Samyak Drishti – जब एक श्लोक ने Raja aur Chor ko बना दिया Sannyasi

Sooraj Krishna Shastri
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Samyak Drishti – जब एक श्लोक ने Raja aur Chor ko बना दिया Sannyasi

🌸 सम्यक् दृष्टि : आत्मबोध की एक प्रेरक कथा 🌸
(एक राजा, एक चोर और एक श्लोक की चौंका देने वाली परिणति)


भूमिका

मनुष्य का चित्त जब तक बाह्य वैभव में आसक्त रहता है, तब तक वह सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता। किंतु जब दृष्टि सम्यक् हो जाती है, तब भौतिक सुख-सामग्री, वैभव, सत्ता, सब तुच्छ प्रतीत होते हैं। प्रस्तुत कथा "सम्यक दृष्टि" की प्राप्ति का एक अनुपम दृष्टांत है, जिसमें एक राजा और एक चोर — दोनों को आत्मबोध की प्राप्ति मात्र एक श्लोक की अंतिम पंक्ति से होती है।


राजा का वैभवपूर्ण जीवन और अभिमान

एक राजा था — अत्यंत प्रभावशाली, तेजस्वी, विद्वान एवं कवि-हृदय। उसका राज्य वैभव और समृद्धि से परिपूर्ण था। अंत:पुर में सुंदर रानियाँ थीं, राजसभा में गुणी मंत्रीगण, प्रजा सुखी थी और उसकी सेना अत्यंत बलशाली। राजा का कवि मन कभी-कभी इन भौतिक उपलब्धियों का चिंतन करता और आनंद में डूब जाता।

Samyak Drishti – जब एक श्लोक ने Raja aur Chor ko बना दिया Sannyasi
Samyak Drishti – जब एक श्लोक ने Raja aur Chor ko बना दिया Sannyasi


एक दिन शयनकक्ष में विश्राम करते हुए उसने अपने हृदय की संतुष्टि को श्लोक के रूप में ढालना प्रारंभ किया। वह संस्कृत का विद्वान था। उसके मुख से निकले तीन पंक्तियाँ:

चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला:
सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या:
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:

भावार्थ
मेरी चित्ताकर्षक रानियाँ हैं, मेरे स्वजन मेरे अनुकूल हैं, मेरे बंधु-बांधव स्नेहयुक्त वाणी बोलते हैं, मेरे सेवक आज्ञाकारी हैं, मेरी सेना में गरजते हुए हाथी हैं और दुर्लभ घोड़े हैं।

तीन चरण बन गए परंतु चौथा चरण नहीं बन पा रहा था। राजा उसे बार-बार दोहराता रहा, किंतु समाधान नहीं मिला।


संयोग: चोर की उपस्थिति

उसी रात एक चोर चोरी के उद्देश्य से राजमहल में घुसा। संयोगवश वह राजा के कक्ष में पहुँच गया और पलंग के नीचे छिप गया। परंतु वह चोर कोई सामान्य चोर नहीं था। वह भी संस्कृत का ज्ञाता और समस्यापूर्ति में पारंगत एक कवि था।

राजा के मुख से बार-बार उच्चारित होते तीन पंक्तियाँ उसके कानों में पड़ीं। वह समझ गया कि राजा को चौथा चरण नहीं सूझ रहा है। चोर का कवि-हृदय द्रवित हो उठा, वह यह भूल गया कि वह चोरी करने आया था। राजा ने जैसे ही पुनः तीन पंक्तियाँ गाईं, अनायास ही उसके मुख से चौथी पंक्ति निकल गई:

सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥
(नेत्रों के बंद हो जाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता।)


राजा का आत्मबोध और चोर की गुरुत्व प्राप्ति

राजा चौंक गया। उसे लगा जैसे किसी अदृश्य महात्मा ने उसके भ्रम को तोड़ दिया हो। उसने पूछा, “यह वाक्य किसने कहा?” चोर डरते-डरते पलंग के नीचे से बाहर आया, हाथ जोड़कर बोला:

“राजन! मैं एक चोर हूँ। मैं चोरी करने आया था, किंतु आपकी काव्यरचना ने मुझे रोक लिया। मैं उस श्लोक की चौथी पंक्ति जोड़ बैठा। यह एक दुस्साहस था। क्षमा करें।”

राजा उसे ध्यान से देखता रहा और फिर बोला:

“हे कविवर! आज तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे सम्यक दृष्टि प्रदान की है। जिस जीवन को मैं अभिमानपूर्वक देख रहा था, उसे तुमने मात्र एक पंक्ति में यथार्थता से भेद दिया — आंखों के बंद होते ही सब व्यर्थ है। आज तुमने मेरी आंखें खोल दीं। मेरी चेतना अब उस सत्य की ओर प्रवृत्त है, जो इन सब वैभवों से परे है। मैं अब संन्यास लेना चाहता हूँ। यदि तुम चाहो तो यह राज्य तुम्हारा हो सकता है।”


चोर का हृदय-परिवर्तन

चोर की आंखों से अश्रुधारा बह चली। बोला:

“राजन! आपने जिस क्षण में आत्मबोध पाया, उसी क्षण मेरी भी अंतरात्मा जागृत हो उठी। अब यह राज्य, यह धन, यह जीवन भी मेरे लिए अर्थहीन प्रतीत हो रहा है। मैं भी संन्यास लेना चाहता हूँ। अब मेरा लक्ष्य केवल आत्मज्ञान की प्राप्ति है।”


परिणाम: सम्यक दृष्टि का प्रभाव

इस प्रकार, एक राजा और एक चोर — सामाजिक दृष्टि से दो विरोधी पात्र — एक ही क्षण में आत्मज्ञान को प्राप्त हुए। कारण था — एक शुद्ध, सूक्ष्म, सारगर्भित वाक्य। यह है "सम्यक दृष्टि" की शक्ति।

जब तक दृष्टि भ्रमित होती है, जीवन केवल संग्रह और भोग का नाम लगता है। परंतु जैसे ही दृष्टि सम्यक होती है — आत्मा, अनित्य और सत्य के भेद स्पष्ट हो जाते हैं। तभी जीवन का वास्तविक उद्देश्य दिखाई देता है।


नैतिक शिक्षा (Moral Insight)

✅ वैभव, सत्ता और सुख तभी तक हैं जब तक आंखें खुली हैं।
✅ सम्यक दृष्टि से ही आत्मा और अनात्मा का भेद स्पष्ट होता है।
✅ ज्ञान का स्रोत कहीं से भी हो सकता है — राजा से चोर और चोर से गुरु बनने तक की यात्रा मात्र एक पंक्ति से संभव है।
✅ आत्मज्ञान पाने वाला व्यक्ति किसी भौतिक पद, सत्ता या सम्पत्ति में रत नहीं रहता।


📜 सम्पूर्ण श्लोक

चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला:
सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या:
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:
सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥

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