Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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पाणिनि के संस्कृत व्याकरण में संज्ञा और परिभाषा का संपूर्ण विश्लेषण। संज्ञाओं की सूची, सूत्र, उदाहरण और व्याकरणिक अर्थ को सरल रूप में समझें। Students एवं teachers हेतु उपयोगी।

 संस्कृत व्याकरण वह शास्त्र है जो संस्कृत भाषा के वर्णों, पदों (शब्दों), और वाक्यों की शुद्धता तथा उनकी संरचना के नियमों का विस्तृत रूप से विवेचन करता है। इसे वेद पुरुष का मुख भी कहा गया है ('मुखं व्याकरणं स्मृतम्') क्योंकि यह वेदों के सही अर्थ को समझने के लिए अनिवार्य है।

Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण


(1) संज्ञा —

 “नाम” अथवा “निश्चित पहचान” का बोध कराने वाली संज्ञा वह है जो किसी शब्द-समूह या रूप को एक विशिष्ट अर्थ में स्वीकार कर परिभाषित करे। पाणिनि ने अपने व्याकरण में हर प्रकार के पद को निश्चित अर्थ में ग्रहण कर उनके लिए पृथक्‌ संज्ञाएँ निर्धारित की हैं।

(2) भ्वादयो धातवः — (1.3.1)

यह सूत्र “धातु” की संज्ञा देता है। “भू” आदि रूप धातु कहलाते हैं। यहाँ ‘अद्’ प्रत्यय के द्वारा धातुओं का समूह निरूपित हुआ है।

Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण
Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण

(3) कृत् तद्धित समासाश्च प्रातिपदिकम् — (1.2.45)

इस सूत्र से ‘प्रातिपदिक’ संज्ञा मिलती है। अर्थात् जो शब्द अर्थवद् है, परन्तु न धातु है और न प्रत्यय, वह प्रातिपदिक कहलाता है।

(4) सुप्तिङन्तं पदम् — (1.4.14)

यहाँ “पद” की संज्ञा दी गई है। सुप् (सुबन्त) और तिङ् (तिङन्त) प्रत्ययों से युक्त शब्द “पद” कहलाता है। जैसे “रामः”, “भवति” आदि।

(5) अलोऽन्त्यस्य — (1.1.52)

इस सूत्र में “अल्” संज्ञा दी गई है — “अल्” का अर्थ है वर्ण। अर्थात् स्वर और व्यंजन दोनों।

(6) अचः — (1.1.2)

इस सूत्र से “अच्” संज्ञा प्राप्त होती है। यह केवल स्वरों के लिए प्रयुक्त होती है — अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ।

(7) हलः — (1.1.3)

इस सूत्र से “हल्” संज्ञा व्यंजनों के लिए दी गई है। जैसे — क, ख, ग, घ... प, फ, ब, भ, म आदि।

(8) इको यणचि — (6.1.77)

यह सूत्र ध्वन्यात्मक संज्ञा देता है, जहाँ ‘इक्’ वर्णों (इ, उ, ऋ, लृ) के स्थान पर ‘यण्’ वर्ण (य, व, र, ल) आते हैं।

(9) अदेङ् गुणः — (1.1.2/1.1.45 संदर्भ)

यहाँ “गुण” संज्ञा दी गई है। अ, ए, ओ — ये गुण कहलाते हैं।

(10) वृद्धिरादैच् — (1.1.1/1.1.2 विस्तार)

इस सूत्र में “वृद्धि” संज्ञा का विधान हुआ है। ऐ, औ — ये वृद्धि कहलाते हैं।

(11) उपधा — अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा (1.1.65)

यह सूत्र “उपधा” की संज्ञा देता है। शब्द के अंतिम वर्ण (स्वर या व्यंजन) से ठीक पहले जो वर्ण होता है, उसे “उपधा” कहते हैं।
उदाहरण — ‘गुरु’ शब्द में ‘र’ उपधा है।

(12) अचोऽन्त्यादि टि — अचोऽन्त्यादि टि (1.1.64)

इस सूत्र में “टि” की संज्ञा दी गई है। किसी भी शब्द के अंतिम स्वर से लेकर अंत तक के अक्षर-समूह को “टि” कहा जाता है।

(13) सार्वधातुक — तिङ्शित्सार्वधातुकम्  (3.4.113)  

सूत्र में “सार्वधातुक” की संज्ञा दी गई है। धातु में जो रूप जोड़कर विशेष अर्थ उत्पन्न करता है, वह प्रत्यय कहलाता है।
जैसे — “भू + ति → भवति”।

(14) धातु — भ्वादयो धातवः (1.3.1)

यह “धातु” की संज्ञा का सूत्र है। यह बताता है कि “भू” आदि रूप वे शब्द हैं जिनसे क्रिया का अर्थ प्रकट होता है।

(15) सुप् — सुबन्तं पदम् (1.4.14)

यह “सुप्” प्रत्ययों की संज्ञा है, जो संज्ञा-रूपों के निर्माण में प्रयुक्त होते हैं। जैसे — रामः (सु), रामम् (अम्) आदि।

(16) तिङ् — सुप्तिङन्तं पदम् (1.4.14)

यह “पद” की संज्ञा है। ये क्रियापदों के निर्माण में प्रयोग होते हैं, जैसे — भवति, गच्छति आदि।

(17) सर्वनामस्थानम् — सुप्तिङन्तं सर्वनामस्थानम् (1.1.42)

यह सूत्र “सर्वनामस्थान” की संज्ञा देता है। इसमें सर्वनाम-संबंधी प्रत्ययों या रूपों के स्थान का उल्लेख है, जहाँ रूप भिन्नता होती है।

(18) ङि — संज्ञा विशेष

“ङि” संज्ञा उन प्रत्ययों या रूपों के लिए दी गई है जो विशिष्ट प्रकार के शब्द-निर्माण में प्रयुक्त हों।

(19) प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् — (1.1.62)

यहाँ “लोप” शब्द को एक संज्ञा के रूप में ग्रहण किया गया है — जब प्रत्यय का उच्चारण न होकर उसका कार्य बना रहता है, तब “प्रत्ययलोप” कहा जाता है।

(20) संज्ञा — संज्ञायाम् अनुप्रयुज्यते (1.2.46)

यह सूत्र सामान्य “संज्ञा” का ही निर्देश करता है — कि जब कोई शब्द किसी अर्थ में निश्चित रूप से प्रयुक्त हो, तब वह संज्ञा कहलाता है।

(21) सर्वनाम — सर्वादीनि सर्वनामानि (1.1.27)

इस सूत्र में “सर्वनाम” की संज्ञा दी गई है। “सर्व” से लेकर “इतरेतर” तक जो शब्द हैं — वे सर्वनाम कहलाते हैं।
जैसे — सर्व, अन्य, इदम्, तत्, यः आदि।

(22) निपात — निपात एकविभक्त्यर्थे (1.4.57)

यहाँ “निपात” संज्ञा दी गई है। वे अव्यय शब्द जो केवल अर्थ-विशेष सूचित करते हैं, जैसे — च, हि, वा, अपि, नु, इति आदि।

(23) अव्यय — अव्ययं विभक्तिसंज्ञकं न भवति (1.1.38)

यह सूत्र “अव्यय” की संज्ञा देता है। जो शब्द विभक्ति नहीं ग्रहण करता, नपुंसकलिंग में होता है, और जिसका रूप अपरिवर्तनीय रहता है, वह अव्यय कहलाता है।

(24) दीर्घ संधिः — अकः सवर्णदीर्घः  (6.1.101)

यहाँ “संधि” संज्ञा दी गई है। समान वर्णों के मेल से जो दीर्घ स्वर बनता है, वह संधि कहलाती है।

(25) समास — प्राक् दीव्यतः समासः (2.1.1)

यह सूत्र “समास” की संज्ञा देता है। दो या अधिक पदों के संयोग से एक अर्थ का बोध कराने वाले रूप को समास कहते हैं।

(26) तद्धित — तद्धितार्थे प्रत्ययः (4.1.76)

इस सूत्र में “तद्धित” संज्ञा दी गई है। जो प्रत्यय प्रातिपदिक से किसी सम्बन्ध (स्वामित्व, अपत्यता, स्थान आदि) का बोध कराते हैं, वे तद्धित कहलाते हैं।

(27) कृत् — कृदतिङ् (3.1.93)

यहाँ “कृत्” संज्ञा दी गई है। जो प्रत्यय धातु में लगकर किसी क्रिया के अर्थ का रूप बनाते हैं, वे कृत् प्रत्यय कहलाते हैं।
जैसे — पठितः, कर्ता, करणम् आदि।

(28) धातुसंज्ञा — भ्वादयो धातवः (1.3.1)

यह पुनः धातु-संज्ञा को पुष्ट करता है — धातु वे शब्द हैं जिनसे क्रिया-सूचक अर्थ (भाव, क्रियार्थ, कर्तृकर्मसंबंध) निकलता है।

(29) अर्थवदधातुरप्रत्ययम् — कृत् तद्धित समासाश्च प्रातिपदिकम् (1.2.45)

यहाँ स्पष्ट किया गया है कि प्रातिपदिक अर्थवान् होता है परंतु धातु या प्रत्यय नहीं।

(30) लकार — लट् लङ् लृट् लिङ् लुङ् लृङ् लोङ् लेट् (3.4.78–3.4.113)

इन सूत्रों से “लकार” संज्ञा दी गई है — जो विभिन्न काल, विधि और अर्थ-सूचक क्रियाओं के रूप में प्रयुक्त होते हैं।

(31) तिङ् — तिङ् प्रत्ययाः (3.4.78)

यह “तिङ्” प्रत्यय की पुनरुक्त संज्ञा है — जो कर्ता-वाचक रूपों के लिए लगते हैं।

(32) संज्ञा — संज्ञायां अनुप्रयुज्यते (1.2.46)

यह अंतिम सामान्य सूत्र फिर से यह स्पष्ट करता है कि “संज्ञा” का प्रयोग तब किया जाता है जब किसी शब्द को एक निश्चित अर्थ में ग्रहण किया जाए — जैसे “गुण”, “वृद्धि”, “हल्” इत्यादि।


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