जानें क्या है माँ तारा और बामा खेपा का रिश्ता, क्यों प्रसिद्ध है तारापीठ ?

Sooraj Krishna Shastri
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 जानें क्या है माँ तारा और बामा खेपा का रिश्ता, क्यों प्रसिद्ध है तारापीठ ? माँ तारा के अनन्य भक्त व महान तांत्रिक वामाचरण ( वामाक्षेपा ) का इतिहास


जानें क्या है माँ तारा और बामा खेपा का रिश्ता, क्यों प्रसिद्ध है तारापीठ ?


1. जन्म और प्रारंभिक जीवन

पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव में वामा चरण नामक बालक का जन्म हुआ। बाल्यावस्था में ही उनके पिता का देहांत हो गया और परिवार पर आर्थिक संकट आ गया। माता भी अत्यंत गरीब थीं, अतः वामा चरण और उनके भाई को मामा के घर भेज दिया गया।

जानें क्या है माँ तारा और बामा खेपा का रिश्ता, क्यों प्रसिद्ध है तारापीठ ?
जानें क्या है माँ तारा और बामा खेपा का रिश्ता, क्यों प्रसिद्ध है तारापीठ ?


मामा का घर तारापीठ के समीप था, लेकिन वहाँ भी उन्हें उचित स्नेह और देखभाल नहीं मिली। धीरे-धीरे वामा चरण का मन सांसारिक गतिविधियों से हटकर साधु-संतों की संगति में रमने लगा। विशेषकर, वे गाँव के श्मशान घाट पर आने वाले साधुओं के साथ समय बिताने लगे।


2. ‘बड़ी माँ’ और ‘छोटी माँ’

श्मशान में साधु-संगत और तांत्रिक अनुष्ठानों को देखते-देखते उनका मन माँ तारा की ओर आकृष्ट हो गया। वे अपनी जन्मदात्री माता को "छोटी माँ" और देवी तारा को "बड़ी माँ" कहकर संबोधित करने लगे।

उनका स्वभाव बालसुलभ, सरल और अनगढ़ था। कभी वे जलती चिता के पास बैठ जाते, कभी हवा से बातें करते। गाँव वाले उन्हें "पागल" कहने लगे और उनका नाम बामाखेपा पड़ गया — "बामा" यानी वामा चरण और "खेपा" यानी पागल।


3. माँ तारा का प्रत्यक्ष दर्शन

एक विशेष रात, भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार का दिन — जो तारा साधना के लिए अत्यंत सिद्ध मुहूर्त था — वामाखेपा श्मशान में जलती चिता के पास बैठे थे। अचानक नीले आकाश से दिव्य प्रकाश फैला और उसमें माँ तारा का अद्भुत स्वरूप प्रकट हुआ—

  • कमर में बाघ की खाल,
  • एक हाथ में कैंची, एक में खोपड़ी,
  • एक में नीला कमल, और एक में खड्ग,
  • नीलवर्णी देह, खुले केश, महावर लगे चरण,
  • मंद मुस्कान से युक्त परम सौंदर्य की प्रतिमूर्ति।

माँ तारा ने उनके सिर पर हाथ रखा और वे समाधि में चले गए। तीन दिन और तीन रात वे उसी समाधि में श्मशान में बैठे रहे।


4. पुजारी बनने की घटना

कुछ समय बाद, तारापीठ की रानी को स्वप्न में माँ तारा ने आदेश दिया—

“श्मशान के पास मेरे लिए मंदिर बनाओ और बामा को उसका पुजारी नियुक्त करो।”

रानी ने वैसा ही किया। लेकिन पारंपरिक पंडितों को यह मंजूर न था, क्योंकि बामाखेपा की पूजा पद्धति बिल्कुल अलग थी।


5. प्रसाद चखने का विवाद और माँ से रूठना

एक दिन प्रसाद बनकर आया तो बामाखेपा ने सोचा कि माँ को देने से पहले स्वाद चख लें। उन्होंने थाली से थोड़ा खाकर बाकी माँ को अर्पित कर दिया। पंडितों ने इसे अपराध बताया और भीड़ ने मिलकर उनकी पिटाई कर दी, फिर उन्हें श्मशान में फेंक दिया।

आहत बामाखेपा ने माँ से कहा—

“मैंने तेरे लिए स्वाद चखा, फिर भी तूने मुझे पिटवा दिया? अब मैं तेरे पास नहीं आऊँगा।”

वे जंगल की एक गुफा में चले गए।


6. माँ तारा का क्रोध और रानी का आदेश

उसी रात माँ तारा ने रानी को स्वप्न में डांटा—

“मेरे पुत्र को मारने का पाप तेरे राज्य को भोगना पड़ेगा। यदि बचना चाहती है तो कल ही उसे वापस लाकर मंदिर की सेवा सौंप।”

अगले दिन रानी स्वयं गुफा में पहुँची, बामाखेपा को मनाया और आदेश दिया—

  • वे अपनी इच्छा और विधि से पूजा करें,
  • कोई भी उनके कार्य में हस्तक्षेप न करे।

7. अलौकिक घटनाएँ

(क) नदी पर चलकर माँ का दाह संस्कार

जब उनकी "छोटी माँ" का निधन हुआ, बाढ़ के कारण नदी पार करना असंभव था। नाविक ने भी नाव देने से इंकार किया। तब बामाखेपा ने माँ का शव उठाया और जल की सतह पर चलते हुए नदी पार की और दाह संस्कार किया।

(ख) 20 गाँव का मृत्यु भोज

बिना साधनों के ही उन्होंने 20 गाँव के लोगों को मृत्यु भोज का निमंत्रण दिया। आश्चर्यजनक रूप से बैलगाड़ियों में अनाज और सब्जियों के ढेर स्वयं आने लगे। भोजन स्थल पर घनघोर वर्षा होने लगी, पर बामाखेपा ने बाँस से एक घेरा बनाकर वर्षा को रोक दिया। भोजन समाप्त होते ही उन्होंने प्रार्थना की और आकाश तुरंत साफ हो गया।


8. भक्ति का अद्वितीय रूप

बामाखेपा कभी भी बिना चखे माँ को भोग नहीं लगाते थे। उनकी पूजा का कोई निश्चित समय नहीं था—

  • कभी सुबह 4 बजे, कभी दोपहर,
  • कभी पूरी रात, तो कभी कई दिन अनुपस्थित।

फिर भी, भक्तों का विश्वास था कि माँ तारा स्वयं उनके हाथ से भोजन ग्रहण करती हैं।


9. अंतिम समय और विरासत

जीवन के अंतिम समय में बामाखेपा माँ तारा की प्रतिमा में लीन हो गए। आज भी तारापीठ मंदिर में माँ तारा के भोग से पहले बामाखेपा का भोग अनिवार्य रूप से लगाया जाता है।


10. निष्कर्ष

बामाखेपा और माँ तारा का रिश्ता केवल भक्त-भगवती का नहीं था, बल्कि माँ-बेटे का था। उनकी लीला आज भी तारापीठ में जीवित है—जहाँ तांत्रिक साधना, भक्ति, और माँ के प्रति निष्कपट प्रेम का अद्वितीय संगम देखने को मिलता है।


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