Madhusudan Saraswati Gopeebhav Story | श्री मधुसूदन सरस्वती का गोपीभाव और कृष्णभक्ति कथा

Sooraj Krishna Shastri
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"श्री मधुसूदन सरस्वती की अद्भुत कथा, जिसमें एक अद्वैत वेदांती महापुरुष ने ब्रज में गोपीभाव को स्वीकार कर केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में जीवन समर्पित किया। जानिए कैसे तत्वज्ञान और गोपीभाव का संगम मानव जीवन का सर्वोच्च सत्य प्रकट करता है।"

Madhusudan Saraswati Gopeebhav Story | श्री मधुसूदन सरस्वती का गोपीभाव और कृष्णभक्ति कथा


तत्वज्ञानी महापुरुष का गोपीभाव: श्री मधुसूदन सरस्वती की अद्भुत कथा

परिचय

श्री मधुसूदन सरस्वती एक अद्वैत वेदांत के महान ज्ञानी और परमहंस थे। उनके जीवन का एक अत्यंत विलक्षण अनुभव यह दर्शाता है कि कैसे ब्रह्मज्ञान और पूर्ण भक्ति एक साथ संतुष्टि प्रदान कर सकते हैं। इस कथा में हम देखते हैं कि कैसे एक अद्वैत वेदांती महात्मा को गोपीभाव की प्राप्ति हुई, और वे जीवन के सांसारिक मानदंडों से ऊपर उठकर केवल भगवद्भक्ति में लीन हो गए।

Madhusudan Saraswati Gopeebhav Story | श्री मधुसूदन सरस्वती का गोपीभाव और कृष्णभक्ति कथा
Madhusudan Saraswati Gopeebhav Story | श्री मधुसूदन सरस्वती का गोपीभाव और कृष्णभक्ति कथा

मधुकरी और ब्रज यात्रा

श्री मधुसूदन सरस्वती की एक विशेष साधना थी—वे केवल एक ही घर से मधुकरी मांगते थे। यदि उस घर से मधुकरी मिलती, तो ठीक; नहीं मिली, तो वे दूसरे घर में नहीं जाते थे। यह उनके साधना और अनुशासन का प्रतीक था।

एक बार वे ब्रज में स्थित एक ग्वालिनी के घर पहुँचे। वह चूल्हे पर रोटियाँ बना रही थी, और उसके गोदी में उसका बालक बैठकर माखन और रोटी खा रहा था।

ग्वालिनी ने श्री मधुसूदन सरस्वती को देखकर अपने बच्चे को बाजू में रखा और बाबा के पात्र में रोटी डाल दी। जब स्वामी जी ने उसकी साड़ी पर देखा तो उन्हें पता चला कि बालक का मल लगा हुआ है।

यह देखकर वे ध्यान में पड़ गए। उनके मन में विचार आया—“अरे! इस रोटी को मैं लौटा भी नहीं सकता और ले भी नहीं सकता।”

तभी उन्होंने आंखें खोलीं और देखा कि बालकृष्ण उसी गोपी के आंगन में बैठकर उसके बालक के हाथ से रोटी खा रहे हैं।


गोपीभाव की अनुभूति

इस दृश्य को देखकर स्वामी जी समझ गए कि यह साधारण ब्रजवासियाँ नहीं हैं। उनके भाव और भक्ति अत्यंत विशिष्ट हैं।

तत्वज्ञान की सारी ज्ञानराशि उन्हें क्षण भर के लिए भूल सी गई। वे उसी गोपी के सामने रज में लोटने लगे। उनके हृदय ने यह निश्चय कर लिया कि अब वे काशी लौट कर नहीं जाएँगे, बल्कि ब्रज में गोपियों की दासी बनकर रज में पड़े रहेंगे।

छह महीने तक स्वामी जी इस भक्ति में लीन रहे। वे प्रतिदिन यमुना में स्नान करते, गोपियों की चरणरज को माथे पर लगाते और स्वयं को गोपियों की दासी मानकर पागलों की तरह रज में लोटते रहते।


शिष्यों का प्रश्न

इस दौरान, उनके शिष्य वृंदावन आए और आश्चर्यचकित होकर बोले:
"आप जैसे तत्वज्ञानी महापुरुष, वेदांत के ज्ञाता, ऐसे पागलों की तरह रज में पड़े रहते हैं। आपका तत्वज्ञान कहाँ चला गया?"

श्री मधुसूदन सरस्वती ने शांति पूर्वक एक श्लोक बोला:

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुंदरमुखादरविंद नेत्रात्, 
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने।

इसका अर्थ:

“जिनके करकमलों में बंसी शोभायमान है, जिनके सुंदर शरीर की आभा नए बादलों जैसी घनश्याम है, जिनका सुंदर मुख पूर्ण चन्द्र जैसा है, और जिनके नेत्र कमल के समान हैं, जिन्होंने पीताम्बर धारण किया है और जिनके अधरोष्ठ सूर्य के लाल फल के समान हैं, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान के सिवा और कोई परम तत्व नहीं है, यह मैं नहीं जानता।”


शंकराचार्य पद का त्याग

शिष्यों ने कहा कि शंकराचार्य पद आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

स्वामी जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया:
"अब इस पद का मेरे लिए कोई महत्व नहीं है। भगवान ने मुझे अपनी कृपा करके गोपियों के चरणों की दासी बना दिया। अब मैं ब्रज छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।"


निष्कर्ष

श्री मधुसूदन सरस्वती की यह कथा यह सिखाती है कि सच्चा भक्ति भाव और गोपीभाव किसी भी उच्च पद या मान-सम्मान से बढ़कर है। अद्वैत वेदांत का ज्ञान और प्रेमभाव का अनुभव एक साथ हो सकता है, और यही मानव जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है।


🙏 जय जय श्री राधे!
ब्रज और गोपियों की भक्ति का यह अनुभव हमें सिखाता है कि भक्ति में पूर्ण समर्पण ही परम आनंद का स्रोत है।



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