Compassion ही True Success: संस्कृत श्लोक "यो नात्मजे न च गुरौ न च भृत्यवर्गे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
"मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल जीवित रहना या जीविका कमाना नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति पुत्र, गुरु, सेवक, दीन और बंधुजनों के प्रति दया और करुणा नहीं करता, तो उसके जीवन का कोई फल नहीं। केवल दीर्घायु पाना ही जीवन का लक्ष्य होता, तो कौआ भी अर्पित भोग खाकर लंबा जीता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि करुणा, सहानुभूति और अपनापन ही मानवता का सच्चा मूल्य है। जानें इस श्लोक का अर्थ, शब्दार्थ, व्याकरण, आधुनिक संदर्भ और नीति कथा के माध्यम से जीवन का वास्तविक संदेश।"
📜 मूल श्लोक (Devanagari)
🔤 अंग्रेज़ी ट्रान्सलिटरेशन (IAST)
🇮🇳 हिन्दी अनुवाद
"जो व्यक्ति अपने पुत्र, गुरु, सेवक, दीन-दुखियों और बंधुजनों के प्रति दया और स्नेह नहीं करता, उस मनुष्य के जीवन का क्या फल? केवल जीवित रहना ही यदि जीवन का उद्देश्य होता, तो कौवा भी तो अर्पित भोग खाकर दीर्घजीवी बना रहता।"
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Compassion ही True Success: संस्कृत श्लोक "यो नात्मजे न च गुरौ न च भृत्यवर्गे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
🪔 शब्दार्थ
- यो — जो
- न आत्मजे — पुत्र के प्रति नहीं (स्नेह रखने वाला)
- न च गुरौ — गुरु के प्रति नहीं (आदर रखने वाला)
- न च भृत्यवर्गे — सेवक वर्ग के प्रति नहीं (करुणा रखने वाला)
- दीने — दीन (निर्बल, गरीब)
- दयाम् न कुर्वते — दया नहीं करता
- न च बन्धुवर्गे — न बंधु-बांधवों के प्रति (स्नेह करता)
- किं तस्य जीवनफलेन — उसके जीवन के फल का क्या प्रयोजन?
- मनुष्यलोके — इस मनुष्य-लोक में
- काकः अपि — कौवा भी
- चिराय जीवति — लंबे समय तक जीवित रहता है
- बलिं च भुङ्क्ते — अर्पित भोग को खाता है
📖 व्याकरणात्मक विश्लेषण
- यो → सम्बन्धवाचक सर्वनाम (Relative pronoun) – "जो"
- न आत्मजे, न च गुरौ, न च भृत्यवर्गे → सप्तमी विभक्ति (locative) प्रयोग, संबंध का द्योतक।
- दयाम् न कुर्वते → "कुर्वते" लट् लकार (Present tense, parasmaipada, 3rd person singular)।
- किं तस्य जीवनफलेन → "फलेन" तृतीया विभक्ति (instrumental), "फल" = प्रयोजन/उपलब्धि।
- मनुष्यलोके → सप्तमी विभक्ति, स्थानवाचक।
- काकोऽपि जीवति → "जीवति" लट् लकार, 3rd singular.
- भुङ्क्ते → "भुज्" धातु, आत्मनेपद, 3rd singular, वर्तमान काल।
➡ व्याकरणिक दृष्टि से यह श्लोक एक "शर्त-न्याय" प्रस्तुत करता है — यदि जीवन का उद्देश्य केवल जीवित रहना होता, तो वह किसी भी प्राणी के लिए पर्याप्त है, किंतु मनुष्य की विशेषता करुणा और कर्तव्य है।
🌍 आधुनिक संदर्भ
आज के समय में:
- परिवार के प्रति स्नेह, गुरुजनों के प्रति आदर, कर्मचारियों/सहकर्मियों के प्रति सहानुभूति, गरीब और असहायों के प्रति करुणा, तथा रिश्तेदारों के प्रति अपनापन — यही मानवता के वास्तविक मापदंड हैं।
- केवल पैसा कमाना, भौतिक साधन जुटाना या दीर्घजीवन पाना ही यदि उद्देश्य है, तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता।
- "कॉर्पोरेट संस्कृति" में भी यह श्लोक संदेश देता है: बॉस का मूल्य उसके संवेदनशील नेतृत्व से है, न कि केवल उसके लाभ-हानि के हिसाब से।
🗣 संवादात्मक नीति कथा
शिष्य: "गुरुदेव, लोग तो केवल धन कमाने और लंबा जीवन पाने की ही चिंता करते हैं। क्या यही जीवन का लक्ष्य है?"
गुरु: "नहीं वत्स! यदि धन और आयु ही जीवन का उद्देश्य होता, तो कौवा भी तो भोग खाकर लंबा जीता है। किंतु मनुष्य का गौरव उसकी करुणा, दया और स्नेह में है।"
शिष्य: "तो जीवन का सच्चा फल क्या है?"
गुरु: "पुत्र में स्नेह, गुरु में आदर, सेवकों में दया, असहायों में सहानुभूति और बंधुओं में अपनापन। यही जीवन का सच्चा मूल्य है।"
✅ निष्कर्ष
यह श्लोक हमें सिखाता है कि:
- जीवन का उद्देश्य केवल जीवित रहना नहीं है, बल्कि दूसरों के प्रति संवेदनशील होना है।
- मानवता का सार करुणा, सहानुभूति और संबंधों में है।
- जो व्यक्ति यह नहीं निभाता, वह कौए के समान केवल दीर्घायु तो हो सकता है, पर सार्थक जीवन नहीं जी सकता।
👉 अतः, "दया ही धर्म का मूल है, और करुणा ही मानव जीवन का सबसे बड़ा फल है।"