मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥

Sooraj Krishna Shastri
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मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥

(रामचरितमानस की चौपाइयों का विशिष्ट विश्लेषण)

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥

 संसार से नीति और भगवान के चरणों में प्रीत करके मैं संसार में रहकर भी संसारी नहीं बनूंगा यह सत्संकल्प हमें मोहमुक्त कर देगा। मोह ऐसा मानसरोग है जो अधिकांशतः सुशिक्षित और सफल लोगों में पाया जाता है। जिसके कारण ऐसे लोग गुणी होते हुए भी अपने समान किसी को न मानकर पूरे समय यही चिंतन करते रहते है कि मैं किसी दूसरे से कैसे और कितना श्रेष्ठ हूं।

भगवान के परम भक्त नारद जी, शिव की अर्धांगिनी सती जी तथा भगवान विष्णु की सेवा में रहने वाले गरुड़ जी भी भगवान की लीला के वशीभूत होकर मोह पाश में बंध गए।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥


महर्षि काकभुशुंडि ने पक्षीराज गरुड़ से कहा कि मोह ही समस्त मानसिक व्याधियों का मूल है। सत्संग की इसका उपचार है। सांसारिक इच्छाएं ही तो बंधन का कारण होती हैं।

सुमति छुधा बाढ़ई नित नई।

विषय आस दुर्बलता गई।

विषयों की आशा के स्थान पर भगवान से यह मांगना कि मेरा संतों जैसा स्वभाव हो जाए। संत स्वभाव होते ही मानस रोग का जो मूल आधार मोह है, उससे मुक्ति संभव है।

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई।

जब उर बल बिराग अधिकाई॥

सुमति  छुधा  बाढ़इ  नित नई।

बिषय   आस   दुर्बलता   गई॥

 मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥

"अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते"

 योग दर्शन में —

"अभ्यास वैराग्याभ्याँ तन्निरोधः"

 कहकर उपरोक्त कथन की पुष्टि कर दी। दरअसल स्वाभाविक दुर्बलता तब तक छूटती भी नहीं जब तक आत्मा के प्रति कौतूहल पूर्ण जिज्ञासा और संसार की निस्सारता का भाव मन में प्रकट नहीं होता है।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: ।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।

साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।।

शास्त्र कहते हैं कि सिद्धियाँ और सफलतायें तो वैराग्यशील व्यक्ति की चरण दासी होता है। आत्म-विजय, मनोजय, राजनैतिक सफलतायें अध्यात्मिक प्रगति और साँसारिक सुख जिनकी प्रत्येक युग में आवश्यकता होती है वह वैराग्य वाले मनुष्य को स्वयमेव आवश्यकतानुसार मिलती रहती है। 

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसन्नचेतसो ह्राशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ।।

अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है ।।

 वैराग्य को सम्पूर्ण सिद्धियों का साधन  है —

यच्छ  भूतं  भविष्ययं  च  भवम्च परम द्युते।

 तर्त्सवमनुपश्यामि पाणौ फल चिकिर्षिताम्॥

इसके अर्थ में रामचरितमानस की यह पंक्तियाँ प्रयुक्त हैं संत शिरोमणि तुलसी दास जी लिखते हैं कि —

जानहिं तीन काल निज ग्याना।

करतल गत आमलक समाना॥

वह व्यक्ति जिनसे हृदय में वैराग्य बसता है वह यह जानता है हम भूत में क्या थे और भविष्य में क्या होंगे। सम्पूर्ण सिद्धियाँ उनकी हथेलियों पर होती हैं।

ईशावास्यमिदं  सर्वं  यत्किञ्च  जगत्यां  जगत् ।

 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे।

अकिंचना भक्ति - अर्थात् वैराग्य जहाँ है वहाँ समस्त सद्गुण विराजते हैं।

वैराग्य ऐसी निर्मल भावना है जो मनुष्य के मन को पक्षपात पूर्ण विचारों से बचाती है। चाहे वह अपने लिये हो, समीपस्थ सम्बन्धी अथवा किसी पड़ोसी के लिये हो। अपनी त्रुटि दोष और कमजोरियों पर तो वह कड़ाई से नियंत्रण करता ही है साथ ही उन सभी बुराइयों के विरोध में सहयोग करता है जो परमात्मा के मंगलमय विधान में विघ्न बाधा डालते हैं। इससे भलाई की शक्ति का विकास और परिवर्तन ही होता है।

विचारों की निर्मलता से दुरित दुर्गुणों का निवारण ही नहीं होता वरन् जिस तरह पतझड़ के बाद पेड़ों-पौधों में नई कोपलें फूट उठती है, चैत्र की नवरात्रियों के पास जिस तरह कोंपल प्रकृति नये-नये परिधान में निखरती है वैसे ही मस्तिष्क में भी वैराग्य की भावना आने से नई-नई कोमल भावनाओं का विकास होता है।

है बहारे बाग दुनिया चन्द रोज।

देखलो इसका तमाशा चन्द रोज॥

ऐ मुसाफिर कूँच का सामान कर।

है बसेरा इस सरा में चन्द रोज॥

इस संसार के सुख, तमाशे थोड़ी अवधि के लिये है। न जाने कब शरीर विनष्ट हो जाय और इस दुनिया को छोड़कर चल देना पड़े। 

हमारा मानना है कि यदि कुछ नहीं कर सकते, तो जो भी कर रहे हों भगवान को समर्पित करते रहो।

जैसे कि भगवान ने कहा है कि —

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥

 इसलिए हे अर्जुन - तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा। 

जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है। 

जीवन के व्यावहारिक कर्तव्यों का ध्यान कैसे रखें?

 यह प्रश्न अनेक लोगों द्वारा पूछा जाता है। अधिकांश लोग यह बहाना भी बनाते हैं कि वे घरेलू कार्यों में व्यस्त होने के कारण ईश्वर का चिंतन नहीं कर पाते। ऐसे लोगों को भगवान यहाँ उपदेश देते हैं। 

"मेरा चिंतन करो और अपने कर्तव्यों का पालन करो।"

युद्धभूमि में अर्जुन का कर्तव्य युद्ध करना था। प्रत्येक व्यक्ति के लिए, जीवन के विभिन्न पदों और परिस्थितियों के अनुसार, विशिष्ट कर्तव्य होंगे और उन्हें मन में भगवान का चिंतन करते हुए करना चाहिए।

अर्जुन को दिया गया यह उपदेश भौतिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले समस्त व्यक्तियों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है । भगवान् यह नहीं कहते कि कोई अपने कर्तव्यों को त्याग दे । मनुष्य उन्हें करते हुए साथ-साथ हरे कृष्ण का जप करके कृष्ण का चिन्तन कर सकता है । इससे मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो जायेगा और अपने मन तथा बुद्धि को कृष्ण में प्रवृत्त करेगा । कृष्ण का नाम-जप करने से मनुष्य परमधाम कृष्णलोक को प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

भगवान की यह घोषणा सिद्ध करती है कि गीता शास्त्र भिक्षुओं, पलायनवादियों, आलसी और कायरों का दर्शन नहीं है। यह वह सिद्धांत है जो व्यावहारिक जीवन को परम साक्षात्कार से जोड़ता है। मेरा स्मरण करो और अपना कर्तव्य करो 

"माम् अनुस्मर युध्य च"

 यह गीता की प्रमुख शिक्षाओं में से एक है।

हमारा मन विचार उत्पन्न करता है और बुद्धि उसे अनुमोदित और पुष्ट करती है। इसलिए मनुष्य को मन और बुद्धि दोनों से भगवान का चिंतन करना चाहिए। मन की इन दोनों शक्तियों को भगवान में स्थिर या समर्पित कर देना चाहिए।

इसलिए हमारे धर्माचार्यो ने कहा है कि —

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिर बसन्तौ पुनरायातः।

कालः क्रीड़ति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्चत्याशावायुः।

भज गोविन्द भज गोविन्द गोविन्द मूढमते॥

बार-बार दिन, सायंकाल रात्रि आती है और देखते-देखते चली जाती है इस प्रकार काल की क्रीड़ा निरन्तर होती रहती है प्राणियों की आयु इस तरह क्षीण होती जा रही है। ऐ मन क्षण भंगुर इस संसार में आशाओं की वायु का परित्याग कर परमात्मा को भज ले प्यारे।

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