संस्कृत श्लोक: "चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रिया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रिया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रिया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रिया" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

जय श्री राम! सुप्रभातम्!
 प्रस्तुत श्लोक अत्यंत व्यावहारिक और दूरदर्शिता का शिक्षण देने वाला है। आइए इसका शाब्दिक, व्याकरणिक, भावात्मक एवं आधुनिक सन्दर्भ सहित विस्तृत विश्लेषण करते हैं:


श्लोक

चिन्तनीया हि विपदाम् आदावेव प्रतिक्रिया ।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वन्हिना गृहे ॥


शाब्दिक अर्थ (पदविच्छेद सहित):

  • चिन्तनीया – विचार करने योग्य
  • हि – निश्चय ही, वास्तव में
  • विपदाम् – विपत्तियों की (बहुवचन, षष्ठी विभक्ति)
  • आदौ एव – आरंभ में ही
  • प्रतिक्रिया – प्रतिक्रिया, उपाय
  • न युक्तं – उचित नहीं
  • कूपखननं – कुआँ खोदना
  • प्रदीप्ते वन्हिना – जलती हुई अग्नि से (जब आग लग चुकी हो)
  • गृहे – घर में

हिंदी भावार्थ:

विपत्तियों के लिए पहले से ही प्रतिक्रिया या उपाय सोच लेना चाहिए, क्योंकि जब घर में आग लग चुकी हो, तब कुआँ खोदना व्यर्थ है।


भावार्थ व नीति-संदेश:

यह श्लोक एक गहरी प्रबंधन नीति (management principle) सिखाता है –
"समस्या आने से पहले उसकी तैयारी करें।"

  • यदि हम जीवन, कार्य या समाज में पूर्व-चिन्तन (proactive planning) नहीं करते, तो संकट के समय उपाय करना व्यर्थ और देर से किया गया प्रयास होता है।
  • जैसे कोई व्यक्ति बीमार होने के बाद स्वास्थ्य की चिंता करता है, पर यदि वह पहले से संयमित जीवन अपनाए तो बीमारी आ ही न पाए।
  • यह नीति शासन, परिवार, शिक्षा, व्यापार, हर क्षेत्र में लागू होती है।

आधुनिक सन्दर्भ में उपयोगिता:

  • आपदा प्रबंधन: सरकारों को भूकंप, बाढ़ आदि के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए।
  • विद्यार्थियों के लिए: परीक्षा के दिन पढ़ना नहीं, पहले से तैयारी जरूरी है।
  • व्यवसाय के लिए: जोखिम प्रबंधन, बीमा, बैकअप योजना जरूरी है।
  • सामाजिक जीवन में: रिश्तों को सुधारने हेतु संकट से पहले ही संवाद रखना चाहिए।

व्याकरणिक दृष्टि से:

  • चिन्तनीया – तव्य-प्रत्यय, कर्मणि प्रयोग, "चिन्तनीय" = जिसे सोचना चाहिए
  • प्रदीप्ते – "दीप्त" (जलता हुआ) + "प्र" उपसर्ग = प्रज्वलित
  • वन्हिना – अग्नि द्वारा (तृतीया विभक्ति)
  • गृहे – स्थानवाचक सप्तमी

नीति-कथा:

शीर्षक: “बुद्धिमान किसान”

एक किसान ने अपने खेत के पास कुआँ खोदा और उसमें पानी जमा किया। पड़ोसी ने पूछा – “अब तो बारिश हो रही है, अब क्यों खोद रहे हो?”

किसान बोला – “बारिश सदा नहीं रहेगी। जब सूखा पड़ेगा, तब इसका मूल्य समझोगे।”

कुछ वर्षों बाद सूखा पड़ा, और केवल उसी किसान की फसल बची। शेष किसान पछताए – "काश हमने भी समय रहते उपाय किया होता!"

यही श्लोक का संदेश है – "प्रदीप्ते वन्हिना गृहे कूपखननं व्यर्थ है।"

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