संस्कृत श्लोक: "मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

जय श्री राम! सुप्रभातम्!
 प्रस्तुत श्लोक अत्यंत शिक्षाप्रद है और बालकों के शिक्षण व पालन-पोषण में माता-पिता की भूमिका पर गहन दृष्टिकोण प्रदान करता है। आइए इसका विस्तार से विश्लेषण करें:


श्लोक

मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः।
न गर्भच्युतिमात्रेण पुत्रो भवति पण्डितः॥


शाब्दिक अर्थ (पदविच्छेद सहित):

  • मातृ-पितृ-कृत-अभ्यासः – माता-पिता द्वारा कराया गया अभ्यास
  • गुणिताम् – गुणों से युक्त (संस्कारशील, विद्वान)
  • एति – प्राप्त करता है
  • बालकः – बालक, पुत्र
  • – नहीं
  • गर्भ-च्युति-मात्रेण – केवल गर्भ से बाहर आ जाने से
  • पुत्रः – बेटा
  • भवति – होता है
  • पण्डितः – विद्वान

हिंदी भावार्थ:

बालक माता-पिता के अभ्यास (शिक्षण, संस्कार) से ही गुणवान बनता है। केवल जन्म लेकर ही कोई पुत्र विद्वान नहीं हो जाता।


व्याकरणिक विश्लेषण:

  • कृताभ्यासःकृ धातु से "कृत", अभ्यास किया गया; विशेषण रूप
  • गुणिताम् एतिगुण धातु से निष्पन्न "गुणित" = गुणों से युक्त; एति = प्राप्त करता है
  • गर्भच्युतिमात्रेणगर्भ = गर्भ; च्युतिः = बाहर आना; मात्रेण = केवल
  • पण्डितः – पाण्डित्ययुक्त, विद्वान; पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति

आधुनिक सन्दर्भ में विश्लेषण:

  • यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि वंश, परिवार, या जन्म केवल प्रारम्भ है, परंतु संस्कार, शिक्षा, और प्रशिक्षण ही किसी व्यक्ति को महान बनाते हैं।
  • माता-पिता का कर्तव्य केवल संतान को जन्म देना नहीं, अपितु उसे संस्कार देना, अभ्यास कराना, और सत्पथ दिखाना है।
  • कोई भी बालक जन्म से ज्ञानी नहीं होता – ज्ञान, नीति, शील और गुण उसके पालन-पोषण और सतत अभ्यास से आते हैं।
  • वर्तमान समय में, जब शिक्षा को केवल स्कूलों पर निर्भर किया जा रहा है, यह श्लोक याद दिलाता है कि घर ही पहला विद्यालय है और माता-पिता पहले गुरु।

नीति सन्देश:

"शुद्ध वंश नहीं, सुसंस्कार महानता का आधार है।"
"जन्म देना पर्याप्त नहीं, संस्कार देना ही सच्चा पालन है।"


एक लघु नीति-कथा:

शीर्षक: “पुत्र और पाण्डित्य”

एक ब्राह्मण अपने पुत्र को गर्व से कहता, “तू ब्राह्मण कुल में जन्मा है, विद्वान बनना तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” पुत्र आलसी था, पढ़ता नहीं, पर हर किसी से कहता, “मैं पण्डित का बेटा हूँ!”

एक दिन गाँव में सभा हुई। वहाँ शास्त्र-चर्चा हुई, और उस लड़के से प्रश्न पूछे गए, पर वह एक का भी उत्तर नहीं दे सका। लोग हँस पड़े।
वहीं एक निर्धन किसान का पुत्र आया जिसने कड़ी मेहनत से सीखा था। उसने सभी प्रश्नों के उत्तर दिये और आदर पाया।

ब्राह्मण लज्जित हुआ और श्लोक स्मरण किया –
"न गर्भच्युतिमात्रेण पुत्रो भवति पण्डितः"।

उस दिन से वह अपने पुत्र को अभ्यास कराने लगा – और वह वास्तव में पण्डित बना।

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