संस्कृत श्लोक: "अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम 🌹सुप्रभातम् 🙏
  प्रस्तुत श्लोक  व्यवहारिक जीवन में गुण-दोष के संतुलन को दर्शाने वाली अत्यंत मार्मिक और शिक्षाप्रद उक्ति है।


श्लोक:

अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति।
निखिलरसायनमहितो गन्धेनोग्रेण लशुन इव॥


शाब्दिक विश्लेषण:

पद अर्थ
अमितगुणः अपार गुणों वाला
अपि भी
पदार्थः वस्तु / व्यक्ति
दोषेणैकेन केवल एक दोष के कारण
निन्दितः भवति निंदा का पात्र बन जाता है
निखिलरसायनमहितः सम्पूर्ण औषधियों में श्रेष्ठ माना गया
गन्धेन उग्रेण तीव्र गंध के कारण
लशुन इव लहसुन की तरह

हिंदी भावार्थ:

जिस प्रकार लहसुन, समस्त रसायनों (औषधियों) में श्रेष्ठ होते हुए भी केवल अपनी तीव्र गंध के कारण आलोचना का पात्र बन जाता है,
उसी प्रकार किसी पदार्थ (या व्यक्ति) के अनेक गुण होने पर भी, यदि उसमें एक भी दोष हो तो लोग उसी दोष के कारण उसे निंदनीय समझते हैं।


आधुनिक सन्दर्भ में भावार्थ:

  • यह श्लोक मानव-स्वभाव पर गहरी टिप्पणी करता है—
    लोग किसी के अनेक सद्गुणों को अनदेखा कर, एक दोष पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
  • आज की सोशल मीडिया संस्कृति में यह और भी प्रासंगिक है जहाँ एक छोटी सी भूल पर वर्षों की प्रतिष्ठा मिटा दी जाती है।

नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण:

"एक दोष, हजार गुणों पर भारी पड़ सकता है।"
इसलिए हमें चाहिए कि या तो स्वयं को दोषों से बचाएँ,
या दूसरों के दोष खोजने की प्रवृत्ति को संयमित करें।


शिक्षाप्रद दृष्टांत (कथा):

महर्षि चरक ने एक बार कहा —
"लहसुन हृदय के लिए अमृत है, पर ब्राह्मण इसे नहीं खाता।"
क्यों? क्योंकि उसकी तीव्र गंध उसके गुणों को ढक देती है।

यह प्रतीक है कि सुगंध (सद्व्यवहार) न हो, तो गुण भी व्यर्थ माने जाते हैं।


नैतिक संदेश:

  • स्वयं के दोष सुधारें, क्योंकि समाज दोषों पर ही दृष्टिपात करता है।
  • दूसरों में गुण देखना सीखें, क्योंकि एक दोष के पीछे अच्छाइयाँ छिपी होती हैं।

संवादात्मक नीति कथा

यह रहा उक्त श्लोक पर आधारित एक संवादात्मक नीति कथा, जिसे आप कक्षा, सभा या नैतिक शिक्षा मंच पर नाट्य रूप में प्रस्तुत कर सकती हैं—


शीर्षक: “एक दोष की छाया”

पात्र:

  1. आचार्य वरदराज – वृद्ध, नीतिशास्त्र के ज्ञाता
  2. शिष्य सौमित्र – जिज्ञासु बालक
  3. ग्रामवासी 1 (कौशल) – लोभी
  4. ग्रामवासी 2 (मधु) – सहृदय
  5. सभा के लोग

(दृश्य - आचार्य की पाठशाला के वृक्ष के नीचे सभी बैठे हैं)

सौमित्र (जिज्ञासा से):
गुरुदेव! एक बात समझ नहीं आती – क्यों लोग किसी व्यक्ति की एक भूल को पकड़कर बैठ जाते हैं, जबकि उसने जीवन भर अच्छे कार्य किए हों?

आचार्य वरदराज (मुस्कुराते हुए):
वत्स! यह प्रश्न बहुत गूढ़ है और उत्तर एक श्लोक में निहित है—

(श्लोक गाते हैं):
अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति।
निखिलरसायनमहितो गन्धेनोग्रेण लशुन इव॥

सौमित्र:
गुरुदेव! कृपया इसे एक कथा के माध्यम से समझाएँ।


(दृश्य परिवर्तित – ग्रामसभा लगी है, गाँव का एक व्यक्ति ‘कौशल’ एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ‘मधु’ की शिकायत कर रहा है)

कौशल (क्रोधित होकर):
यह मधु! कितना भी अच्छा बने, लेकिन एक बार इसने मुझसे झूठ बोला था। मैं इसे अब सदाचारी नहीं मानता!

सभा का शोर।

मधु (विनम्रता से):
भाइयों, मैंने जीवन भर सबकी सेवा की, वृद्धों को सहारा दिया, बच्चों को पढ़ाया, और उसी दिन मैंने केवल अपनी बेटी को बचाने के लिए वह असत्य कहा था।

सभा में मौन छा जाता है।

(आचार्य मंच पर आते हैं)

आचार्य:
क्या तुमने कभी लहसुन देखा है?

सभा (हैरानी से):
हाँ आचार्यजी!

आचार्य:
वह कितनी औषधीय गुणों से युक्त है—हृदय की रक्षा करता है, रक्त को शुद्ध करता है। फिर भी लोग उसकी गंध के कारण उसका तिरस्कार करते हैं।

सभा चकित।

आचार्य (गंभीर स्वर में):
“जिस प्रकार लहसुन केवल गंध के कारण निंदनीय है, उसी प्रकार मनुष्य एक दोष के कारण अपमानित होता है, चाहे उसमें हजारों गुण हों।”


(अंतिम दृश्य – सौमित्र पुनः प्रश्न करता है)

सौमित्र:
गुरुदेव! क्या हमें फिर दोषहीन होना चाहिए?

आचार्य:
दोष न हों यह तो श्रेष्ठ है, पर यदि हों भी, तो दूसरों के गुणों को भी देखो।
न्याय यह नहीं कि दोष खोजो, धर्म यह है कि गुणों की प्रतिष्ठा करो।


(पर्दा गिरता है — मंच से उद्घोषणा)

“दोष में नहीं रुक जाना चाहिए, गुणों की ओर बढ़ना चाहिए – यही नीतिशास्त्र की सच्ची साधना है।”


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