शिव उपासना की उच्च स्थिति है अघोर उपासना। सामान्यतः लोग अघोर का मतलब तांत्रिक मांत्रिक ओर घोर कर्म समज लेते है । और आजके युगमे अज्ञानी ओर कपटी लोगोने धन संपत्ति कमाने केलिए विचित्र ओर भयावह वेशभूषा करके इस पवित्र और उच्च उपासना को बदनाम किया है । अघोर का मतलब जो घोर नही है , सरल ,सहज है । संसार के मोह ओर मत्सर भाव को त्याग करने हेतु श्मशान या एकांत स्थानमे साधक रहता है और इसलिए लोग नाहक ही डरते है या दूरी बनाए रखते है ।
अघोर साधनाएं मुख्यतः श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है। शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है। अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों 'अ' और 'घोर' से मिल कर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो।
प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है। बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता।
अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।
भारत के कुछ प्रमुख अघोर स्थान
वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं। गिरनार परिक्रमा मे अगर सुरता हो तो अघोर उपासक का दर्शन अवश्य ही होता है । पर हमारे मनमे जो कल्पना होती है ऐसा रूप हो वो जरूरी नही । सफेद वस्त्रों मे सौम्य स्वभाब ओर नम्रता पूर्वक बात करते अघोरी साधु अनेक शक्तिओ से सिद्ध होते है।
वाराणासी में क्रींकुण्ड अघोर सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र है। परन्तु क्रींकुण्ड से ही एक और शाखा का उदय 1916 में हुआ जो अपने को बहुत ही गुप्त एवम शांत तरीके से चकाचौंध से दूर ,फकीरी कुटिया के रूप में हुआ। क्रींकुण्ड के छठे पीठाधीश्वर बाबा 108 श्री जय नारायण राम जी महाराज के प्रिय शिष्य अघोराचार्य बाबा 108 श्री गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज थे ।बाबा जय नारायण राम जी महाराज ने गुरु दक्षिणा में अपने प्रिय शिष्य बाबा गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज ,जो कि एक कायस्थ कुल में जन्मे हुए थे , उनसे तीन चीज माँगा...1- अघोराचार्य बाबा 108 श्री कीनाराम जी महाराज की तीनों पांडुलिपियों को छपवाकर प्रचार प्रसार करने की जिम्मेदारी ,2-आप अपने नाम के अंत मे आनन्द लगाए 3-और उनके बाद क्रींकुण्ड की महंती को स्वीकार करना। बाबा गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज भी अपने गुरु की तरह बहुत ही दुर्दशी थे अतः उन्होंने पहले दोनों बातो के लिए तुरंत ही अपनी सहमति दे दी परन्तु क्रींकुण्ड पर सातवे महन्त के रूप में पीठासीन होने की बात बड़े ही विनम्रता से मना कर बोला कि जिस स्थान पर हमारे गुरु विराजमान हो , उस स्थान पर महंती पर बैठना उनके जैसे तुच्छ शिष्य की सामर्थ्य में नही है ।हमे तो आपका आशीर्वाद एवम फकीरी चाहिए। यह कहकर उन्होंने अपने गुरु एवम क्रींकुण्ड के छठवें महन्त अघोराचार्य बाबा 108 श्री जय नारायण राम जी महाराज की खड़ाऊ अपने निज भवन सेनपुरा चेतगंज वाराणसी में लाकर अघोर की आराधना में लीन हो गए और करीब 700 से ज्यादा किताबे लिखी जिनमे से आज भी कुछ बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के लायब्रेरी में जमा है और ऐसी ऐसी सिद्धियां अर्जित करके मानव समाज के भलाई के कार्य किये।किसी को जिंदा कर देना तो कभी नाराज होने पर किसी को लड़का से लड़की बना देना छड़ी मारकर तो कभी गोरखपुर में आग लगे तो निम के पेड़ में पानी डाल दे तो आग वभ बुझ जाए और न जाने कितने अनगिनत चमत्कार किये। इन्हें तो बस अपने गुरु की भक्ति एवम फकीरी चाहिए थी सो इन्होंने बहुत विरला ही शिष्य बनाये। परन्तु इनके समाधि के बाद बाबा गोपाल चन्द्र आनन्द जी महाराज ।फिर बाबा राधेकृष्ण आनन्द जी एवम वर्तमान में बाबा लाल बाबू आनन्द जी अघोर सम्प्रदाय की साधना करते हुए क्रींकुण्ड के बाबा छठे पीठाधीश्वर अघोराचार्य बाबा जय नारायण राम जी महाराज की वन्दना करते हुए इस परंपरा को क्रियान्वित कर है।
अघोर पंथ, नर भक्षण और भ्रांतियां
अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोर एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं। लोक मानस में अघोर संप्रदाय के बारे में अनेक भ्रांतिया और रहस्य कथाएं भी प्रचलित हैं। अघोर विज्ञान में इन सब भ्रांतियों को खारिज कर के इन क्रियाओं और विश्वासों को विशुद्ध विज्ञान के रूप में तार्किक ढ़ंग से प्रतिष्ठित किया गया है।
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