अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।

Sooraj Krishna Shastri
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अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।

अखिल  बिस्व यह मोर उपाया । सब  पर  मोहि  बराबरि  दाया।।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया।।

अर्थात्, भगवान श्री राम ने इस समस्त संसार को बनाया है और सभी पर उनकी कृपा रहती है। जो मनुष्य माया और अभिमान को त्याग कर वचन, मन और शरीर से उनका पूजन करते हैं वो भक्त और सेवक उन्हें उनके प्राणों से भी प्यारे होते है।

"सब पर मोहि बराबरि दाया"

 भगवान सभी पर समान रूप से दया करते हैं, किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते।

"तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया"

 बताता है कि जो लोग अहंकार (मद) और माया (भ्रम) को त्याग देते हैं, वे भगवान के प्रिय होते हैं। और अंत में,

"भजै मोहि मन बच अरू काया"

 कि जो लोग मन, वचन और शरीर से भगवान की भक्ति करते हैं। वह

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।


 सब भगवान को प्रिय होते हैं ।

समोऽहं  सर्वभूतेषु  न  मे  द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

 ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥

 भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि मैं सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित हूँ, सृष्टि में न किसी से द्वेष रखता हूँ, और न ही कोई मेरा प्रिय है, परंतु जो मनुष्य शुद्ध भक्ति-भाव से मेरा स्मरण करता है, तब वह मुझमें स्थित रहता है और मैं भी निश्चित रूप से उसमें स्थित रहता हूँ।

या  निशा  सर्वभूतानां  तस्यां  जागर्ति संयमी।

  यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।

जिनकी इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं हैं, जो भोगों में आसक्त है, वे सब परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। परमात्मा क्या है? तत्त्वज्ञान क्या है? हम दुःख क्यों पा रहे हैं? सन्ताप जलन क्यों हो रही है? हम जो कुछ कर रहे हैं? उसका परिणाम क्या होगा?  इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है, उनके लिये बिलकुल अँधेरा है।

यहाँ "भूतानाम्" कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पशु-पक्षी आदि दिनभर खाने-पीनेमें लगे रहते हैं, ऐसे ही जो मनुष्य रातदिन खाने-पीनेमें, सुख-आराममें, भोगों और संग्रहमें, धन कमानेमें ही लगे हुए हैं, उन मनुष्यों की गणना भी पशु-पक्षी आदि में ही है। कारण कि परमात्मतत्त्व से विमुख रहने में पशुपक्षी आदि में और मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। हाँ, अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशु-पक्षी आदिमें विवेक-शक्ति जाग्रत् नहीं है।

जो पुरूष इस संसार में भोग पदार्थों को भोग-भोग कर थक चुका है तथा जिसे समझ में आने लगा है कि यह संसार दुःख स्वरूप व बन्धन ही है, ऐसे पुरूष के लिए मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान तथा वासना रहित बनने का ज्ञान शांति  प्रदान करने वाला है।

वास्तव में जगत् रूपी पदार्थ अनिर्वचनीय हैं। इस जगत् को तत्त्वज्ञानी जैसा समझता है वैसा अज्ञानी पुरुष नहीं समझता है और जैसा अज्ञानी समझता है वैसा तत्त्वज्ञानी पुरुष नहीं समझता है अर्थात् अज्ञानी के लिए यह जगत् दुःख स्वरूप ही है। मगर तत्त्वज्ञानी के लिए यह जगत् चेतन ब्रह्म स्वरूप है

श्रीकृष्ण ने यहाँ दिन और रात का प्रतीकात्मक रूप में प्रयोग किया है।

लेकिन संसारिक लोगों ने उसका ग़लत अर्थ लगा कर अर्थ कोअनर्थ कर देते हैं 

एक संत सदा एक टांग पर खड़े रहने वाले तपस्वी थे। उनके शिष्य उन्हें सिद्ध पुरुष मानते थे। वह पैंतीस वर्ष तक सोये नहीं। वह अपने कक्ष में लटकती हुई रस्सी पर अपनी भुजाओं को रखकर विश्राम करते थे। वह स्थिरता से लगातार खड़े रहने के लिए रस्सी का प्रयोग करते थे। 

यह पूछे जाने पर कि इस प्रकार की कठोर तपस्या का क्या प्रयोजन है वह भगवद्गीता के इसी श्लोक को उद्धृत करते थे, "जिसे सभी जीव रात्रि समझते हैं वह आत्मसंयमी के लिए दिन है।" इसी का अभ्यास करते हुए उन्होंने रात को सोना छोड़ दिया। अब यह देखिए कि सांसारिक लोगों द्वारा इस महान त्याग का किस प्रकार से अनर्थ किया गया। निरंतर खड़े रहने से उनके पैरों और टांगों में सूजन आ गयी होगी और इसलिए वह शारीरिक रूप से खड़े रहने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे। 

आइए, अब श्रीकृष्ण के शब्दों का सटीक अर्थ समझने का प्रयास करें।

 वे जिनकी चेतना लौकिक है, वे सांसारिक सुखों को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य मानते हैं। वह लौकिक सुखों के अवसर को जीवन की सफलता अर्थात् दिन और लौकिक तथा इन्द्रिय सुख से वंचित होने को अंधकार अर्थात् रात समझते हैं।

दूसरी ओर जो दिव्य ज्ञान से युक्त होकर बुद्धिमान हो जाते हैं, वे मनुष्य इन्द्रियों के विषय भोगों को आत्मा के लिए हानिकारक मानते हैं। इसलिए वे इसे 'रात्रि' के रूप में देखते हैं। वे आत्मा के उत्थान के लिए इन्द्रियों के विषय भोगों से विरक्त रहते हैं और इसलिए वे रात्रि को 'दिन' के रूप मे देखते हैं। इन शब्दों का सांकेतिक रूप में प्रयोग कर श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि जो एक सिद्ध महापुरुष के लिए रात्रि है उसे सांसारिक लोग दिन मानते हैं और इसी प्रकार से जिसे सिद्ध महापुरुष दिन समझते हैं, वह उनके लिए रात्रि है।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

 ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता  भजन्ते  मां दृढव्रता: ।।

परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त दृढनिश्चयी भक्त मुझ को सब प्रकार से भजते हैं ।।

कृतकर्मक्षयो   नास्ति  कल्पकोटिशतैरपि ।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥

हर अच्छे और बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। 

कोई भी कर्म अपना फल प्रदान किए बिना अनंत काल अथवा कोटि जन्मों तक भी नष्ट नहीं होता। 

अर्थात अच्छे अथवा बुरे - जैसे भी कर्म हम करेंगे - उनका फल हमें कभी न कभी भोगना ही पड़ेगा। 

प्रकृति के इस नियम से कोई भी नहीं बच सकता। 

जैसे धरती में बीज डाल दिया जाए तो कलांतर में वह प्रफुल्लित हो कर वृक्ष का रुप धारण कर लेता है -

और समुचित समय आने पर स्वयंमेव ही वृक्षों पर फल और फूल निकल आते हैं। 

उसी प्रकार - जीवन में किये हुए अच्छे और बुरे कर्म भी अपने आप ही समय आने पर स्वतः ही अपना फल देने के लिए आते रहते हैं।

हर हरकत के मूल में, कारण सच्चा देख।

बिन कारण संसार में, पत्ता हिले न एक ॥

एक जैसी धरती पर हमने दो बीज  बोये, या दो पौधे  लगाए, एक गन्ने का , एक नीम का  । 

 धरती वहीं है। उन्हें वही पानी मिलता है। वही हवा है, वही रोशनी है। वही उर्वरक है, वही ऊर्जा है। वही खाद है और वे दोनों बीज फूटकर अंकुरित हुए, बाहर निकले, पौधे के रूप में बढ़े। अब क्या हो गया? इस गन्ने के पौधे को क्या हो गया? इसका रेशा-रेशा मीठा! उस नीम के पौधे को क्या हो गया? उसका रेशा-रेशा कड़ुआ, क्यों हुआ? यह प्रकृति,यह निसर्ग, यह कुदरत या यों कहें, यह परमात्मा , इसने एक पर तो बड़ी कृपा कर दी और दूसरे पर बड़ा कोप कर दिया? अरे, नहीं भाई, नहीं, धरम समझ में आने लगेगा तो खूब समझेगा कि कोई कृपा करने वाला नहीं है। कोई कोप करने वाला नहीं है। हम ही अपने आप पर कृपा करते हैं, हम ही अपने आप पर कोप करते हैं ।

बीज कै साथ प्रकृति तो यही काम करेगी।उस बीज का गुण, धर्म, स्वभाव कैसा है, उसे प्रकट कर देगी। गन्ने के पौधे का गुण, धर्म, स्वभाव मिठास ही मिठास से भरा हुआ, इस पौधे के रेशे-रेशे में । मिठास आ गया। नीम के बीज में गुण, धर्म, स्वभाव कड़ुआ पन ,खारेपन से भरा हुआ; रेशे-रेशे में खारापन आ गया।

उस नीम के पेड़ के पास कोई आये और बड़ी श्रद्धा के साथ उसे तीन बार नमस्कार करे ।धूप जलाये, दीप जलाये, नैवेद्य चढ़ाये, पुष्प चढ़ाये और बड़ी श्रद्धा के साथ उसकी एक सौ आठ फेरी दे और फिर हाथ जोड़ कर, डबडबाई आंखों से, कातर कंठ से प्रार्थना करे -ऐ नीम देवता,  तू मुझे मीठे-मीठे आम देना । सारी जिंदगी रोता रह जायेगा, वह नीम का पेड़ मीठे आम देने वाला नहीं है। मुझे मीठे आम की बहुत ख्वाहिश है तो बीज बोते समय सजग रहना था। नीम का बीज क्यों बोया? मीठे आम का बीज बोया होता। मैं मीठे आम का बीज बो दूं, फिर किसी के सामने डबडबाई आंखों से गिड़गिड़ाने की जरूरत नहीं। मीठा आम ही उपजने वाला है, उसमें से नीम निकल नहीं सकता।

फल वैसा ही पाइये, जैसा बोये बीज।

जब हमें कोई ऐसा सुझाव देता है या हम अपनी अज्ञान अवस्था में ऐसी बात अपने मन में धारण कर लेते हैं कि भाई, अमुक कर्मकांड करने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। अमुक दर्शनिक मान्यता मान लेने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। कोई पर्व, उत्सव मना लेने से, कोई व्रत, उपवास कर लेने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। तब ऐसा आदमी अपने कर्मों को सुधारने का काम ही क्यों करेगा? शुद्ध धर्म धारण करने का काम क्यों करेगा?

ये जो गलत रास्ते धर्म के विरुद्ध ले जाने वाले रास्ते हैं, जिस दिन यह समझ में आ जायगा कि मैं दुष्कर्म करूं तो मुझे दुष्फल से बचाने वाला कोई नहीं है, उस दिन वह दुष्कर्म से अपने आपको बचायेगा। हर कर्म करते हुए सजग रहेगा, कैसा बीज बो रहा हूं? जिस दिन यह समझ में आ जायगा कि मैं सत्कर्म करूं, तो सत्फल प्राप्त करने में कोई बाधा पैदा करने वाला नहीं । सत्फल आयेगा ही। तब खूब सजग रहेगा कि बीज कैसा बो रहा हूं!   बीज बोते समय सजग रहेगा तो फल की चिंता नहीं। बीज ठीक बो रहा है, फल ठीक आ रहे हैं। कर्म ठीक कर रहा है, तो कर्मफल ठीक ही आ रहे हैं।

धर्म की इतनी सीधी-सीधी बात, इतनी सरल बात। अरे, कहां उलझा दिया हमने? शुद्ध धर्म लोगों के समझ में आये । सत्कर्मों में लगें, दुष्कर्मों से बचें। अरे, अपना भी मंगल साध लेंगे, औरों के मंगल में भी सहायक हो जाएंगे।

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