पाणिनि के संस्कृत व्याकरण में संज्ञा और परिभाषा का संपूर्ण विश्लेषण। संज्ञाओं की सूची, सूत्र, उदाहरण और व्याकरणिक अर्थ को सरल रूप में समझें। Students एवं teachers हेतु उपयोगी।
संस्कृत व्याकरण वह शास्त्र है जो संस्कृत भाषा के वर्णों, पदों (शब्दों), और वाक्यों की शुद्धता तथा उनकी संरचना के नियमों का विस्तृत रूप से विवेचन करता है। इसे वेद पुरुष का मुख भी कहा गया है ('मुखं व्याकरणं स्मृतम्') क्योंकि यह वेदों के सही अर्थ को समझने के लिए अनिवार्य है।
Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण
(1) संज्ञा —
“नाम” अथवा “निश्चित पहचान” का बोध कराने वाली संज्ञा वह है जो किसी शब्द-समूह या रूप को एक विशिष्ट अर्थ में स्वीकार कर परिभाषित करे। पाणिनि ने अपने व्याकरण में हर प्रकार के पद को निश्चित अर्थ में ग्रहण कर उनके लिए पृथक् संज्ञाएँ निर्धारित की हैं।
(2) भ्वादयो धातवः — (1.3.1)
यह सूत्र “धातु” की संज्ञा देता है। “भू” आदि रूप धातु कहलाते हैं। यहाँ ‘अद्’ प्रत्यय के द्वारा धातुओं का समूह निरूपित हुआ है।
![]() |
| Sanskrit Vyakaran: Panini Sanjna aur Paribhasha Explained | पाणिनि के अनुसार संज्ञा और परिभाषा का सरल विश्लेषण |
(3) कृत् तद्धित समासाश्च प्रातिपदिकम् — (1.2.45)
इस सूत्र से ‘प्रातिपदिक’ संज्ञा मिलती है। अर्थात् जो शब्द अर्थवद् है, परन्तु न धातु है और न प्रत्यय, वह प्रातिपदिक कहलाता है।
(4) सुप्तिङन्तं पदम् — (1.4.14)
(5) अलोऽन्त्यस्य — (1.1.52)
(6) अचः — (1.1.2)
(7) हलः — (1.1.3)
(8) इको यणचि — (6.1.77)
(9) अदेङ् गुणः — (1.1.2/1.1.45 संदर्भ)
(10) वृद्धिरादैच् — (1.1.1/1.1.2 विस्तार)
(11) उपधा — अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा (1.1.65)
(12) अचोऽन्त्यादि टि — अचोऽन्त्यादि टि (1.1.64)
(13) सार्वधातुक — तिङ्शित्सार्वधातुकम् (3.4.113)
(14) धातु — भ्वादयो धातवः (1.3.1)
यह “धातु” की संज्ञा का सूत्र है। यह बताता है कि “भू” आदि रूप वे शब्द हैं जिनसे क्रिया का अर्थ प्रकट होता है।
(15) सुप् — सुबन्तं पदम् (1.4.14)
यह “सुप्” प्रत्ययों की संज्ञा है, जो संज्ञा-रूपों के निर्माण में प्रयुक्त होते हैं। जैसे — रामः (सु), रामम् (अम्) आदि।
(16) तिङ् — सुप्तिङन्तं पदम् (1.4.14)
(17) सर्वनामस्थानम् — सुप्तिङन्तं सर्वनामस्थानम् (1.1.42)
(18) ङि — संज्ञा विशेष
(19) प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् — (1.1.62)
(20) संज्ञा — संज्ञायाम् अनुप्रयुज्यते (1.2.46)
(21) सर्वनाम — सर्वादीनि सर्वनामानि (1.1.27)
(22) निपात — निपात एकविभक्त्यर्थे (1.4.57)
(23) अव्यय — अव्ययं विभक्तिसंज्ञकं न भवति (1.1.38)
(24) दीर्घ संधिः — अकः सवर्णदीर्घः (6.1.101)
यहाँ “संधि” संज्ञा दी गई है। समान वर्णों के मेल से जो दीर्घ स्वर बनता है, वह संधि कहलाती है।
(25) समास — प्राक् दीव्यतः समासः (2.1.1)
(26) तद्धित — तद्धितार्थे प्रत्ययः (4.1.76)
इस सूत्र में “तद्धित” संज्ञा दी गई है। जो प्रत्यय प्रातिपदिक से किसी सम्बन्ध (स्वामित्व, अपत्यता, स्थान आदि) का बोध कराते हैं, वे तद्धित कहलाते हैं।
(27) कृत् — कृदतिङ् (3.1.93)
(28) धातुसंज्ञा — भ्वादयो धातवः (1.3.1)
(29) अर्थवदधातुरप्रत्ययम् — कृत् तद्धित समासाश्च प्रातिपदिकम् (1.2.45)
(30) लकार — लट् लङ् लृट् लिङ् लुङ् लृङ् लोङ् लेट् (3.4.78–3.4.113)
(31) तिङ् — तिङ् प्रत्ययाः (3.4.78)
(32) संज्ञा — संज्ञायां अनुप्रयुज्यते (1.2.46)
Panini Sanskrit Vyakaran, Panini Sanjna Paribhasha, Sanskrit Grammar Definitions, संज्ञा परिभाषा संस्कृत व्याकरण, Paninian Grammar Rules, Ashtadhyayi Sanjna, Sanskrit Vyakaran Notes, संज्ञाएँ पाणिनि, Sanskrit Grammar for Students, Panini Grammar Explained.

