संस्कृत श्लोक: "अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
By -
संस्कृत श्लोक: "अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

जय श्रीराम।
   प्रस्तुत श्लोक एक गहन नीतिपरक सूक्ति है, जो "पात्रता" और "स्वभाव" की भूमिका को रेखांकित करती है। आइए इसे क्रमशः सभी पक्षों से विश्लेषित करें:


श्लोक

अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शङ्करभूषणम्॥


1. हिन्दी अनुवाद (भावार्थ सहित):

"संयमी व्यक्ति के लिए अयोग्य वस्तु भी योग्य बन जाती है, जबकि नीच व्यक्ति के लिए योग्य वस्तु भी दोषपूर्ण सिद्ध होती है। अमृत भी राहु के लिए मृत्युकारक बन गया, जबकि विष भी भगवान शंकर के लिए अलंकार बन गया।"


2. शाब्दिक विश्लेषण:

शब्द अर्थ
अयुक्तम् अयुक्त, अनुचित, अनुपयुक्त
स्वामिनः स्वामी (यहाँ – संयमी या ज्ञानी व्यक्ति)
युक्तम् युक्त, उचित, योग्य
नीचस्य नीच व्यक्ति का
दूषणम् दोष, कलंक
अमृतम् अमरत्व प्रदान करने वाला पदार्थ
राहवे राहु के लिए
मृत्युः मृत्यु
विषम् विष, ज़हर
शङ्करभूषणम् शंकर (शिव) का भूषण (अलंकार)

3. व्याकरणात्मक विश्लेषण:

  • अयुक्तंनपुंसकलिंग, एकवचन, कर्तृवाच्य, प्रातिपदिक "अयुक्त", तृतीया विभक्ति
  • स्वामिनःपुल्लिंग, एकवचन, षष्ठी विभक्ति, "स्वामिन्" शब्द
  • युक्तं – नपुंसक एकवचन
  • नीचस्यपुल्लिंग, एकवचन, षष्ठी विभक्ति, "नीच" शब्द
  • दूषणम्नपुंसकलिंग, एकवचन, "दूषण" शब्द
  • अमृतम्नपुंसकलिंग, एकवचन, "अमृत" शब्द
  • राहवेपुल्लिंग, एकवचन, चतुर्थी विभक्ति, "राहु" शब्द
  • मृत्युःपुल्लिंग, एकवचन, "मृत्यु" शब्द, कर्ता
  • विषम्नपुंसकलिंग, एकवचन, "विष" शब्द
  • शङ्करभूषणम् – समास: शंकरस्य भूषणम् – षष्ठी तत्पुरुष समास

4. सन्दर्भ (Purāṇic Allusion):

  • राहु और अमृत: राहु ने देवताओं के मध्य अमृत पीने का प्रयास किया। लेकिन वह छल से किया गया था, जिससे वह अमृत भी उसके लिए मृत्युकारक बन गया।
  • शंकर और विष: समुद्र मंथन से उत्पन्न कालकूट विष को शिव ने पी लिया और वह उनके नीलकण्ठ स्वरूप का कारण बना – यही विष उनके लिए भूषण बना।

5. आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता:

(क) पात्रता का महत्व:

– किसी भी वस्तु, ज्ञान या साधन की वास्तविक उपयोगिता उस व्यक्ति की नीयत और योग्यता पर निर्भर करती है।
– जैसे:

  • ज्ञान यदि सदाचारी के पास हो तो समाज का हित करता है;
  • परंतु वही ज्ञान दुर्जनों के पास जाए तो विनाशकारी हो सकता है (जैसे रावण का वेदज्ञान)।

(ख) नीच व्यक्ति की स्तुति भी दोषपूर्ण हो सकती है:

– यदि कोई गुणी व्यक्ति नीच की प्रशंसा प्राप्त करता है, तो समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखता है।

(ग) प्रशंसा बनाम आलोचना:

– किसी बुद्धिमान के द्वारा आलोचना भी सुधार का द्वार खोलती है;
– पर मूर्ख की प्रशंसा पतन का कारण बन सकती है।


6. नीति-सन्देश:

"किसी वस्तु की श्रेष्ठता उसके गुण में नहीं, बल्कि उपयोगकर्ता की दृष्टि और चरित्र में होती है।"


7. निष्कर्षात्मक सारांश (उपसंहार):

यह श्लोक अत्यंत मर्मस्पर्शी नीति प्रदान करता है –

  • किसी वस्तु या शक्ति का मूल्यांकन केवल उसके स्वरूप से नहीं किया जा सकता,
  • बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किसके हाथ में है, किस भावना और उद्देश्य से प्रयुक्त हो रही है।

संवादात्मक नीति-कथा

(श्लोकाधारित)
"अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शङ्करभूषणम्॥"


पात्र

  1. राजा धर्मसेन – न्यायप्रिय एवं ज्ञानी राजा
  2. मन्त्रिवर विद्यानन्द – विवेकी, नीति-निपुण मंत्री
  3. सुमति – सद्गुणी युवक
  4. दुर्मति – कपटी, स्वार्थी दरबारी

[दृश्य – राजसभा]

राजा धर्मसेन:
विद्यानन्द! एक ही वस्तु दो भिन्न व्यक्तियों के लिए अलग परिणाम क्यों लाती है? एक अमृत पाकर महान बनता है, और दूसरा उसी से पतन को प्राप्त होता है।

मन्त्रिवर:
महाराज! यह शाश्वत सत्य है कि वस्तु से नहीं, स्वभाव से उसका प्रभाव तय होता है। इस विषय में एक कथा प्रसिद्ध है...


नीति-कथा: "अमृत और विष का निर्णय"

एक बार देवताओं और दानवों ने अमृत कलश पाने के लिए मंथन किया।

जब अमृत निकला, तो राहु ने छल से पीने का प्रयास किया। सूरज-चन्द्र ने उसका भेद खोला और भगवान विष्णु ने उसका सिर काट डाला।
राहु के लिए अमृत मृत्युकारक सिद्ध हुआ।

वहीं जब समुद्र से विष निकला, सभी भयभीत हो उठे। तब भगवान शिव ने उसे सहज भाव से पी लिया और उसे नीलकण्ठ कहकर भूषण बना लिया।


[सभा में वापसी]

राजा (मन्त्रिवर से):
तो आप कहना चाहते हैं कि वस्तु का प्रभाव उसके पात्र पर निर्भर करता है?

मन्त्रिवर (नम्रता से):
हां महाराज! यही कारण है कि

"अयुक्तं स्वामिनो युक्तं – संयमी के लिए अयोग्य भी योग्य हो जाता है।
युक्तं नीचस्य दूषणम् – और योग्य भी नीच के हाथों में दोषकारक बनता है।"

राजा (गंभीर स्वर में):
सत्य कहा। यह नीति अब मैं दरबार में भी लागू करूँगा – केवल वस्तु नहीं, पात्रता का मूल्यांकन होगा।


नीति-सार

"पदार्थ की पवित्रता उसके प्रयोगकर्ता की नीयत और पात्रता पर निर्भर करती है।"
"दूध से दीप जलाने वाला पूजित होता है, और वही दूध विष में मिलाकर भी हत्या कर सकता है।"


#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!