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संस्कृत श्लोक: "हयपादाहतिः श्लाघ्या न श्लाघ्यं खररोहणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "हयपादाहतिः श्लाघ्या न श्लाघ्यं खररोहणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
जय श्री राम! सुप्रभातम्!
यह श्लोक गूढ़ जीवन-सत्य को अत्यंत सुंदरता से व्यक्त करता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
श्लोक:
हयपादाहतिः श्लाघ्या न श्लाघ्यं खररोहणम्।
निन्दापि विदुषा युक्ता न युक्तो मूर्खसंस्तवः॥
शब्दार्थ:
- हय = घोड़ा
- पादाहतिः = पैर से मारा जाना / लात खाना
- श्लाघ्या = प्रशंसनीय
- खर = गधा
- रोहणम् = सवारी करना
- निन्दा = आलोचना, डाँट
- विदुषा = विद्वान के द्वारा
- युक्ता = उपयुक्त, योग्य
- मूर्ख = मूर्ख व्यक्ति
- संस्तवः = प्रशंसा
हिंदी भावार्थ:
यदि किसी विद्वान और महान व्यक्ति (घोड़े) से डाँट भी मिले (या चोट भी लगे), तो वह भी सम्मानजनक है; परंतु किसी अज्ञानी और नीच (गधे) की सवारी करना भी कोई गौरव नहीं।
इसी प्रकार, किसी विद्वान द्वारा की गई आलोचना भी हितकारी होती है, परंतु मूर्ख की प्रशंसा भी व्यर्थ और हानिकारक होती है।
व्याकरणिक विश्लेषण:
- हयपादाहतिः — हय (घोड़ा) + पाद (पैर) + आहतिः (घात या प्रहार) = समस्त पद, स्त्रीलिङ्ग।
- श्लाघ्या — प्रशंसनीय, पुल्लिङ्ग में प्रथमा एकवचन।
- खररोहणम् — खर (गधा) + रोहणम् (चढ़ना), नपुंसकलिङ्ग।
- विदुषा — विद्वान् शब्द का तृतीया एकवचन।
- निन्दा — स्त्रीलिङ्ग, प्रथमा एकवचन।
- मूर्खसंस्तवः — मूर्ख + संस्तवः (प्रशंसा), पुल्लिंग, प्रथमा एकवचन।
आधुनिक संदर्भ में व्याख्या:
यह श्लोक आज के जीवन में विशेष रूप से उपयोगी है। हम अक्सर चाहते हैं कि सभी हमें सराहें, चाहे वे ज्ञानी हों या अज्ञानी। परन्तु –
- विद्वान की डाँट भी मूल्यवान होती है क्योंकि वह हमारे सुधार के लिए होती है।
- मूर्ख की प्रशंसा मात्र मिथ्या अहंकार को पोषित करती है, जो अंततः हानिकर हो सकती है।
- जैसे घोड़े की लात का अर्थ होता है कि आप उसके पास पहुँचे, वह ऊँचा है। जबकि गधे की सवारी दिखावटी है पर तुच्छ।
यह नीति-श्लोक पर आधारित एक संवादात्मक नीति-कथा, जो बालकों, युवाओं एवं बड़ों सभी के लिए शिक्षाप्रद है:
नीति-कथा: “मूर्ख की प्रशंसा या विद्वान की निन्दा?”
पात्र:
- गुरु वाचस्पति – एक वृद्ध, ज्ञानी, और निष्ठावान आचार्य
- शिष्य बालदत्त – युवावस्था में, प्रतिभाशाली किंतु प्रशंसा का भूखा
- ग्रामवासी मूर्खराज – एक धूर्त, चाटुकार, और अज्ञानी व्यक्ति
प्रस्तावना (गुरुकुल में)
बालदत्त (गर्व से):
गुरुदेव! आपने कल मेरे श्लोक-पाठ में तीन दोष निकाले... पर कल गाँव के सभा-मंच पर मूर्खराज ने मेरी बहुत प्रशंसा की। कहा कि मेरा स्वर स्वर्ग में गूंजता है!
गुरु वाचस्पति (शांत स्वर में):
बालदत्त, मूर्ख की प्रशंसा अमृत नहीं, विष है। और विद्वान की आलोचना वज्र नहीं, औषधि है।
बालदत्त (झुंझलाकर):
परन्तु गुरुदेव, मुझे मूर्खराज के शब्द मधुर लगे, और आपकी डाँट कटु।
गुरु वाचस्पति (गंभीर होकर):
सुनो, मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ...
मुख्य कथा (कथा में कथा)
एक बार जंगल में एक घोड़ा और एक गधा मिले।
गधा (अहंकार से):
देखो, मुझ पर राजा का मंत्री सवारी करता है। मुझे फूलों से सजाया गया है।
घोड़ा (शांतिपूर्वक):
मित्र, मैं युद्धभूमि में वीरों को ढोता हूँ। उनकी चोटें सहता हूँ, पर मर्यादा नहीं छोड़ता।
गधा हँसते हुए बोला:
पर तुम्हें कभी मंत्री की प्रशंसा तो नहीं मिली!
तभी एक चींटी बोली:
गधे पर बैठने से कोई ऊँचा नहीं होता। और घोड़े की लात भी सम्मान की बात है – क्योंकि वह ऊँचाई पर खड़ा होता है।
पुनः गुरुकुल में
गुरु वाचस्पति (धैर्य से):
बालदत्त, जब तुम घोड़े जैसे बनोगे – ऊँचाई पर – तब तुम्हारी डाँट भी दूसरों को सुधारेगी।
पर यदि तुम गधे की सवारी में ही गौरव ढूँढोगे, तो मूर्खों की वाहवाही में डूबकर अपने पतन का मार्ग प्रशस्त करोगे।
बालदत्त (नेत्रों में आर्द्रता):
गुरुदेव, आज आपकी डाँट मुझे सबसे मधुर लगी। मैं मूर्खों की प्रशंसा नहीं, आपके शब्दों की आलोचना भी शिरोधार्य करूँगा।
नीति-सूत्र:
“निन्दापि विदुषा युक्ता, न युक्तो मूर्खसंस्तवः।”
विद्वानों की आलोचना भी हितकारी होती है। मूर्खों की प्रशंसा भी पतन का कारण बन सकती है।
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