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संस्कृत श्लोक: "यथा हि मलिनैः वस्त्रैः यत्र तत्र उपविश्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "यथा हि मलिनैः वस्त्रैः यत्र तत्र उपविश्यते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक
शुद्ध हिन्दी अनुवाद
जिस प्रकार कोई व्यक्ति गंदे वस्त्र पहनकर कहीं भी बैठ जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपने आचरण से च्युत हो जाता है (चरित्रहीन हो जाता है), वह अपने बचे हुए सद्गुणों की भी रक्षा नहीं कर पाता।
शाब्दिक विश्लेषण
शब्द | अर्थ |
---|---|
यथा | जैसे |
हि | निश्चय ही |
मलिनैः वस्त्रैः | गंदे वस्त्रों से (तृतीया विभक्ति) |
यत्र तत्र | कहीं भी |
उपविश्यते | बैठा जाता है |
एवं | वैसे ही |
चलितवृत्तः | जो आचरण से गिर चुका हो |
तु | परंतु |
वृत्तशेषम् | बचा-खुचा आचरण, थोड़ी अच्छाई |
न रक्षति | नहीं बचाता/संरक्षण करता |
व्याकरणिक दृष्टि से
- यह श्लोक उपमा अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण है।
- "यथा...एवं" = उपमेय और उपमान की स्पष्ट स्थापना है।
- "मलिनैः वस्त्रैः" = तृतीया विभक्ति बहुवचन (करण कारक)।
- "उपविश्यते" = आत्मनेपदी क्रियापद (लट् लकार, वर्तमानकाल)।
- "चलितवृत्तः" = "चलित" + "वृत्त" = आचरण से गिरा हुआ।
- "वृत्तशेषम्" = जो थोड़ी-बहुत अच्छाई बची है।
आधुनिक सन्दर्भ में नीति
- चरित्रहीनता का प्रभाव इतना गहरा होता है कि यदि एक बार कोई व्यक्ति अपने सदाचरण से गिर जाए, तो उसके शेष गुण भी धीरे-धीरे क्षीण हो जाते हैं।
- ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति गंदे कपड़ों में अपनी प्रतिष्ठा का विचार किए बिना कहीं भी बैठ सकता है, उसी तरह चरित्र भ्रष्ट होने पर सामाजिक सीमाएं भी लांघी जाती हैं।
- यह श्लोक आज के राजनीतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत व्यवहार के लिए भी गहरा संदेश देता है – चरित्र की रक्षा सर्वोपरि है।
नीति-सूत्र (सार)
“चरित्र एक ऐसा वस्त्र है जो मलिन होते ही मान-सम्मान गिरा देता है। इसे स्वच्छ रखना ही जीवन की सबसे बड़ी नीति है।”
संवादात्मक नीति-कथा
शीर्षक: "वृत्त(चरित्र) की रक्षा"
पात्र:
- गुरुदेव वाचस्पति – एक तपस्वी ज्ञानी
- शिष्य यशोधन – युवा, बुद्धिमान किंतु जीवन अनुभवहीन
- कुशाघ्र – एक अन्य शिष्य, लोभ के वशीभूत
(गुरुकुल के शांत प्रांगण में)
कथा प्रारम्भ
एक बार की बात है। दो शिष्य — यशोधन और कुशाघ्र — राजसभा में न्याय के कार्य हेतु नियुक्त हुए। यशोधन सदैव सत्य बोलता, परखा हुआ उत्तर देता। कुशाघ्र अत्यंत चतुर था, परंतु उसमें लोभ आ गया।
राजा ने कुशाघ्र की बात मानी और उसे पुरस्कार दिया। धीरे-धीरे कुशाघ्र की लोभवृत्ति बढ़ी। उसने झूठ बोलना प्रारंभ किया, पक्षपात किया। एक दिन उसका बड़ा छल उजागर हुआ।
“महाराज, जैसे गंदे वस्त्र पहने व्यक्ति कहीं भी बैठ जाता है, वैसे ही चरित्रहीन व्यक्ति अपने बचे हुए सत्कार्यों को भी मलिन कर देता है।”
राजा को श्लोक स्मरण हो आया। कुशाघ्र को दंडित किया गया, और यशोधन को प्रधान न्यायाधीश बनाया गया।
'चरित्र वह दीपक है, जो भीतर जलता है और बाहर प्रकाश देता है।'”