Sharanagati aur Bhakti Marg: तू दयालु दीन हौं in Tulsi Ram Bhakti
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब विधि हितु मेरो॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥
भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। भगवान् से बडा
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Tulsi Das ke pad 'तू दयालु दीन हौं' में Shri Ram-Krishna ki bhakti, daya aur sharanagati ka अनमोल संदेश पढ़ें |
दयालु और दानी कौन हो सकता है। प्रभु पापों का हरण करने वाले हैं। इस पद के माध्यम से तुलसीदास भगवान व भक्त के बीच संबंध की व्याख्या कर रहे हैं।
हे नाथ - तुम दीनों पर दया करने वाले हो, तो मैं दीन हूँ । तुम अतुल दानी हो तो मैं भीख मंगा हूँ । मैं प्रसिद्ध पापी हूँ, तो तू पाप - पुंजों का नाश करने वाले हो ।
तुम अनाथों का नाथ हो, तो मुझ - जैसा अनाथ भी और कौन है ? मेरे समान कोई दुःखी नहीं है और तेरे समान कोई दुःखों को हरने वाला नहीं है ।
तुम ब्रह्म हो तो मैं जीव हूँ । तुम स्वामी हो तो मैं सेवक हूँ । अधिक क्या, मेरा तो माता, पिता, गुरु, मित्र और सब प्रकार से हितकारी तुम ही है।
मेरे - तेरे अनेक नाते हैं; नाता तुझे जो अच्छा लगे, वही मान ले । परंतु बात यह है कि हे कृपालु - किसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरणों की शरण पा जावे ॥
मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।
मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः ।।
अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो । इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे ।
आज पहले शरणागत के बारे में एक कथा पर चर्चा करेंगे।
शरणागति के विषयमें एक कथा आती है। सीताजी रामजी और हनुमानजी जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छायी हुई थी। लता के कोमल कोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओं में कहीं पर नयी नयी कोपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तों से लता छायी हुई थी। उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था। उस वृक्ष की शोभा को देखकर भगवान् श्रीराम हनुमानजी से बोले देखो हनुमानजी यह लता कितनी सुन्दर है वृक्ष के चारों ओर कैसी छायी हुई है यह लता अपने सुन्दर सुन्दर फल सुगन्धित फूल और हरी भरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ा रही है इससे जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दिख रहा है इतना ही नहीं
इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है। इस लता के कारण ही पशु पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लता भगवान् श्रीराम के मुख से लता की प्रसंशा सुनकर सीताजी हनुमानजी से बोलीं -- देखो बेटा हनुमान तुमने खयाल किया कि नहीं देखो, इस लता का ऊपर चढ़ जाना, फूल पत्तों से छा जाना, तन्तुओं का फैल जाना , ये सब वृक्ष के आश्रित हैं, वृक्ष के कारण ही हैं। इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण हैं। इसलिये मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है कैसे छा सकती है अब बोलो हनुमान तुम्हीं बातओ , महिमा वृक्ष की ही हुई न , रामजी ने कहा - क्यों हनुमान यह महिमा तो लता की ही हुई न, हनुमानजी बोले - हमें तीसरी ही बात सूझती है।
सीताजी ने पूछा -- वह क्या है बेटा
हनुमानजी ने कहा - माँ वृक्ष और लता की छाया बड़ी सुन्दर है। इसलिये हमें तो इन दोनों की छाया में रहना ही अच्छा लगता है अर्थात् हमें तो आप दोनों की छाया(चरणोंके आश्रय) में रहना ही अच्छा लगता है।
सेवक सुत पति मातु भरोसें।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥
हनुमान, भगवान राम के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जैसे एक सेवक अपने स्वामी पर, एक पुत्र अपनी माता पर और एक पति अपनी पत्नी पर बिना किसी शंका के भरोसा करता है, वैसे ही वे भी भगवान राम पर अटूट विश्वास करते हैं।
जो चीज अपनी होती है, सदा ही अपने को प्यारी लगती है। भगवान सम्पूर्ण जीवों को अपना प्रिय मानते हैं
"सब मम प्रिय सब मम उपजाए"
और इस जीव को भी प्रभु स्वतः ही प्रिय लगते हैं। हाँ, यह बात दूसरी है कि यह जीव परिवर्तनशील संसार और शरीर को भूल से अपना मानकर अपने प्यारे प्रभु से विमुख हो जाता है। इसके विमुख होने पर भी भगवान ने अपनी तरफ से किसी भी जीव का त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं। कारण कि जीव सदा से साक्षात् भगवान का ही अंश है।
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी"
इसलिये सम्पूर्ण जीवों के साथ भगवान की आत्मीयता अक्षुण्ण, अखणडित रूप से स्वाभाविक ही बनी हुई है। इसी से वे मात्र जीवों पर कृपा करने के लिये अर्थात् भक्तों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना इन तीन बातों के लिये समय समय पर अवतार लेते हैं —
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
इन तीनों बातों में केवल भगवान की आत्मीयता ही टपक रही है? नहीं तो भक्तों की रक्षा? दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना से भगवान का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भगवान तो ये तीनों ही काम केवल प्राणिमात्र के कल्याण के लिये ही करते हैं। इससे भी प्राणिमात्र के साथ भगवान की स्वाभाविक आत्मीयता, कृपालुता, प्रियता, हितैषिता, सुहृत्ता और निरपेक्ष उदारता ही सिद्ध होती है? और यहाँ भी इसी दृष्टि से अर्जुन से कहते हैं
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे । मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो ।
ज्ञान का सबसे गोपनीय भाग यह है कि व्यक्ति को कृष्ण का शुद्ध भक्त बनना चाहिए और सदैव उनका चिंतन करना चाहिए तथा उनके लिए कर्म करना चाहिए। व्यक्ति को औपचारिक ध्यानी नहीं बनना चाहिए। जीवन को इस प्रकार ढालना चाहिए कि उसे सदैव कृष्ण का चिंतन करने का अवसर मिले। व्यक्ति को सदैव इस प्रकार कर्म करना चाहिए कि उसके सभी दैनिक कार्य कृष्ण से संबंधित हों। उसे अपने जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिए कि चौबीसों घंटे वह कृष्ण का चिंतन किए बिना न रह सके। और भगवान का वचन है कि जो कोई भी ऐसे शुद्ध कृष्णभावनामृत में स्थित है, वह निश्चित रूप से कृष्ण के धाम को लौटेगा, जहाँ वह कृष्ण के साक्षात् सानिध्य में लीन होगा। ज्ञान का यह सबसे गोपनीय भाग अर्जुन को इसलिए बताया गया है क्योंकि वह कृष्ण का प्रिय मित्र है। जो कोई भी अर्जुन के मार्ग का अनुसरण करता है, वह कृष्ण का प्रिय मित्र बन सकता है और अर्जुन के समान सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।
सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो।
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महा रिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।
यहाँ भजन प्रताप शब्दों का अर्थ है भगवान के विधान में हर समय प्रसन्न रहना। विपरीत से विपरीत अवस्था में भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक से अधिक बढ़ती रहती है क्योंकि प्रेम का स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है।
जो जाको शरणो गहै, ताकहँ ताकी लाज।
उलटे जल मछली चलै, बह्यो जात गजराज ।।
छोटी-सी मछली भी जल प्रवाह के सामने चलती है। जल की धारा ऊपर से गिरती हो तो वह धारा पर ऊपर चढ़ जाती है; क्योंकि वह जल के शरण होती है। परन्तु हाथी बड़ा बलवान् होने पर भी बाढ़ के जल में बह जाता है; क्योंकि वह जंगल के शरण होता है। अगर जल मछली का त्याग कर भगा दे तो वह कहाँ जायगी। इस तरहसे भगवान के चरणों के शरण होनेपर भक्त खुला, स्वतन्त्र हो जाता है। उसको खुद की कोई चिन्ता नहीं होती कि कैसे निर्वाह होगा, मरने के बाद क्या होगा, आदि। उसकी सब चिन्ता भगवान करते हैं। वह निश्चिन्त, निर्भय हो जाता है।
अंत में मैं भगवान श्री कृष्ण जी का वंदना करते हुए विराम देना चाहता हूं —
भजे व्रजैक मण्डनं समस्त पाप खण्डनम्
स्वभक्त चित्त रञ्जनं सदैव नन्द नन्दनम्।
सुपिच्छ गुच्छ मस्तकं सुनाद वेणु हस्तकम्
अनङ्ग रङ्ग सागरं नमामि कृष्ण नागरम् ॥
मनोज गर्व मोचनं विशाल लोल लोचनम्
विधूत गोप शोचनं नमामि पद्म लोचनम्।
करारविन्द भूधरं स्मितावलोक सुन्दरम्
महेन्द्र मान दारणं नमामि कृष्ण वारणम्।।