'महेन्द्रो मलयः सह्य: शुक्तिमानृक्षपर्वतः।
विंध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वता।।
-महाभारत
प्राचीन ऋषियों को मालूम था कि मनुष्य एक दिन पहाड़, नदी और वृक्षों का दुश्मन बन जाएगा। वह अपने उपभोग के लिए तेजी से इनका खात्मा करने लगेगा। सभी लोग नदी के प्रदूषित और लुप्त होने की बातें करते हैं लेकिन नदियों की तरह पहाड़ों को भी बचाने की जरूरत है।
जब हम भारत को बचाने की बात करते हैं तो भारत एक भूमि है। यहां की भूमि के पहाड़ों, नदियों और वृक्षों के साथ ही यहां के पशु, पक्षियों और जलचर जंतुओं को बचाया जाना चाहिए। जो लोग इनको नष्ट कर रहे हैं वे ही भारत के असली दुश्मन हैं। जो लोग पहाड़ों और वृक्षों को कटते देख रहे हैं उनका भी अपराध लिखा जाएगा।
पहाड़ों का महत्व
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत में एक से एक शानदार पहाड़ हैं, पहाड़ों की श्रृंखलाएं हैं और सुंदर एवं मनोरम घाटियां हैं। पहाड़ को जीवंत बनाने के लिए जरूरी मुख्य तत्वों में पेड़ और पानी- दोनों आवश्यक हैं। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। जीवन को परिभाषित करने के लिए जीव और वन- दोनों जरूरी हैं। जहां वन होता है वहीं जीव होते हैं। इनके बिना पहाड़ अधूरा और कमजोर है। दूसरी ओर पहाड़ों के कारण ही नदियों का बहना जारी है। मानव एक ओर जहां पहाड़ काट रहा है वहीं नदियों पर बांध बनाकर उनके अस्तित्व को मिटाने पर तुला है तो दूसरी ओर अंधाधुंध तरीके से पेड़ काटे जा रहे हैं।
बायपास सड़क और रेती-गिट्टी के लिए कई छोटे शहरों के छोटे-मोटे पहाड़ों को काट दिया गया है और कइयों को अभी भी काटा जा रहा है। दरअसल, पहले किसी भी पहाड़ के उत्तर में गांव और शहर को बसाया जाता था ताकि दक्षिण से आने वाले तूफान और तेज हवाओं से शहर की रक्षा हो सके। मनुष्य के जीवन में पहाड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
एक दिन मिलेगी पहाड़ काटने की सजा
पहाड़ों के देवता को वेदों में मरुतगण कहा गया है जिनकी संख्या प्रमुख रूप से 49 है। पहाड़ों को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने वाले पर ये मरुतगण नजर रखते हैं। मौत के बाद ऐसे लोगों की दुर्गति होना तय है। जीते जी ही ऐसे लोगों का जीवन नर्क बना ही दिया जाता है। वैदिक ऋषियों ने पहाड़ों के गुणगान गाए हैं। उन्होंने पहाड़ों के लिए कई मंत्रों की रचनाएं की हैं।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ऐसे कई पहाड़ हैं जिनका धार्मिक और पर्यटनीय महत्व है। भारत में ही विश्व के सबसे प्राचीन और सबसे नए पर्वत विद्यमान हैं। इन पहाड़ों की प्राचीनता और भव्यता देखते ही बनती है। आओ जानते हैं उनमें से प्रमुख 10 पहाड़ों के बारे में संक्षिप्त जानकारी जिनका संरक्षण किए जाने की जरूरत भी है...
(1) हिमालय की श्रृंखलाएं
हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं में सैकड़ों पहाड़ और सुरम्य घाटियां और भयानक जंगल हैं। प्राचीनकाल में हिमालय देवताओं के रहने का स्थान था। हिमालयवर्ती राज्य में सियाचिन, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, उत्तराखंड, उत्तरांचल, सिक्किम, तिब्बत, अरुणाचल, नेपाल, भूटान आदि हैं। उत्तराखंड से लगे हिमालय के एक क्षेत्र विशेष में देव आत्माओं का निवास है।
सबसे नया पहाड़ -
अनेक ऋषि-मुनियों की तपस्थली हिमालय का अर्थ है- बर्फ का घर। वैसे हिमालय दुनिया के सबसे बड़े पर्वतों में से एक है, लेकिन इसे सबसे नया पर्वत कहा जाता है। विश्व के 15 सबसे बड़े पहाड़ हिमालय में ही हैं। 2,400 किमी में फैली हिमालय की पहाड़ियां केवल भारत में ही नहीं हैं, बल्कि ये भारत, चीन, भूटान, अफगानिस्तान पाकिस्तान और ताजिकिस्तान में भी हैं। नेपाल में हिमालय को 'सागरमाथा' के नाम से जाना जाता है।
हिमालय की नदियां -
हिमालय पर बहुत से पेड़-पौधे भी हैं जिनमें से बहुत से पौधों का हम इस्तेमाल भी करते हैं। हिमालय पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां- गंगा, सरस्वती, चंद्रभागा, (चिनाब), यमुना, शुतुद्री (सतलुज), वितस्ता (झेलम), इरावती (रावी), कुहू (काबुल), गोमती, धूतपापा (शारदा), बाहुदा (राप्ती), दृषद्वती (चितंग), विपाशा (बियास), देविका (दीग), सरयू (घाघरा), रंक्षू (रामगंगा), गंडकी (गंडक), कौशिकी (कोसी), त्रित्या और लोहित्या (ब्रह्मपुत्र)।
माउंट एवरेस्ट -
हिमालय में ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी गौरीशंकर (माउंट एवरेस्ट) है। एवरेस्ट एशिया महाद्वीप में है और हिमालय का हिस्सा है। यह नेपाल और चीन की सीमा पर मौजूद है। यह पहाड़ 8,848 मीटर ऊंचा है।
पुराणों के अनुसार
भगवान शंकर का निवास स्थान कैलाश भी इसी क्षेत्र में है। पुराणों में इसे पार्वतीजी का पिता कहा गया है। पुराणों के अनुसार गंगा और पार्वती इनकी दो पुत्रियां हैं और मैनाक, सप्तश्रृंग आदि 100 पुत्र हैं। हिमालय के प्रांगण में बद्रीनाथ, केदारनाथ, मानसरोवर आदि अनेक तीर्थ तथा शिमला, मसूरी, दार्जीलिंग आदि नगर हैं। यह बहुमूल्य रत्नों एवं औषधियों का प्रदाता हैं। गौरीशंकर, कंचनजंगा, एवरेस्ट, धौलागिरि, गोसाई स्थान, अन्नपूर्णा आदि उसकी विशिष्ट चोटियां विश्व की सर्वश्रेष्ठ चोटियों में से एक हैं।
हिमालय के अन्य पहाड़
(१) के 2
इसकी ऊंचाई 8,611 मीटर है। यह एशिया महाद्वीप में है और हिमालय का हिस्सा है। यह पाकिस्तान और चीन में मौजूद है।
(२) कंचनजंगा
इसकी ऊंचाई 8,586 मीटर है। एशिया में स्थित यह पर्वत हिमालय का भाग है। यह नेपाल और भारत की सीमा पर है।
(३) लहोत्से
इसकी ऊंचाई 8,516 मीटर है। यह पर्वत एशिया में मौजूद हिमालय का हिस्सा है तथा नेपाल और चीन में स्थित है।
(४) मकालू
यह पर्वत 8,463 मीटर ऊंचा है। एशिया में स्थित मकालू हिमालय का भाग है और नेपाल-चीन में स्थित है।
(५) चो ओयू
इस पर्वत की ऊंचाई 8,201 मीटर है। यह भी हिमालय श्रेणी का हिस्सा है और एशिया में स्थित है।
(2) अरावली की पर्वत श्रृंखलाएं
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। इसे भी हिन्दूकुश पर्वत की तरह पारियात्र या पारिजात पर्वत कहा जाता है। वह इसलिए कि यहां पर पारिजात वृक्ष पाया जाता है। भारत की भौगोलिक संरचना में अरावली प्राचीनतम पर्वत है। भू-शास्त्र के अनुसार भारत का सबसे प्राचीन पर्वत अरावली का पर्वत है। माना जाता है कि यहीं पर श्रीकृष्ण ने वैकुंठ नगरी बसाई थी। राजस्थान में यह पहाड़ नैऋत्य दिशा से चलता हुआ ईशान दिशा में करीब दिल्ली तक पहुंचा है। अरावली या 'अर्वली' उत्तर भारतीय पर्वतमाला है। राजस्थान राज्य के पूर्वोत्तर क्षेत्र से गुजरती 560 किलोमीटर लंबी इस पर्वतमाला की कुछ चट्टानी पहाड़ियां दिल्ली के दक्षिण हिस्से तक चली गई हैं।
अगर गुजरात के किनारे अर्बुद या माउंट आबू का पहाड़ उसका एक सिरा है तो दिल्ली के पास की छोटी-छोटी पहाड़ियां धीरज (The Ridge) दूसरा सिरा। आबू के पहाड़ का सबसे ऊंचा शिखर सिरोही जिले में गुरुशिखर 1727 मी. से भी अधिक ऊंचा है जबकि धीरज टेकरियों की ऊंचाई 50 फुट की ही होगी। राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात, पंजाब आदि राज्यों में इस पर्वत की श्रृंखलाएं फैली हुई हैं। ऋग्वेद में अर्बुद नामक असुर का जिक्र आता है।
नष्ट कर रहे हैं अरावली को
अरावली पर्वत श्रृंखला कई प्राकृतिक और खनिज संपदाओं से लबरेज है। यह पर्वत श्रेणी क्वार्ट्ज चट्टानों से निर्मित है। इनमें सीसा, तांबा, जस्ता आदि खनिज पाए जाते हैं। यहां की अधिकतर चट्टानें देशभर में लोगों के घर का फर्श बनकर नष्ट हो गई हैं।
सिंधु को लांघकर मध्यप्रदेश की ओर जाते यह पहाड़ और उसकी अनेक शाखाएं आड़ी आती हैं इसलिए इसका 'आडावली' नाम पड़ा होगा। आडावली के पहाड़ बड़े हों या छोटे, वनस्पति-सृष्टि को आज भी प्रश्रय देते हैं और उन जंगलों में शेर, चीता आदि वन्य पशुओं को भी प्रश्रय मिलता है और यहां कई पहाड़ी वन्य जातियां भी उसके आश्रय से कृतार्थ होकर लोकगीतों में अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हैं। इस पर्वतमाला में केवल दक्षिणी क्षेत्र में सघन वन हैं अन्यथा अधिकांश क्षेत्रों में यह विरल, रेतीली एवं पथरीली है।
नदियां -
अरावली परिसर में जन्म लेने वाली नदियों की संख्या भी कम नहीं है। वेदस्मृति (बनास), वेदवती (बेरछ), वृत्रघ्नी (उतंगन), सिंधु (काली सिंध), वेण्या या वर्णाशा नंदिनी अथवा चंदना (साबरमती), सदानीरा या सतीरापारा (पार्वती), चर्मण्वती या धन्वती (चंबल), तूपी या रूपा या सूर्य (गंभीर), विदिशा या विदुषा (बेस), वेत्रवती या वेणुमती (बेतवा), शिप्रा या अवर्णी या अवंती।
प्रमुख चोटियां -
१. सेर- 1597 मीटर
२. चलगढ़- 1380 मीटर
३. देलवाड़ा- 1442 मीटर
४. आबू- 1295 मीटर
५. ऋषिकेश- 1017 मीटर
(3) विंध्याचल पर्वतमाला -
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। 'विंध्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'विध्' धातु से कही जाती है। भूमि को बेधकर यह पर्वतमाला भारत के मध्य में स्थित है। यही मूल कल्पना इस नाम में निहित जान पड़ती है। विंध्य की गणना सप्तकुल पर्वतों में है। विंध्य का नाम पूर्व वैदिक साहित्य में नहीं है। इस पर्वत श्रृंखला का वेद, महाभारत, रामायण और पुराणों में कई जगह उल्लेख किया गया है।
विंध्य पहाड़ों की रानी विंध्यवासिनी माता हैं। मां विंध्यवासिनी देवी मंदिर (मिर्जापुर, उप्र) श्रद्धालुओं की आस्था का प्रमुख केंद्र है। देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है विंध्याचल।
विंध्याचल पर्वत श्रेणी पहाड़ियों की टूटी-फूटी श्रृंखला है, जो भारत की मध्यवर्ती उच्च भूमि का दक्षिणी कगार बनाती है। यह पर्वतमाला भारत के पश्चिम-मध्य में स्थित प्राचीन गोलाकार पर्वतों की श्रेणियां हैं, जो भारत उपखंड को उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में बांटती है। इस पर्वतमाला का विस्तार उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार- लगभग 1,086 किमी तक विस्तृत फैला है। हालांकि इसकी कई छोटी-बड़ी पहाड़ियों को विकास के नाम पर काट दिया गया है। इन श्रेणियों में बहुमूल्य हीरेयुक्त एकभ्रंशीय पर्वत भी है।
इसकी प्रमुख नदियां -
पहाड़ों के कटने से यहां से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में है। विंध्य पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां- शिप्रा या भद्रा (सिप्रा), पयोष्णी, निर्विध्या (नेबुज), तापी निषधा या निषधावती (सिंद), वेण्वा या वेणा (वेणगंगा), वैतरणी (बैत्रणी), सिनीवाली या शिति बाहू, कुमुद्वती (स्वर्णरेखा), करतोया या तोया (ब्राह्मणी), महागौरी (दामोदर) और पूर्णा, शोण (सोन), महानद (महानदी) और नर्मदा।
मध्यप्रदेश और गुजरात की सरकारों ने मिलकर सबसे बड़ी नर्मदा नदी की हत्या कर दी है। इस एक नदी के कारण संपूर्ण मध्यप्रदेश और गुजरात के जंगल हरे-भरे और पशु-पक्षी जीवंत रहते थे, लेकिन अब बांध बनाने से नदी के जलचर जंतु मर गए हैं।
प्राकृतिक संपदा -
भारत में पर्यावरण विनाश की सीमा अरावली पर्वत श्रेणियों और पश्चिम के घाटों तक ही सीमित नहीं है, मध्यक्षेत्र में भी बेतरतीब ढंग से जारी रहकर प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के कारण सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां तो खतरे में हैं ही, अनेक जीवनदायी नदियों का वजूद भी संकट में है। वे लोग देशद्रोही हैं, जो अपनी ही धरती को छलनी कर उसे विकास के नाम पर नष्ट कर रहे हैं।
पुराणों के अनुसार
इसके अंतर्गत रोहतासगढ़, चुनारगढ़, कलिंजर आदि अनेक दुर्ग हैं तथा चित्रकूट, विंध्याचल आदि अनेक पावन तीर्थ हैं। पुराणों के अनुसार इस पर्वत ने सुमेरू से ईर्ष्या रखने के कारण सूर्यदेव का मार्ग रोक दिया था और आकाश तक बढ़ गया था जिसे अगस्त्य ऋषि ने नीचे किया। यह शरभंग, अगस्त्य इत्यादि अनेक श्रेष्ठ ऋषियों की तप:स्थली रहा है। हिमालय के समान इसका भी धर्मग्रंथों एवं पुराणों में विस्तृत उल्लेख मिलता है।
अगस्त्य मुनि
दक्षिण भारत और हिन्द महासागर से संबंधी अगस्ति (अगस्त्य) मुनि की गाथा है। उन्होंने विंध्याचल के बीच से दक्षिण का मार्ग निकाला। किंवदंती है कि विंध्याचल पर्वत ने उनके चरणों पर झुककर प्रणाम किया। उन्होंने आशीर्वाद देकर कहा कि जब तक वे लौटकर वापस नहीं आते, वह इसी प्रकार झुका खड़ा रहे। वे वापस लौटकर नहीं आए और आज भी विंध्याचल पर्वत वैसे ही झुका उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
विंध्याचल के जंगल
विंध्याचल पर्वत श्रेणियों के दोनों तरफ घने जंगल हैं, जो अब शहरी आबादी और विकास के चलते काट दिए गए हैं। इन जंगलों में शेर, चीते, भालू, बंदर, हिरणों के कई झुंड होते थे, जो अब दर-ब-दर हैं। अब चंबल, सतपुड़ा और मालवा के पठारी इलाके में ही कुछ जंगल बचे हैं। यहां के पर्वतों की कंदराओं में कई प्राचीन ऋषियों के आश्रम आज भी मौजूद हैं। यह क्षेत्र पहले ऋषि-मुनियों का तप स्थल हुआ करता था। पर्वतों की कंदराओं में साधना स्थल, दुर्लभ शैलचित्र, पहाड़ों से अनवरत बहती जल की धारा, गहरी खाइयां और चारों ओर से घिरे घनघोर जंगलों पर अब संकट के बादल घिर गए हैं। यहीं पर भीमबैठका जैसी गुफाएं हैं।
(4) मलयगिरि -
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। महर्षि अगस्त्य की तपोभूमि मलयगिरि पर्वत श्रेणियां दक्षिण भारत में स्थित हैं। यह मलयगिरि पर्वत चोल देश से लेकर सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ है। इसका उत्तरी भाग मैसूर को स्पर्श करता है। चंद्रगिरि पर्वत इसके दूसरी ओर है। भगवान विष्णु को प्रिय यहां का मलयगिरि चंदन बहुत ही प्रसिद्ध है।
मलय पर्वत पश्चिमी घाट का दक्षिणी छोर, जो कावेरी के दक्षिण में पड़ता है, पर स्थित है। आजकल इसको 'तिरुवांकुर की पहाड़ी' कहते हैं।
प्रमुख नदियां -
मलय पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां- कृतमाला (ऋतु माला, वैगाई), ताम्रपर्णी, पुष्पजा (पुष्पवती, पंबिअर) और सत्पलावती (उत्पलावती, पेरियर)।
(5) महेन्द्राचल -
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। महेन्द्रगिरि व महिन्द्राचल भारतवर्ष में दो माने जाते हैं। एक पूर्वी घाट पर तथा एक पश्चिमी घाट पर। वाल्मीकि रामायण का महेन्द्रगिरि पश्चिमी घाट पर है, जहां से हनुमानजी कूदकर लंका गए थे। दूसरा महेन्द्रगिरि, जो पुराणों में वर्णित है।
दूसरा पूर्वी घाट के उत्तर में है और उड़ीसा के मध्य भाग तक फैला हुआ है। महेन्द्रगिरि उड़ीसा से लेकर मदुरै जिले तक फैली पर्वत श्रृंखलाएं हैं। इसमें पूर्वी घाट की पहाड़ियां तथा गोंडवाना तक फैली पर्वत श्रृंखलाएं भी सम्मिलित हैं।
पुराणों के अनुसार -
माना जाता है कि हैहयवंशी क्षत्रियों को नष्ट करने बाद परशुराम ने सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी थी, फिर उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए और सागर द्वारा उच्छिष्ट भू-भाग 'महेन्द्र पर्वत' पर आश्रम बनाकर रहने लगे। वे आज भी वहीं रहते हैं।
पुराणों के अनुसार यहां परशुराम तीर्थ में स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। इस पर्वत के पूर्वी ढाल पर युधिष्ठिर का बनवाया हुआ मंदिर बड़ा ही आकर्षक है। थोड़ी दूर पूर्व में ही पांडवों की माता कुंती का मंदिर है। यहां पर गोकर्णेश्वर मंदिर भी स्थित है। यह एक बिल्ववृक्ष के लिए प्रसिद्ध है जिसके नीचे श्राद्ध करने से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है।
महेन्द्र पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां-
पितृसोमा अथवा त्रिसामा, ऋषिकुल्या, इक्षुका या इक्षुला (बहुदा), त्रिदिवा या वेगवती, लांगुलिनी (लांगुलिया) और वंशकरा अथवा वंशधरा।
(6) शुक्तिमान पर्वत -
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। इस पर्वत का नाम शक्ति पर्वत है, जो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ नामक नगर से लेकर बिहार के डालमा पर्वत तक फैला हुआ है। यह विंध्याचल पर्वत के दक्षिण से लेकर बीच से काटता हुआ सुदूर पूर्व तक चला गया है।
अर्थात यह पर्वत विंध्याचल के पूर्वी भाग का पर्वत है जिससे निस्सृत होकर ऋषिकुल्या नदी उड़ीसा में बहती हुई 'बंगाल की खाड़ी' में गिरती है। शुक्तिमान पर्वत का 'शुक्तिमती' नाम की नदी होने से संबंध है। शुक्तिमती नामक नदी महाभारतकालीन चेदि देश की इसी नाम की राजधानी 'शुक्तिमती' के पास बहती है। इतिहासकारों के अनुसार शुक्तिमती नदी बांदा (उत्तरप्रदेश) के निकट बहने वाली केन नदी है। केन नाम से और भी कई नदियां हैं।
इस पर्वत श्रृंखला के आसपास बहुत से औद्योगिक नगर विकसित हो गए हैं जिसके चलते पर्वत और इससे निकलने वाली नदियों का अस्तित्व संकट में है। इसी की उपत्यका में हीराकुंड, सुंदरगढ़, चाईबासा आदि पौराणिक स्थान तथा औद्योगिक नगर बसे हुए हैं।
पर्वत से निकलने वाली प्रमुख नदियां -
इस पर्वत से निकलने वाली नदियों में काशिका, शुक्तिमती, कुमारी, ऋषिका कुमारी अथवा सुकुमारी (सुकतेल), मंदगा (मंड), मंदवाहिनी (महानदी), कृपा (अर्प), पलाशिनी (जोंक) और वामन (सुदामा) प्रमुख हैं। विष्णुपुराण में शुक्तिमान से उड़ीसा की ऋषिकुल्या नामक नदी को उद्भुत माना गया है।
(7) सह्याद्रि पर्वत -
पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला का उत्तरी भाग है। यह पर्वत भी प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। हिमालय, अरावली, विंध्याचल के बाद इसका नंबर आता है। पर्वतों की यह महान और विशालकाय श्रेणियां भी उतनी ही प्राचीन है जितनी कि अरावली की पहाड़ियां। इन पर्वतों में कई धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल मौजूद हैं।
इन पहाड़ियों का कुल क्षेत्र 1,60,000 वर्ग किलोमीटर है। इसकी औसत ऊंचाई लगभग 1,200 मीटर (3,900 फीट) है। प्राचीन पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला को संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने अपनी 'विश्व विरासत स्थल' सूची में शामिल किया है।
सह्याद्रि पर्वत ताप्ती नदी के मुहाने से लेकर कुमारी अंतद्वीप तक लगभग 1,600 किमी की लंबाई में विस्तृत है। सहयाद्रि का विस्तार त्र्यम्बकेश्वर (नासिक के समीप पर्वत) से मलाबार तक माना गया है। इसके दक्षिण में मलय-गिरिमाल स्थित है। दरअसल, पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा से शुरू होती है और महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल से गुजरकर कन्याकुमारी में समाप्त होती है। यह देश में मानसून के चक्र को पूरी तरह प्रभावित करती है। इस श्रृंखला का जीवंत बने रहना जरूरी है, लेकिन सीमेंट, कांक्रीट और बायपास सड़क निर्माण के लिए कई जगहों से इन पर्वत श्रेणियों को काटा जा रहा है।
सह्य (सह्याद्रि) पर्वत में से निकलने वाली नदियां-
गोदावरी, भीमरथी (भीमा), कृष्णवेण्या (कृष्णा), वेण्या (वेणा), तुंगभद्रा, सुप्रयोगा (हगरी), बाह्य (वरदा), कावेरी और बंजुला (मंजीरा)।
जंगल -
पश्चिमी घाट के जंगलों में कम से कम 84 उभयचर प्रजातियां और 16 चिड़ियों की प्रजातियां और 7 स्तनपायी और 1,600 फूलों की प्रजातियां पाई जाती हैं, जो विश्व में और कहीं नहीं हैं। पश्चिमी घाट में स्थित नीलागिरि बायोस्फियर रिजर्व का क्षेत्र 5,500 वर्ग किलोमीटर है, जहां सदा हरे-भरे रहने वाले और मैदानी पेड़ों के वन मौजूद हैं।
(8) ऋक्ष पर्वत -
विंध्य मेखला का पूर्वी भाग, जो बंगाल की खाड़ी से लेकर शोण नदी (सोन नदी) के उद्गम तक फैला हुआ है। इस पर्वत श्रृंखला में शोण नद के दक्षिण छोटा नागपुर तथा गोंडवाना की भी पहाड़ियां सम्मिलित हैं। यह पर्वत भी प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है।
ऋक्ष पर्वत में से उद्गम पानी वाली नदियां-
मंदाकिनी, दशार्णा (धसान), चित्रकूटा, तमसा (तौंस), पिप्पलिश्रोणी (पैसुनी), पिशाचिका, करमोदा या करतोया (कर्मनाशा), चित्रोत्पला या नीलोत्पला, विपाशा या विमला (बेवास), वंजुला या चंचला (जम्नी), बालुवाहिनी (वधैन), सुमेरुजा या सितेरजा (सोनार- बीरमा), शुक्तिमती (केन, शुक्ली या मक्षुणा (सक्री), त्रिविदा या ह्रदिका और क्रमू या क्रमात (क्रम्ह)।
(9) चित्रकूट -
यह पर्वत प्राचीन भारत के सप्तकुल पर्वतों में से एक है। पुराणों एवं भारतीय धर्मग्रंथों में चित्रकूट पर्वत की महिमा अनेक रूपों में वर्णित की गई है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा है कि जब तक मनुष्य चित्रकूट के शिखरों का अवलोकन करता रहता है, तब तक वह कल्याण मार्ग पर चलता रहता है तथा उसका मन पापकर्म में नहीं फंसता, साथ ही मानसिक आपत्ति से बचा रहता है। चित्रकूट इसी विंध्य मेखला के अंतर्गत है।
(10) हिन्दूकुश पर्वत -
यह पर्वतमाला अफगानिस्तान में स्थित है। अफगानिस्तान कभी आर्याना हुआ करता था। इसे भारतवर्ष का सीमांत प्रांत माना जाता था। अरावली के बाद इस पर्वत को भी पारियात्र पर्वत कहा जाता था। हिन्दूकुश उत्तरी पाकिस्तान से मध्य अफगानिस्तान तक विस्तृत एक 800 किमी लंबी वाली पर्वत श्रृंखला है। यह पर्वतमाला हिमालय क्षेत्र के अंतर्गत आती है।
दरअसल, हिन्दूकुश पर्वतमाला पामीर पर्वतों से जाकर जुड़ते हैं और हिमालय की एक उपशाखा माने जाते हैं। पामीर का पठार, तिब्बत का पठार और भारत में मालवा का पठार धरती पर रहने लायक सबसे ऊंचे पठार माने जाते हैं। प्रारंभिक मनुष्य इसी पठार पर रहते थे।
हिन्दूकुश पर्वतमाला में ऐसे बहुत से दर्रे हैं जिसके उस पार कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, चीन, रशिया, मंगोलिया, रशिया आदि जगह जा सकते हैं। हिन्दूकुश पर्वत का पहले नाम पारियात्र पर्वत था। कुछ विद्वान इसे परिजात पर्वत भी कहते हैं। इसका दूसरा नाम हिन्दूकेश भी था। केश का अर्थ अंतिम सिरा।
प्रमुख नदियां -
यहां से निकलने वाली नदियों में कुम्भा (काबुल, कोफेसा नदी), सुवस्तु (स्वात नदी), गोमल नदी आदि। जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरूद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, कुरम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे।
कुलपर्वत भारत के प्रमुख पर्वत कहे गए हैं। पुराणों के अनुसार इनकी संख्या 7 है। 'वायुपुराण' में 'महेन्द्र', 'मलय', 'सह्य', 'शुक्तिमान', 'ऋक्ष', 'विंध्य' तथा 'पारिपात्र' (अथवा पारियात्र) पर्वतों को कुलपर्वतों के अंतर्गत गिना गया है।
भारतवर्ष का वर्णन -
समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है। इसका विस्तार 9 हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है।
इसमें 7 कुल पर्वत हैं : महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र (हिन्दूकुश या अरावली)।
भारतवर्ष के 9 खंड -
इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गंधर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है।
मुख्य नदियां -
शतद्रू, चंद्रभागा, वेद, स्मृति, नर्मदा, सुरसा, तापी, पयोष्णी, निर्विन्ध्या, गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, कृतमाला, ताम्रपर्णी, त्रिसामा, आर्यकुल्या, ऋषिकुल्या, कुमारी आदि नदियां जिनकी सहस्रों शाखाएं और उपनदियां हैं।
तट के निवासी -
इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, सन्धव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं।
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