संस्कृत श्लोक "श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
प्रस्तुत श्लोक भारतीय नीतिशास्त्र की एक अत्यंत गूढ़ शिक्षा है — कि सद्गुण और श्रेष्ठता का मूल्य उनके स्रोत (origin) से नहीं, बल्कि उनकी अंतर्निहित गुणवत्ता (inherent quality) से आँका जाना चाहिए। आइए इसे व्यवस्थित रूप में देखें:
१. संस्कृत मूल
श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥
२. अंग्रेज़ी ट्रान्सलिटरेशन (IAST)
śraddhadhānaḥ śubhāṃ vidyām ādadītāvarād api ।
antyād api paraṃ dharmaṃ strī-ratnaṃ duṣkulād api ॥
३. पद-पद अर्थ (Word-by-Word Meaning)
पद | अर्थ |
---|---|
श्रद्धधानः | श्रद्धा से युक्त, समर्पित |
शुभां विद्याम् | उत्तम विद्या |
आददीत | ग्रहण करे |
अवरात् अपि | अपने से छोटा या हीन समझे जाने वाले से भी |
अन्त्यात् अपि | अति नीच कुल या चाण्डाल से भी |
परम् धर्मम् | उच्चतम धर्म |
स्त्री-रत्नम् | सद्गुणवती स्त्री |
दुष्कुलात् अपि | बुरे कुल से भी |
४. हिन्दी अनुवाद
मनुष्य को श्रद्धा के साथ अपने से छोटा अथवा हीन समझे जाने वाले से भी श्रेष्ठ विद्या ग्रहण करनी चाहिए।
चाण्डाल से भी उत्तम धर्म सीखना चाहिए।
और नीच कुल से भी यदि स्त्री गुणवान हो तो उसे (कन्या या वधू के रूप में) स्वीकार करना चाहिए।
५. English Translation
With devotion, one should accept noble knowledge even from a person socially considered lower.
One should adopt true Dharma even if taught by an outcaste.
And one should accept a virtuous woman even if she comes from a lowly family.
६. व्याकरणिक विश्लेषण
- श्रद्धधानः → तप् प्रत्ययान्त विशेषण; यहाँ कर्ता (subject) है।
- आददीत → लोट् लकार (आज्ञार्थक) धातु "दा" (ग्रहण करना) से। आदेश या उपदेश के स्वरूप में प्रयोग।
- तीन समांतर खंड हैं (विद्या – धर्म – स्त्रीरत्न) जो समन्वय रूप में नीति सूत्र गढ़ते हैं।
७. आधुनिक सन्दर्भ
🔹 शिक्षा → आज भी ज्ञान सिर्फ़ “बड़े” या “प्रतिष्ठित संस्थान” से ही नहीं, बल्कि किसी भी व्यक्ति से लिया जा सकता है — चाहे वह छोटा हो, गरीब हो या समाज में हीन समझा जाता हो।
🔹 धर्म/नैतिकता → नैतिकता की शिक्षा कभी किसी भी अप्रत्याशित स्रोत से मिल सकती है। अच्छे मूल्यों को ग्रहण करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।
🔹 स्त्रीरत्न → सच्चा मूल्य व्यक्ति के चरित्र और सद्गुणों में है, वंश या पारिवारिक प्रतिष्ठा में नहीं।
८. संवादात्मक नीति-कथा
कथा — “गुरु कौन?”
एक राजा ने पूछा: “गुरु कौन होना चाहिए?”
मंत्री ने कहा:
- ज्ञान चाहे किसी छोटे बालक से मिले — उसे ग्रहण करो।
- नीति चाहे किसी अज्ञात साधु से मिले — उसे स्वीकार करो।
- और गुणवान स्त्री चाहे निर्धन परिवार से हो — उसका सम्मान करो।
राजा ने कहा: “तो महान वह नहीं जो कुल से बड़ा हो, बल्कि वह है जो गुण से महान हो।”
९. सार-सूत्र (Takeaway)
👉 सद्गुण को ग्रहण करने में स्रोत की ऊँच-नीच नहीं देखनी चाहिए।
👉 विद्या, धर्म और स्त्री-रत्न — ये तीनों रत्न हर स्थिति में स्वीकार्य हैं, चाहे वे किसी भी कुल या व्यक्ति से आए हों।