्त्र भी मुझे स्पर्श नहीं कर सके।


श्लोक 17

सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मदं ईश्वरो मे
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं
न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचिस्ताः॥

हिन्दी अनुवाद:
जब श्रीकृष्ण ने सारथी के रूप में मेरे रथ को चलाया, तब मेरे शत्रु, जो मुझे थका हुआ देख रहे थे, भी उनके प्रभाव से मुझ पर हमला करने का साहस नहीं कर सके।


श्लोक 18

नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि
हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति।
संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि
स्मर्तूर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण की वह हंसी, उनकी मधुर बातें और "हे पार्थ! हे अर्जुन! हे कुरुनंदन!" कहकर मुझे पुकारना—ये सब मेरे हृदय को छूने वाली स्मृतियाँ हैं, जो मुझे बार-बार व्याकुल कर देती हैं।


श्लोक 19

शय्यासनाटनविकथनभोजनादि
ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं
सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे॥

हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण ने मेरे साथ शय्या, आसन, चलना, बातें करना और भोजन आदि में मित्रवत् व्यवहार किया। उन्होंने मेरे जैसे अयोग्य मित्र के लिए पिता की तरह सभी दोष सहन किए।


श्लोक 20

सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयने शून्य।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन्
गोपैरसाद्भिबलेव विनिर्जितोऽस्मि॥

हिन्दी अनुवाद:
हे महाराज! मैं अब उस प्रिय सखा, सुहृद पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के बिना अकेला रह गया हूँ। जैसे बलहीन गायें चोरों से पराजित हो जाती हैं, वैसे ही मैं निराश हो गया हूँ।


श्लोक 21

तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते
सोऽहं रथी नॄपतयो यत आनमन्ति।
सर्व क्षणेन तदभुदसदीशरिक्तं
भस्मन हुतं कुहकाराद्भमोवोत्पमुष्याम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जो धनुष, बाण, रथ और घोड़े मेरे पास थे, और जिनके कारण राजा मेरे सामने झुकते थे, वे सब श्रीकृष्ण के बिना क्षणभर में अर्थहीन हो गए। जैसे राख में आहुति देना व्यर्थ होता है, वैसे ही सब कुछ नष्ट हो गया।


श्लोक 22

राजंस्त्वयाभिषुष्टांना सुहृदां न सुहृत्पुरेः।
विप्रशपविमुढांना निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः॥

हिन्दी अनुवाद:
हे राजन! जिन यदुवंशियों को तुमने प्रेमपूर्वक देखा, वे अब मदिरा के प्रभाव में मूर्ख बन गए हैं और एक-दूसरे को मुष्टियों से मार रहे हैं।


श्लोक 23

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम्।
अजानतामिव्यान्योन्य चतूः पंचावशेषिताः॥

हिन्दी अनुवाद:
मदिरा पीने के कारण उनके चित्त उन्मत्त हो गए और वे एक-दूसरे को पहचानने में असमर्थ हो गए। अंततः उनमें से केवल चार या पाँच ही शेष रह गए।


श्लोक 24

प्रायेणैतद भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम्।
मिथो निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः॥

हिन्दी अनुवाद:
यह सब भगवान ईश्वर की लीला है। जैसे जीव एक-दूसरे को नष्ट करते और उत्पन्न करते हैं, वैसे ही यदुवंशियों का भी विनाश हुआ।


श्लोक 25

जलौकसां जले यद्वन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः।
दुर्बलान्बालिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथः॥

हिन्दी अनुवाद:
जैसे जल के छोटे जीव बड़े जीवों द्वारा खा लिए जाते हैं, और बड़े भी आपस में संघर्ष कर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार चल रहा है।


श्लोक 26

एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान विभुः।
यदुन यदुभिरन्योन्यं भुभारान संजहार ह॥

हिन्दी अनुवाद:
इसी प्रकार, भगवान ने पृथ्वी के भार को उतारने के लिए शक्तिशाली यदुवंशियों का आपस में विनाश करवा दिया।


श्लोक 27

देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च।
हरन्ति स्मरताश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान गोविंद के द्वारा कही गईं वे शिक्षाएँ, जो देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त थीं और हृदय के ताप को शांत करने वाली थीं, उन्हें स्मरण कर मेरा चित्त उनसे बंध जाता है।


श्लोक 28

सूत उवाच
एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम्।
सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: इस प्रकार अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का स्मरण करते हुए, उनके प्रति गहरे सौहार्द से, शुद्ध और शांत चित्त के हो गए।


श्लोक 29

वासुदेवांगघ्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायाधिषणोऽर्जुनः॥

हिन्दी अनुवाद:
अर्जुन का मन, भगवान वासुदेव के चरण-कमलों का ध्यान करते हुए, उनकी भक्ति से शुद्ध हो गया और उनके समस्त पाप और मोह समाप्त हो गए।


श्लोक 30

गीतं भगवता ज्ञानं यत्तत् संग्राममुर्धनि।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद्विभुः॥

हिन्दी अनुवाद:
महान अर्जुन ने कुरुक्षेत्र के संग्राम में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया गीता का वह ज्ञान फिर से स्मरण किया, जो काल, कर्म और अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर देता है।


श्लोक 31

विशोको ब्रह्मसंपत्या संछिन्नद्वैतसंशयः।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसम्भवः॥

हिन्दी अनुवाद:
अर्जुन ने ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से शोक को त्याग दिया। उन्होंने द्वैत के संशय को समाप्त कर प्रकृति के गुणों से परे परम स्थिति को प्राप्त किया।


श्लोक 32

निशम्य भगवन्मार्ग संस्थां यदुकुलस्य च।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभॄतात्मा युधिष्ठिरः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान और यदुवंश के विनाश का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने अपने चित्त को स्थिर कर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त होने का निश्चय किया।


श्लोक 33

पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं
नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम्।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे
निवेशितात्मोपराम संसृतेः॥

हिन्दी अनुवाद:
कुंती ने भी अर्जुन से यदुवंश के विनाश और भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान का समाचार सुनकर, अपने चित्त को भगवान में लगाकर संसार चक्र से मुक्त होने का निश्चय किया।


श्लोक 34

ययाहरद्भुवो भारं तां तनुं विजहावजः।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितूः समम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जिस भगवान ने पृथ्वी के भार को दूर किया, उन्होंने अपनी वह दिव्य काया त्याग दी, जैसे कांटे को दूसरे कांटे से निकालकर उसे भी त्याग दिया जाता है।


श्लोक 35

यथा मत्स्यादिरुपाणि धत्ते जाह्याद यथा नटः।
भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जैसे एक अभिनेता विभिन्न पात्रों को धारण करता और छोड़ता है, वैसे ही भगवान ने पृथ्वी का भार उतारने के बाद अपना शरीर त्याग दिया।


श्लोक 36

यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं
जहौ स्ततन्वा श्रवणीयसत्कथः।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा
मधर्महेतूः कलिरन्ववर्तत॥

हिन्दी अनुवाद:
जब भगवान मुकुंद ने अपनी इस पृथ्वी को अपने दिव्य शरीर से छोड़ा, उसी समय अज्ञानी चित्त वाले लोगों के बीच अधर्म के कारण रूप में कलियुग का प्रारंभ हो गया।


श्लोक 37

युधिष्ठिरस्तत्प्रसर्यणं बुधः
पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि।
विभग्य लोभानृतजिह्नाहिंसना
द्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात्॥

हिन्दी अनुवाद:
बुद्धिमान युधिष्ठिर ने देखा कि अधर्म का चक्र अब उनके नगर, राज्य, घर और स्वयं उनके भीतर तक फैल रहा है। तब उन्होंने इस संसार को त्यागने का निश्चय किया।


श्लोक 38

स्वराट पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिचंद गजाहृये॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने अपने विनम्र और गुणों में समान पौत्र परीक्षित को गंगा के तट पर पृथ्वी का राजा अभिषिक्त किया।


श्लोक 39

मथूरायां तथा वज्रं शुरसेनपतिं ततः।
प्राजापत्यां निरुप्योष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः॥

हिन्दी अनुवाद:
मथुरा में वज्र को शूरसेन राज्य का राजा नियुक्त किया गया। इसके बाद, युधिष्ठिर ने प्रजापत्य यज्ञ का आयोजन किया और अग्निहोत्र का पालन किया।


श्लोक 40

विसृज्य तत्र तत्सर्वं दुकुनलवलयादिकम्।
निर्ममो निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने अपने सभी सांसारिक वस्त्र, आभूषण और बंधनों को त्याग दिया। उन्होंने ममता और अहंकार का परित्याग कर दिया।


श्लोक 41

वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम्।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पंचत्वे ह्याजोहवीत्॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने अपनी वाणी को मन में, मन को प्राण में, और प्राण को परमात्मा में समर्पित कर दिया। अंततः अपने शरीर को पंचतत्व में विलीन कर दिया।


श्लोक 42

त्रेत्वे हुत्वाथ पंचत्वं तच्चेकत्वेऽजुहोन्मुनिः।
सर्वमात्मन्यजुहवीद ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने पंचतत्व को एक में विलीन किया और फिर उस एक को स्वयं ब्रह्म में अर्पित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने स्वयं को अविनाशी ब्रह्म में विलीन कर दिया।


श्लोक 43

चीरवासा निराहारो बद्धवड मुक्तमूर्धजः।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत्॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने केवल वृक्ष की छाल धारण की, भोजन त्याग दिया, बाल खुले छोड़ दिए, और अपने शरीर को पागल, जड़ और पिशाच के समान दिखाया।


श्लोक 44

अनपेक्षमाणो निरगादश्रृण्वन्बधिरो यथा।
उदीचीं प्रविवेशांशं गतपुर्वा महात्मभिः।
हृदि ब्रह्मा परं ध्यायान्नवर्तेत यतो गतः॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने बिना किसी अपेक्षा के उत्तर दिशा में प्रस्थान किया, जैसे एक बहिरा कुछ नहीं सुनता। उनके हृदय में परम ब्रह्म का ध्यान था, और वे कभी वापस नहीं लौटे।


नीचे शेष श्लोकों का क्रमवार हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है:


श्लोक 45

सर्व तमनु निर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्टा स्पृष्टाः प्रजा भुवि॥

हिन्दी अनुवाद:
उनके सभी भाई भी अपने जीवन का अंतिम समय देखकर दृढ़ निश्चय के साथ उनके पीछे चल पड़े। क्योंकि कलियुग का प्रभाव अधर्म के रूप में प्रजा और पृथ्वी पर स्पष्ट दिखने लगा था।


श्लोक 46

ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वाऽऽत्यन्तिकमात्मनः।
मनसा धारयामासुर्वैकुंठचरणाम्बुजम्॥

हिन्दी अनुवाद:
सभी भाइयों ने अपने सारे सांसारिक कार्यों को पूर्ण कर लिया और अपने मन को वैकुंठधाम के भगवान के चरण-कमलों में स्थिर कर दिया।


श्लोक 47

तद्धनोद्रिक्यया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे।
तस्मिन नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम्॥

हिन्दी अनुवाद:
उनकी निष्कपट भक्ति और निर्मल बुद्धि ने उन्हें भगवान नारायण के चरणों की ओर एकचित्त कर दिया, जहाँ उन्होंने परम गंतव्य को प्राप्त किया।


श्लोक 48

अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः।
विहुतकल्मषास्थाने विरजेनात्मनैव हि॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने वह स्थिति प्राप्त की, जो सांसारिक विषयों में आसक्त लोगों के लिए दुर्लभ है। उन्होंने सभी पापों को नष्ट कर अपनी आत्मा को पवित्र किया।


श्लोक 49

विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान्।
कृष्णावेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ॥

हिन्दी अनुवाद:
विदुर ने भी प्रभास क्षेत्र में अपना शरीर त्याग दिया। भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर, उन्होंने अपने पितरों के लोक की यात्रा की।


श्लोक 50

द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम्।
वासुदेवे भगवति ह्योकान्तमतिराप तम्॥

हिन्दी अनुवाद:
द्रौपदी ने अपने पतियों की संसार त्यागने की भावना को समझकर भगवान वासुदेव में अपना मन स्थिर कर लिया और उनके चरण-कमलों में लीन हो गईं।


श्लोक 51

यः श्रद्धयैतद भगवत्प्रियाणां
पाण्डोः सुतानामिती सम्प्रयाणम्।
श्रुणोत्यलं स्वत्ययनं पवित्रं
लब्ध्या हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जो भी व्यक्ति भगवान के प्रिय पाण्डवों के इस परम त्याग को श्रद्धा के साथ सुनता है, वह पवित्र होता है और भगवान श्रीहरि की भक्ति से सिद्धि को प्राप्त करता है।


इति श्रीमद्भगवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे पाण्डवस्वर्गारोहणं नाम प़ंचदशोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध में "पाण्डवों का स्वर्गारोहण" नामक पंद्रहवां अध्याय समाप्त हुआ।


यह भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अनुवाद है। यदि भागवत प्रथम स्कन्ध, पञ्चदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के बारे में और सहायता चाहिए, तो कृपया कमेंट में बताएं।

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