महाराज ऋषभदेव की कथा, भागवत पुराण, पंचम स्कंध, अध्याय 3-7

Sooraj Krishna Shastri
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ऋषभदेव जी का चित्र, जिसमें उन्हें शांत और ध्यानमग्न मुद्रा में दर्शाया गया है।
ऋषभदेव जी का चित्र, जिसमें उन्हें शांत और ध्यानमग्न मुद्रा में दर्शाया गया है।


 महाराज ऋषभदेव की कथा भागवत पुराण के पंचम स्कंध, अध्याय 3-7 में विस्तार से वर्णित है। ऋषभदेव भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य धर्म, ज्ञान, और वैराग्य की स्थापना करना था। वे महाराज नाभि और मेरु देवी के पुत्र थे।

ऋषभदेव का जन्म और परिचय

महाराज नाभि और मेरु देवी ने भगवान विष्णु की तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। वे अपनी अद्भुत दिव्यता और गुणों के कारण प्रसिद्ध हुए।

श्लोक:

ऋषभो नाम भूपालो धर्मज्ञः सत्यविक्रमः।

आत्मज्ञो भगवज्ज्ञो नित्यं आनन्दलक्षणः।।

(भागवत पुराण 5.4.5)

भावार्थ:

ऋषभदेव धर्म, सत्य, और आत्मज्ञान से परिपूर्ण थे। वे भगवद्भक्ति में सदैव लीन रहते थे और आनंदमय स्वभाव के थे।

ऋषभदेव का राज्य और आदर्श शासन

ऋषभदेव ने युवावस्था में अपने पिता महाराज नाभि का राज्य संभाला। उन्होंने न्याय और धर्म के अनुसार शासन किया। उनके शासनकाल में प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। उन्होंने सभी को भक्ति और आध्यात्मिक जीवन का महत्व समझाया।

श्लोक:

स एव राजो महिषीभिः सत्सुतैः।

धर्म्यं विधिं दण्डधरस्त्रिनेत्रः।

प्रकर्षतोऽनुग्रहतोऽर्थयोनिर।

अयुक्षत प्रजा भूतरिणो गृहेषु।।

(भागवत पुराण 5.4.9)

भावार्थ:

ऋषभदेव ने अपने धर्मयुक्त शासन से प्रजा को कर्तव्य और अध्यात्म की ओर प्रेरित किया।

100 पुत्रों की शिक्षा

ऋषभदेव के 100 पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े पुत्र भरत थे, जिनके नाम पर भारतवर्ष का नाम पड़ा। उनके अन्य पुत्रों में कुछ राजधर्म का पालन करने वाले बने, और कुछ ने ब्रह्मचर्य व तपस्या का मार्ग अपनाया।

ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को धर्म, राजनीति और वैराग्य का उपदेश दिया।

श्लोक:

*पितुर्वचः पर्यनुशृण्वतो मखं।

धर्मान्वितं यः परमो महान्।।

(भागवत पुराण 5.5.1)

भावार्थ:

ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को शिक्षा दी कि सच्चा धर्म ईश्वर भक्ति, वैराग्य और आत्मज्ञान है।

ऋषभदेव का उपदेश

1. संसार में मनुष्य को धर्म और सत्य का पालन करना चाहिए।

2. मनुष्य का जीवन केवल भोग-विलास के लिए नहीं, बल्कि मोक्ष प्राप्ति के लिए है।

3. आत्मा अमर है, और शरीर नश्वर है।

श्लोक:

नायं देहो देहभाजां नृलोके।

कष्टान्कामानर्हते वित्पजां ये।

तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं।

शुद्ध्येद्यस्माद्ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्।।

(भागवत पुराण 5.5.1) 

भावार्थ:

ऋषभदेव ने कहा, "मनुष्य का यह शरीर केवल भोग के लिए नहीं है। इसे तपस्या और ईश्वर भक्ति के लिए उपयोग करना चाहिए, जिससे शुद्धता और अनंत ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो।"

ऋषभदेव का वैराग्य और सन्यास

राज्य और परिवार के सभी कार्य पूर्ण करने के बाद ऋषभदेव ने वैराग्य धारण कर दिया। उन्होंने राजपाट अपने पुत्र भरत को सौंप दिया और स्वयं तपस्या के लिए वन में चले गए।

श्लोक:

स एवमात्मनि नित्यनिवृत्त।

द्रष्टा महर्षिः परमो महान्।

संसारकूपे पतितं विशोकं।

मोक्षाय गच्छन् जगतामभीष्टः।।

(भागवत पुराण 5.6.6)

भावार्थ:

ऋषभदेव ने संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए तपस्या का मार्ग अपनाया।

ऋषभदेव की अवस्था और मोक्ष

वैराग्य धारण करने के बाद ऋषभदेव ने पूर्णतः तपस्या और ध्यान में लीन होकर अपने जीवन के अंतिम समय में शरीर का त्याग किया। वे जंगली प्रदेशों में विचरण करते हुए अपनी तपस्या से शरीर और आत्मा का पूर्ण योग कर ब्रह्मलीन हो गए।

श्लोक:

देहं च विद्धं च परोक्षभाषं।

भूतं भविष्यं प्रतिकर्मपथ्यं।

मोहं च मायां च स कर्महेतुं।

सन्दीपयन् लोकमिमं स रेजे।।

(भागवत पुराण 5.6.11)

भावार्थ:

ऋषभदेव ने आत्मज्ञान से मोह, माया और संसार के बंधनों को त्याग दिया और ब्रह्म में लीन हो गए।

ऋषभदेव की कथा का महत्व

1. धर्म और भक्ति: ऋषभदेव ने अपने जीवन से दिखाया कि धर्म का पालन और ईश्वर भक्ति मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

2. राजधर्म और वैराग्य: उन्होंने अपने जीवन के प्रथम भाग में आदर्श राजधर्म का पालन किया और बाद में वैराग्य अपनाकर मोक्ष का मार्ग दिखाया।

3. मानव जीवन का उद्देश्य: ऋषभदेव ने उपदेश दिया कि मनुष्य को केवल भौतिक सुखों के पीछे नहीं भागना चाहिए, बल्कि आत्मज्ञान और ईश्वर की शरण में जाना चाहिए।

निष्कर्ष

ऋषभदेव की कथा भागवत पुराण में एक प्रेरणा है कि मानव जीवन का उद्देश्य भक्ति, तपस्या और आत्मज्ञान है। उनके उपदेश और जीवन का हर पहलू एक आदर्श प्रस्तुत करता है, जो हर युग में प्रासंगिक है।

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