Krishna Janmashtmi Special: श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत कथा (संस्कृत श्लोक और हिन्दी अनुवाद सहित)
मूल संस्कृत पाठ
तद्व्रतकथा यथा —
एकदा श्रीकुलाचार्य्यं वशिष्ठमृषिसत्तमम् ।राजा दिलीपः पप्रच्छ विनयावनतः सुधीः ॥दिलीप उवाच —भाद्रे मास्यसिते पक्षे यस्यां जातो जनार्द्दनः ।तत्कथां श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महामुने ॥कथं वा भगवान् जातः शङ्खचक्रगदाधरः ।देवकीजठरे विष्णुः किं कर्त्तुं केन हेतुना ॥वशिष्ठ उवाच —शृणु राजन् ! प्रवक्ष्यामि यस्माज्जातो जनार्द्दनः ।पृथिव्यां त्रिदिवं त्यक्त्वा भवते कथयाम्यहम् ॥पुरा वसुन्धरा ह्यासीत् कंसाराघनतत्परा ।स्वाधिकारप्रमत्तेन कंसदूतेन ताडिता ॥क्रन्दन्ती लज्जिता सापि ययौ घूर्णितलोचना ।यत्र तिष्ठति देवेश उमाकान्तो वृषध्वजः ॥
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Krishna Janmashtmi Special: श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत कथा (संस्कृत श्लोक और हिन्दी अनुवाद सहित) |
कंसेन ताडिता नाथ ! इति तस्मै निवेदितम् ।वास्पधारां प्रवर्षन्तीं विवर्णामपमानिताम् ॥क्रन्दन्तीं तां समालोक्य कोपेन स्फुरिताधरः ।उमया सहितः सर्व्वैर्द्देववृन्दैरनुद्रुतः ॥आजगाम महादेवो विधातुर्भवनं रुषा ।गत्वा चोवाच ब्रह्माणं कंसध्वंसनिमित्तकम् ॥उपायः सृज्यतां ब्रह्मन् ! भवता विष्णुना सह ।ऐश्वरं तद्बचः श्रुत्वा गन्तुं प्राक्रामदात्मभूः ॥क्षीरोदे यत्र वैकुण्ठः सुप्तः स भुजगोपरि ।हंसपृष्ठे समारुह्य हरेरन्तिकमाययौ ॥तत्र गत्वा हरिं ध्यात्वा देववृन्दैर्हरादिभिः ।तुष्टाव भगवान् वाग्भिरर्थ्याभिर्व्वाग्विदाम्बरः ॥नमः कमलनेत्राय हरये परमात्मने ।जगतः पालयित्रे च लक्ष्मीकान्त ! नमोऽस्तु ते ॥नमः कमलकिञ्जल्कपीतनिर्म्मलवाससे ।नमः समस्तदेवानामधिपाय महात्मने ॥नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।इति तेभ्यः स्तुतीः श्रुत्वा प्रत्युवाच जनार्द्दनः ।देवा नम्रमुखाः सर्व्वे भवतामागमः कथम् ॥
हिन्दी अनुवाद
एक समय, श्रीकुलाचार्य वशिष्ठ मुनि के पास राजा दिलीप, विनम्रता से नतमस्तक होकर, आदरपूर्वक बोले—
प्राचीन काल में, पृथ्वी कंस जैसे अधर्मी और निर्दयी अत्याचारी से पीड़ित थी। उसका दूत, अपने अधिकार के अभिमान में मदांध होकर, भूमि पर प्रजा का शोषण कर रहा था।
अपमान और पीड़ा से आहत पृथ्वी, नेत्र चकराते हुए, रुलाई भरे स्वर में, उस स्थान पर पहुँची जहाँ देवों के स्वामी, उमा के प्रिय, वृषध्वज (शिवजी) स्थित थे।
पृथ्वी ने शिवजी से कहा—"नाथ! मैं कंस के द्वारा पीड़ित हो रही हूँ।" वह आँसू बहाती हुई, रंगहीन और अपमानित-सी खड़ी रही।
पृथ्वी के विलाप को देखकर महादेव का अधर क्रोध से फड़क उठा। वे उमा के साथ और सभी देवताओं के समूह के साथ, क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी के भवन में पहुँचे।
शिवजी ने ब्रह्मा से कहा—"हे ब्रह्मन्! कंस के विनाश के लिए कोई उपाय सोचो, और विष्णु के साथ मिलकर इसका निवारण करो।"
ब्रह्मा ने यह ऐश्वर्ययुक्त वचन सुनकर, क्षीरसागर की ओर प्रस्थान किया, जहाँ वैकुण्ठपति भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन कर रहे थे।
हंसवाहन पर आरूढ़ होकर ब्रह्मा, विष्णु के समीप पहुँचे। वहाँ जाकर, देवगणों के साथ, हरि का ध्यान कर, ब्रह्माजी ने उन्हें अर्थपूर्ण और भावयुक्त स्तुतियों से प्रसन्न किया—
इन स्तुतियों को सुनकर भगवान जनार्दन ने कहा—"हे देवगण! आप सब विनम्र मुख से यहाँ क्यों आए हैं?"
भावार्थ व पृष्ठभूमि
यह अंश जन्माष्टमी व्रत कथा की प्रस्तावना है। इसमें स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतार केवल एक दिव्य लीला नहीं, बल्कि पृथ्वी के आर्त पुकार, देवताओं के निवेदन, और अधर्म के नाश के लिए किया गया दैवीय संकल्प था।
- पृथ्वी का कंस-पीड़न — अत्याचार की पराकाष्ठा होने पर धर्म की रक्षा के लिए स्वयं विष्णु का अवतरण आवश्यक हुआ।
- त्रिदेव की भूमिका — शिवजी ने मध्यस्थता की, ब्रह्माजी ने उपाय सुझाया और अंततः विष्णु को अवतरण के लिए आमंत्रित किया।
- विष्णु की स्तुति — देवगणों ने विष्णु की महिमा का गान कर, उनसे अवतार का अनुरोध किया।
- आगामी प्रसंग की भूमिका — इसके बाद कथा में विष्णु अवतार स्वीकार करते हैं और देवकी के गर्भ में प्रकट होते हैं।
मूल संस्कृत पाठ
ब्रह्मोवाच —
शृणु देव ! जगन्नाथ ! यस्मादस्माकमागमः ।कथयामि सुरश्रेष्ठ ! तदहं लोकतारण ! ॥शूलिदत्तवरोन्मत्तः कंसराजो दुरासदः ।वासुधा ताडिता तेन पदाघातेन मुष्टिना ॥वरं दत्त्वा पुराप्युग्रो मायया स प्रवञ्चितः ।भागिनेयं विना राजन् ! शास्ता न भविता तव ॥तस्माद्गच्छ स्वयं देव ! हन्तुं कंसं दुरासदम् ।देवकीजठरे जन्म लभ गत्वा च गोकुलम् ॥ब्रह्मणा प्रेषितो विष्णुः प्रत्युवाच पशोः पतिम् ।पार्व्वतीं देहि देवेश ! अब्दं स्थित्वागमिष्यति ॥उमया रमया सार्द्धं शङ्खचक्रगदाधरः ।उद्दिश्य मथुरां चक्रे प्रयाणं कंसनाशनम् ॥देवकीजठरे जन्म लेभे विष्णुर्गदाधरः ।यशोदाकुक्षिमध्ये तु सर्व्वाणी मृगलोचना ॥नव मांसांश्च विश्राम्य कुक्षौ नवदिनाधिकान् ।भाद्रे मास्यसिते पक्षे अष्टमीसंज्ञया तिथौ ॥रोहिणीतारकायुक्ता रजनी धनघोरिता ।घूमयोनौ तडिद्युक्ते वारि वर्षति सर्व्वदा ॥तस्यां जातो जगन्नाथः कंसारिर्व्वसुदेवजः ।वैराटे नन्दपत्नी च यशोदाजीजनत् सुताम् ॥पुत्त्रं पद्मकरं पद्मनाभं पद्मदलेक्षणम् ।रम्यं चतुर्भुजं शान्तं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥तदा क्रन्दितुमारेभे दृष्ट्वा चानकदुन्दुभिः ।तत्रैव वाण्यभूद्दैवी देवकीमात्रगोचरा ॥पुत्त्रं दत्त्वा यशोदायै कन्यां तस्याः समानय ।कंसासुरभयात्तं हि उवाच देवकी तदा ॥वैराटं गच्छ विप्रेन्द्र ! सुतं प्रत्यर्पितुं प्रभो ! ।पुत्त्रं दत्त्वा यशोदायै सुतां तस्याः समानय ॥तां दृष्ट्वा कंसराजोऽपि सभायां न हनिष्यति ।तस्या वचः समाकर्ण्य वसुदेवोऽतिदुःखितः ॥अङ्के कुमारमादाय वैराटाभिमुखं ययौ ।यमुना जलसंपूर्णा तत्पथे मध्यवर्त्तिनी ॥अतिश्रोता महावीर्य्या सुतीक्ष्णोर्म्मिभयाकुला ।तां दृष्ट्वा तत्तटे स्थित्वा यमुनामवलोकयन् ॥वसुदेवोऽतिदुःखार्त्तो विलोलचेतनोऽभवत् ।किं करोमि क्व गच्छामि विधिनात्रापि वञ्चितः ॥
हिन्दी अनुवाद
शिवजी के दिए वर से उन्मत्त, कंसराज अत्यंत दुर्जेय हो गया है। उसने अपने पैर और मुट्ठी के प्रहार से धरती को पीड़ित कर दिया है।
पूर्वकाल में दिए गए वर के कारण, वह मायावी होकर यह शर्त रख बैठा है कि ‘हे राजा! जब तक तुम्हारा बहनोई (भागिनेय) जीवित रहेगा, तब तक तुम्हारा शासन सुरक्षित रहेगा।’
इसलिए, हे देव! आप स्वयं जाकर इस दुष्ट कंस का वध कीजिए। देवकी के गर्भ में जन्म लेकर गोकुल चले जाइए।
ब्रह्मा के आदेश से विष्णु ने पशुपति (शिवजी) से कहा—‘हे देवेश! पार्वतीजी को दीजिए, मैं एक वर्ष रहकर लौट आऊँगा।’
फिर, उमा और लक्ष्मी के साथ, शंख, चक्र और गदा धारण किए हुए विष्णु, मथुरा की ओर कंस के वध के संकल्प से चल पड़े।
विष्णु ने देवकी के गर्भ में जन्म लिया। उधर यशोदा, मृगनयनी सर्वाणी के समान, अपने गर्भ में विश्राम कर रही थीं।
नौ मास और कुछ दिन के पश्चात, भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र के योग में, घोर वर्षा और गर्जन-तडित से युक्त रात्रि में भगवान प्रकट हुए।
उस घड़ी जगन्नाथ, कंसारि वसुदेवजी के पुत्र रूप में जन्मे। उसी समय नन्दराज की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया।
वह बालक कमल के समान कोमल, कमलनाभ, कमलदल-नयन, चतुर्भुज, शांत, शंख-चक्र-गदाधारी, रमणीय रूप वाला था।
कंसासुर के भय से देवकी ने वसुदेवजी से यही कहा—‘हे विप्रश्रेष्ठ! विराट (गोकुल) जाओ, पुत्र देकर कन्या ले आओ। कंस उसे देख भी ले तो सभा में नहीं मारेगा।’
यह वचन सुनकर वसुदेवजी अत्यंत दुःखी हुए। उन्होंने शिशु को गोद में लिया और गोकुल की ओर चल पड़े।
रास्ते में यमुना नदी पूर्ण जल से भरी हुई, प्रवाह में तीव्र, प्रचंड लहरों से भयानक प्रतीत हो रही थी।
नदी के तट पर खड़े होकर, उसे देखते हुए वसुदेवजी दुःख से विचलित हो गए और मन ही मन बोले—‘अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? लगता है विधाता ने यहाँ भी मुझे धोखा दिया है।’
भावार्थ
यह अंश भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का दैवीय प्रसंग और वसुदेवजी की कठिन यात्रा का प्रारंभिक दृश्य है।
- कंस का अत्याचार — शिव के वरदान से बलवान और मायावी कंस ने धरती को पीड़ा दी।
- देवताओं का निवेदन — ब्रह्मा और देवताओं ने विष्णु से अवतार लेकर कंस-वध का अनुरोध किया।
- अवतार का संकल्प — विष्णु ने देवकी के गर्भ में जन्म लेने का निश्चय किया।
- जन्म का समय — भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र, आधी रात, घोर वर्षा और बिजली के साथ दिव्य प्रकट होना।
- कथा का मोड़ — जन्म के तुरंत बाद, शिशु को सुरक्षित गोकुल ले जाने की योजना बनी, जिससे आगे यमुना पार करने की अद्भुत लीला घटित होती है।
मूल संस्कृत पाठ
कथमद्य गमिष्यामि वैराटे नन्दमन्दिरम् ।हरिणा तत्र सानन्दं मायया वञ्चितः पिता ॥क्षणमात्रं तटे स्थित्वा यमुनामप्यलोकयत् ।तेन दृष्टा पुनः सापि क्षीणा जानुवहाभवत् ॥ततः सोऽपि पुरो दृष्ट्वा धावन्तं खलु जम्बुकम् ।क्रोडे कृत्वा सुतं स्वैरं गन्तुं पारं प्रचक्रमे ॥तं दृष्ट्वा हृष्टचित्तन्तु भगवान् यमुनाजले ।मायां कृत्वा जगन्नाथो ह्यङ्कात् स पतितः पितुः ॥तं सुतं पतितं दृष्ट्वा सूर्यजाजीवने द्विजः ।तदा क्रन्दितुमारेभे भाले घात्वा करं दृढम् ॥विधिना वैरिणा ह्यत्र दुःखितोऽहं प्रवञ्चितः ।त्राहि मां जगतां नाथ ! पुत्त्रं देहि सुरोत्तम ! ॥जनकं क्रन्दितं दृष्ट्वा कंसारिः कृपया विभुः ।जलक्रीडां समाचर्य पितुरङ्केऽवसत् पुनः ॥पथा तेन द्विजश्रेष्ठो गतवान्नन्दमन्दिरम् ।सुतं दत्त्वा यशोदायै सुतां तस्याः समानयत् ॥सुतामङ्के तथा सोऽपि गृहीत्वानकदुन्दुभिः ।निजागारं पुनः प्राप्य प्रत्यर्प्य तादृशीं सुताम् ॥प्रतियुज्य पदे लोहमासीत् पूर्ववदावृतः ।देवकी च प्रसूतेति वार्ता प्राप्ता सुरारिणा ॥आनेतुं प्रहितो दूतः सुतं दुहितरञ्च वा ।आगत्य कंसदूतोऽसौ सुतां नेतुं प्रचक्रमे ॥बलादङ्कात् समाकृष्य देवकीवसुदेवयोः ।कंसदूतो गृहीत्वा तां कंसायादर्शयत् पुनः ॥
हिन्दी अनुवाद
क्षणभर यमुना के तट पर खड़े होकर उन्होंने नदी को देखा। तब यमुना, उन्हें देखकर, धीरे-धीरे घटकर घुटनों तक हो गई।
फिर उन्होंने आगे एक लोमड़ी (जम्बुक) को दौड़ते देखा। शिशु को गोद में लेकर वे निःशंक होकर नदी पार करने लगे।
परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने, यमुना के जल में, अपनी लीला करते हुए, पिताजी की गोद से छलाँग लगा दी।
पिता को रोता देख, कंसारि भगवान ने करुणा से, थोड़ी जलक्रीड़ा की और फिर पुनः पिताजी की गोद में आकर बैठ गए।
इस प्रकार द्विजश्रेष्ठ वसुदेव, उसी मार्ग से होकर नन्दमन्दिर पहुँचे। वहाँ उन्होंने पुत्र को यशोदा के पास रखा और उनकी कन्या को उठा लिया।
उस कन्या को अंक में लेकर वसुदेवजी ने अपने घर लौटकर, देवकी के पास वही कन्या रख दी।
फिर कारागृह का द्वार पुनः लोहे की जंजीरों से पूर्ववत बन्द हो गया।
उधर कंस को समाचार मिला — "देवकी ने संतान को जन्म दिया है।"
तब उसने एक दूत भेजा कि वह पुत्र या पुत्री जो भी हो, ले आए।
दूत आया और देवकी-वसुदेव की गोद से बलपूर्वक कन्या को छीनकर कंस के पास ले गया।
भावार्थ
यह अंश वसुदेवजी की यमुना पार की अद्भुत यात्रा और कृष्ण-यशोदा पुत्र-कन्या अदला-बदली लीला को दर्शाता है।
- यमुना का घट जाना — भगवान के प्रति अनुराग से यमुना ने मार्ग दिया।
- बालक का जल में क्रीड़ा करना — यह श्रीकृष्ण की शैशवकालीन अद्भुत लीला का प्रथम संकेत है, जिसमें वे पिता को भी चकित करते हैं।
- गोकुल में अदला-बदली — देवकी के पुत्र कृष्ण को यशोदा के पास रखना और यशोदा की कन्या (योगमाया) को लेकर कारागृह लौटना।
- कंस का आदेश — जन्म की सूचना पाकर कंस ने तुरन्त कन्या को मँगवाया, जिससे आगे पूतन-वध और अन्य बाल-लीलाओं की प्रस्तावना तैयार होती है।
मूल संस्कृत पाठ
दृष्ट्वा तां कंसराजोऽपि सभयोऽभूद्दुरासदः ।शुद्धकाञ्चनवर्णाभां पूर्णेन्द्वसदृशाननाम् ॥दृष्ट्वा कंसो विहस्यन्तीं विद्युत्स्फुरितलोचनाम् ।आदिदेशासुरश्रेष्ठो वध नीत्वा शिलोपरि ॥आज्ञां लब्ध्वासुरास्ते तु निष्पेष्टुं तां प्रवर्त्तिताः ।विद्युद्रूपधरा गौरी जगाम शङ्करान्तिकम् ॥अन्तरीक्षे क्षणं स्थित्वा कंसं प्रोवाच शङ्करी ।त्वां हन्तुं गोकुले जातः पूर्वशत्रुर्न संशयः ॥तत्रातिष्ठज्जगन्नाथः कंसारिः सुरकृत्यकृत् ।क्रीडित्वा बालभावेन कंसध्वंसे मनो दधौ ॥प्राप्तिमात्रेण तं कंसं जघान जगदीश्वरः ।एतत्ते कथितं राजन् ! कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ॥य इदं कुरुते राजन् ! या च नारी हरेर्व्रतम् ।प्राप्नोत्यैश्वर्य्यमतुलमिह लोके यथेप्सितम् ॥अन्तकाले हरेः स्थानं दुर्ल्लभञ्च गमिष्यति ।एकेनैवोपवासेन कृतेन कुरुनन्दन ! ॥सप्तजन्मकृतात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।वत्सरद्वादशे चैव यत् पुण्यं समुपार्जितम् ॥विफलं तद्भवेत् सर्वं पुरा व्यासेन भाषितम् ।न द्रष्टव्यं सुखं तेषां नराणां न च योषिताम् ॥जयन्ती न कृता यैस्तु जागरादिसमन्विता ।श्वानश्चैते तु विज्ञेया जयन्तीविमुखा नराः ॥योषितश्च न सन्देहः सत्योक्तं तव सुव्रते ॥
हिन्दी अनुवाद
जब असुरों ने आदेश पाया और उसे कुचलने का प्रयास किया, उसी क्षण वह कन्या विद्युत् समान तेजोमयी गौरी के रूप में प्रकट हुई और शिवजी के समीप चली गई।
फिर भगवान जगन्नाथ (कृष्ण), जो देवों के कार्यों को पूर्ण करने वाले हैं, गोकुल में बालरूप में क्रीड़ालीन रहते हुए, कंस-वध का संकल्प करने लगे।
समय आने पर उन्होंने कंस का वध किया।
ऐसे पुरुष (और स्त्रियाँ) जो जयन्ती व्रत से विमुख हैं, उन्हें श्वान के समान अज्ञान और निचले जीवन का भागी समझना चाहिए — यह सत्य है, हे सुव्रते।
भावार्थ
- योगमाया का प्राकट्य — कंस जिस कन्या को मारने जाता है, वह वास्तव में योगमाया है। वह शिवजी के पास जाकर कंस को चेतावनी देती है कि कृष्ण जन्म ले चुके हैं।
- कंस का अंत पूर्व-निर्धारित — भगवान ने बाल्यकाल में ही कंस-वध का संकल्प कर लिया था और समय आने पर इसे पूरा किया।
- व्रत का महात्म्य —
- जन्माष्टमी व्रत से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
- बारह वर्षों तक किए गए पुण्य कर्मों से अधिक फल इस व्रत से मिलता है।
- जागरण सहित व्रत करने वालों को ही यह फल प्राप्त होता है।
- व्रत न करने वालों को जीवन में सुख प्राप्त नहीं होता।