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भागवत कथा: महर्षि भृगु द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा, श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 10, अध्याय 89) |
भागवत कथा: महर्षि भृगु द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा, श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 10, अध्याय 89)
महर्षि भृगु द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा की कथा श्रीमद्भागवत महापुराण (स्कंध 10, अध्याय 89) और अन्य पुराणों (जैसे पद्म पुराण और विष्णु पुराण) में वर्णित है। यह कथा भगवान विष्णु की सहनशीलता, करुणा, और भक्ति के प्रति उनकी अनन्य प्रेम को उजागर करती है। महर्षि भृगु ने यह परीक्षा देवताओं और ऋषियों के संदेह को दूर करने के लिए की, ताकि यह सिद्ध हो सके कि त्रिदेवों में सबसे बड़ा कौन है।
ऋषि-मुनियों और देवताओं के बीच एक बड़ा यज्ञ आयोजित किया गया। यज्ञ का फल किस देवता को समर्पित किया जाए, इस पर विवाद उत्पन्न हो गया। त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में से कौन सर्वोच्च है, यह तय करने के लिए ऋषियों ने महर्षि भृगु को यह कार्य सौंपा।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—
हे राजन्! एक बार सरस्वती नदी के तट पर महान् ऋषियों ने एक दीर्घकालीन सत्र (यज्ञ एवं ज्ञानगोष्ठी) का आयोजन किया। उस सत्संग में यह विचार उठ खड़ा हुआ कि त्रिदेवों – ब्रह्मा, विष्णु और महेश – में से कौन सर्वोपरि हैं? कौन भगवत्तत्त्व के सर्वाधिक निकट हैं?
इस जिज्ञासा के समाधान हेतु उन्होंने महर्षि भृगु को, जो ब्रह्मा के मानसपुत्र थे, त्रिदेवों की परीक्षा लेने हेतु भेजा। यह परीक्षा किसी बाह्य भाव से नहीं, बल्कि सत्त्व, संयम और क्षमा जैसे गुणों की कसौटी पर आधारित थी।
भृगुजी सर्वप्रथम ब्रह्मा जी के पास गए, फिर शिव जी के पास पहुँचे। परंतु कहीं भी उन्होंने उन्हें नमस्कार नहीं किया, न ही स्तुति की। यह उनका अभिमान नहीं, बल्कि सत्त्व की परीक्षा का भाग था — वे देखना चाहते थे कि इन महादेवताओं में कौन क्षमा और शीतलता के गुण में अडिग रहते हैं।
परंतु ब्रह्मा जी और महेश्वर दोनों ने क्रोध किया — एक ने मन में, तो दूसरे ने बाह्य रूप में। केवल श्रीविष्णु ही शेष रहे।
शिवजी ने भृगु को पहचान लिया कि वे उनके भ्राता हैं। अतः वे प्रसन्न होकर उठे और उन्हें आलिंगन करना चाहा। किंतु जब उन्होंने देखा कि भृगु उन्हें भी नहीं मानते, तब उन्हें भी क्षोभ हुआ।
शिवजी की आंखें लाल हो उठीं। उन्होंने समझा कि यह मेरा अपमान है, और शूल (त्रिशूल) उठाकर भृगु को दंड देना चाहा। परंतु तभी पार्वतीजी ने उन्हें रोक लिया।
पार्वतीजी ने शिवजी के चरणों में गिरकर उन्हें शांत किया। फिर भृगुजी अंततः श्रीवैकुण्ठ पहुँचे — जहाँ श्रीहरि श्री लक्ष्मीजी के साथ विराजमान थे।
भृगुजी ने वहाँ भी परीक्षा के भाव से कोई अभिवादन नहीं किया, अपितु श्रीहरि की छाती पर अपने चरण से प्रहार कर दिया — वहाँ जहाँ लक्ष्मीजी सदा वास करती हैं। परंतु क्या हुआ?
भगवान विष्णु तो सहसा उठ खड़े हुए! उन्होंने क्रोध नहीं किया, बल्कि...
भगवान विष्णु स्वयं अपने शय्यास्थान से उठे, मुनि को प्रणाम किया और उन्हें सादर आसन पर बैठाया। कहने लगे— “हे ब्रह्मन्! आपका स्वागत है। क्षमा कीजिए, हम आपको पहचान नहीं सके। कृपया मुझे और मेरे लोकों को आपके चरणोदक से पावन कीजिए।”
“हे मुनिवर! आज तक मैं लक्ष्मीजी का ही एकान्त भजन करता रहा, पर आज आपके चरणों के स्पर्श से मेरी छाती पावन हो गई। आपके चरणों से छुए जाने के कारण यह स्थान अब और भी शुभ बन गया है।”
इस प्रकार, सरस्वती के तट पर एकत्र वे ब्रह्मवादी ऋषि, जो मानव के महान संशयों के समाधान के लिए यह परीक्षण कर रहे थे, वे निष्कर्ष पर पहुँचे — केवल श्रीविष्णु ही पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। उनकी सेवा से ही परमगति प्राप्त होती है।
सूतजी कहते हैं — यह अमृततुल्य प्रसंग जो परम पुरुष श्रीहरि के गुणों का कीर्तन करता है, जब पथिक इसे बारंबार श्रवण करता है, तो संसार रूपी पथ के सभी कष्ट और भ्रम उसके हृदय से विलीन हो जाते हैं।
प्रस्तुत कथा का महत्व, संदेश, और आधुनिक सन्दर्भ
प्रस्तुत कथा के महत्व, संदेश, और आधुनिक सन्दर्भ को क्रमशः विस्तार से इस प्रकार समझा जा सकता है—
1. महत्व (महत्त्वम्):
यह कथा केवल पौराणिक घटना नहीं, बल्कि धर्म, भक्ति और गुणों की कसौटी पर आधारित एक गूढ़ शिक्षोपाख्यान है। इसका महत्व अनेक स्तरों पर देखा जा सकता है:
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त्रिदेवों का तुलनात्मक परीक्षण: यह कथा त्रिदेवों की भूमिका स्पष्ट करती है — ब्रह्मा (सृष्टि), रुद्र (संहार), विष्णु (पालन)। इनमें विष्णु को पूर्ण पुरुषोत्तम रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, क्योंकि उन्होंने सत्त्वगुण की चरम अभिव्यक्ति की।
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क्षमा और विनय की पराकाष्ठा: भगवान श्रीविष्णु का यह व्यवहार दर्शाता है कि ईश्वरत्व शक्ति में नहीं, क्षमा और प्रेमपूर्ण आत्मस्वीकृति में होता है।
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धार्मिक परीक्षण की मर्यादा: भृगु ऋषि द्वारा किया गया यह परीक्षा क्रम हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की परीक्षा लेना संभव नहीं, परंतु गुणों के आधार पर विवेकपूर्ण समझ संभव है।
2. संदेश (सन्देशः):
(क) परम श्रेष्ठता का मापदण्ड – गुण, न कि शक्ति:
श्रीविष्णु की श्रेष्ठता इस कारण सिद्ध हुई क्योंकि उन्होंने न अपमान का उत्तर दिया, न क्रोध किया, न तिरस्कार किया, अपितु प्रेमपूर्वक, नम्रतापूर्वक मुनि का सम्मान किया। यह दिखाता है कि—
"श्रेष्ठ वह नहीं जो प्रतिशोध करे, श्रेष्ठ वह है जो सब सहकर भी प्रेम बाँटे।"
(ख) शांति का आधार – क्षमा और सहनशीलता:
जब कोई हमारे अहंकार को चोट पहुँचाए, तो उसका उत्तर क्रोध नहीं, धैर्य और करुणा होना चाहिए। यह आज की समाज व्यवस्था में अत्यंत आवश्यक गुण है।
(ग) परमात्मा का हृदय – सबको अपनाने वाला:
श्रीविष्णु का भाव बताता है कि ईश्वर कभी हमारे अपराध नहीं गिनते, अपितु हमारे आगमन को अवसर मानकर स्वागत करते हैं।
3. आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता:
यह कथा आज के सामाजिक, पारिवारिक, और व्यक्तिगत जीवन में भी अत्यंत गहन शिक्षाएँ प्रदान करती है:
(1) नेतृत्व के लिए आवश्यक गुण:
आज के प्रशासकों, शिक्षकों, अभिभावकों या किसी भी नेता में यदि विनय, क्षमा, और सहनशीलता नहीं है, तो वह नेतृत्व अधूरा है।
श्रीविष्णु का उदाहरण बताता है कि वास्तविक शक्ति वह है जो अपमान सहकर भी मुस्कुराए और सामने वाले को गले लगाए।
(2) अहंकार की परीक्षा:
आज की प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में अहंकार और श्रेष्ठता की होड़ ने मानवता को पीछे छोड़ दिया है।
भृगु-परीक्षा यह सिखाती है कि जब कोई हमारे अहंकार को चुनौती दे, तो उसका उत्तर सज्जनता से देना चाहिए।
(3) समरसता और सह-अस्तित्व का आदर्श:
वर्तमान में जब धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर द्वेष फैल रहा है, तब यह कथा यह प्रेरणा देती है कि –
सर्वोच्च सत्ता वह है जो सबको अपनाती है और सबको एकता का संदेश देती है।
4. भावनात्मक प्रेरणा:
जब श्रीविष्णु ने कहा:
"भवत्पादहतांहसः — आपके चरणों से मेरा वक्ष स्थल पवित्र हो गया,"
तो यह केवल दया नहीं, आत्मा में आत्मा का दर्शन था — द्वेष में भी देवत्व देखना।
उपसंहार (निष्कर्ष):
इस कथा में श्रीहरि विष्णु के भीतर विद्यमान सत्त्वगुण, क्षमा, दया, और विनय की सर्वोच्च अभिव्यक्ति दर्शाई गई है। यह दर्शाता है कि परमात्मा का स्वरूप केवल महाशक्ति या ऐश्वर्य नहीं, अपितु सज्जनों की सेवा, अहंकाररहित विनय, और सबको आश्रय देने की वृत्ति से युक्त होता है। यह कथा हमें सिखाती है कि धर्म का मूल प्रेम, क्षमा और सेवा है। जो जीवन को इन गुणों से भर देता है, वही वास्तव में परमेश्वर का प्रतिनिधि बनता है।
आज का समाज जब क्रोध, द्वेष, असहिष्णुता और व्यर्थ विवादों से पीड़ित है, तब यह कथा श्रीहरि के आचरण के माध्यम से एक जीवनदायिनी औषधि है — ‘क्षमा ही परम धर्म है।’
अति सराहनीय
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