राम भक्ति में समदृष्टि: Seeing God Everywhere | Bhakti, Samata & Divine Vision in Shri Ram Philosophy

Sooraj Krishna Shastri
By -
0

“जो श्रीराम के चरणों में रत होकर सर्वत्र प्रभु को देखते हैं, वे द्वेष से रहित, समदर्शी और प्रेममय होते हैं। जानिए समता और भक्ति का अद्वैत रहस्य।”

राम भक्ति में समदृष्टि: Seeing God Everywhere | Bhakti, Samata & Divine Vision in Shri Ram Philosophy


🌺 श्रीरामभक्त का समदर्शी भाव और अद्वैत दृष्टिकोण

१. तुलसीदासजी का अद्भुत वचन

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत् केहि सन करहिं बिरोध॥

भावार्थ:
जो व्यक्ति श्रीराम के चरणों में अनुरक्त हैं, जिनके भीतर काम, अभिमान और क्रोध का लेश भी नहीं है, वे सम्पूर्ण जगत में केवल अपने प्रभु का ही स्वरूप देखते हैं। जब उन्हें सर्वत्र वही प्रभु दृष्टिगोचर होते हैं, तब वे किसी से द्वेष या विरोध कैसे कर सकते हैं?

विवेचन:
ऐसे संत या भक्त सर्वत्र एकत्व का अनुभव करते हैं। उनके लिए कोई "दूसरा" है ही नहीं। संसार उन्हें भगवान का ही विस्तार दिखाई देता है। अतः उनमें न बैर होता है, न घृणा — केवल करुणा और प्रेम की धारा प्रवाहित होती है।


२. भगवद्गीता का समान भाव

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निर्हङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
(गीता १२.१३–१४)

भावार्थ:
जो व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करता, सबका मित्र और दयालु है; ममता और अहंकार से रहित है; सुख-दुःख में सम रहता है और क्षमाशील है; जो आत्मसंयमी है, सदा संतुष्ट रहता है और जिसने अपना मन-बुद्धि मुझे अर्पित कर दी है — वही मेरा सच्चा भक्त है, वही मुझे अत्यंत प्रिय है।

तात्त्विक बोध:
भक्त का हृदय सीमित नहीं होता। उसका “स्व” व्यापक होकर परमात्मा तक पहुँच जाता है। उसके लिए किसी का अपमान, किसी का अपराध, किसी का विरोध — सब मिथ्या प्रतीत होते हैं। वह सब में भगवान् को देखता है और सबके प्रति शुभकामना रखता है।

राम भक्ति में समदृष्टि: Seeing God Everywhere | Bhakti, Samata & Divine Vision in Shri Ram Philosophy
राम भक्ति में समदृष्टि: Seeing God Everywhere | Bhakti, Samata & Divine Vision in Shri Ram Philosophy



३. जीव और ईश्वर का तात्त्विक संबंध

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी॥
(रामचरितमानस)

भावार्थ:
जीव नश्वर शरीर का नहीं, बल्कि शुद्ध चेतन आत्मा का स्वरूप है, जो स्वयं ईश्वर का अंश है। अतः किसी भी जीव से द्वेष करना, वस्तुतः भगवान् से ही द्वेष करना है।

विवेचन:
जब तक किसी प्राणी के प्रति द्वेषभाव रहेगा, तब तक भगवान् के प्रति अखंड प्रेम संभव नहीं।
भक्त वही है जिसमें प्राणिमात्र के प्रति करुणा और समता की दृष्टि जागृत हो।


४. भागवत महापुराण का गूढ़ दृष्टिकोण

जीवभूतं महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
(गीता ७.५)

भावार्थ:
हे महाबाहो! यह सम्पूर्ण जगत् “मेरा जीवभाव” अर्थात् मेरे ही अंशरूप से धारण किया गया है।

विवेचन:
इस सत्य को जिसने समझ लिया, उसके भीतर कोई विकार नहीं रह सकता। उसे अनुकूलता-प्रतिकूलता का “ज्ञान” तो होता है, परंतु उस ज्ञान से उसका अंतःकरण विचलित नहीं होता।
जैसे ज्ञानी को रोग का अनुभव होता है, पर वह मानसिक पीड़ा से रहित रहता है।


५. समदर्शन का शास्त्रीय आधार

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥
(गीता ५.१८)

भावार्थ:
जो ज्ञानी व्यक्ति ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी एक ही परमात्मा को देखता है, वही सच्चा पण्डित है।

एकनाथ महाराज की दृष्टान्त कथा:
एक सोने की विष्णुमूर्ति और एक सोने की कुत्ते की मूर्ति — रूप से भिन्न, किंतु तत्त्व से समान।
सच्चा ज्ञानी “रूप” नहीं, “तत्त्व” देखता है।
वह समझता है — “एक ही भगवान् अनेक रूपों में प्रकट हैं।”

निष्कर्ष:
जो ब्राह्मण में, चाण्डाल में, सज्जन में, दुष्ट में — सर्वत्र एक ही चैतन्य देखता है, वही तत्वज्ञ है।


६. भागवत में समदृष्टि का महात्म्य

ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः॥

भावार्थ:
जो ब्राह्मण और चाण्डाल, भक्त ब्राह्मण और चोर, सूर्य और चिनगारी, कृपालु और क्रूर — सबमें समान परमात्मा को देखता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः॥
(भागवत ११.१९.३५)

भावार्थ:
जिनका मन समता में स्थित है, वे इसी जीवन में संसार पर विजय प्राप्त कर चुके हैं।


७. समदृष्टि से समाज कल्याण

जब व्यक्ति अपने भीतर से राग-द्वेष मिटा देता है, तब वह ईश्वर-दृष्टि से सबको देखता है।
ऐसे व्यक्ति से समाज का संतुलन, सहअस्तित्व और शांति स्थापित होती है।

यदि समाज सभ्यतापूर्वक, भारत माता के पुत्र-पुत्री रूप में एकता से रहना चाहता है, तो उपाय एक ही है —
“भगवान् के चरणों में रत् होना।”


८. श्रीरामनाम का महात्म्य

नर नारायन सरिस सुभ्राता।
जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन।
जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥

भावार्थ:
‘रा’ और ‘म’ — ये दो अक्षर जैसे नर और नारायण हैं, वैसे ही सुंदर, दिव्य और कल्याणकारी हैं।
ये भक्तरूपी सुंदरी के कानों के कर्णफूल समान हैं और संसार के हित के लिए निर्मल चन्द्र-सूर्य समान प्रकाशमान हैं।


समापन भावार्थ

भक्ति का सार यही है —
“सर्वत्र प्रभु-दर्शन, सर्वत्र प्रेम-दृष्टि।”
जब मनुष्य भगवान् को सब में देखता है, तब उसका हृदय दया, समता और शांति का सागर बन जाता है।
ऐसे समदर्शी भक्त ही वास्तव में संसार को जीतते हैं, क्योंकि उनके लिए कोई “पराया” है ही नहीं —
सर्वत्र वही राम हैं, वही प्रेम हैं, वही परमात्मा हैं।



Post a Comment

0 Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!