संस्कृत श्लोक: "बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम! सुप्रभातम्!
 प्रस्तुत श्लोक अत्यंत सारगर्भित एवं गूढ़ नीति से परिपूर्ण है, जो धर्म के बिना जीवन की निःसारता को उजागर करता है।


श्लोक

बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खश्च यो धर्मविमुखो जनः ॥


शाब्दिक अर्थ (पदविच्छेद सहित):

  • बलवान् अपि – बलशाली होते हुए भी
  • अशक्तः असौ – वह अशक्त होता है
  • धनवान् अपि – धनसम्पन्न होते हुए भी
  • निर्धनः – निर्धन होता है
  • श्रुतवान् अपि – शास्त्रज्ञ होते हुए भी
  • मूर्खः च – मूर्ख होता है
  • यः धर्म-विमुखः जनः – जो धर्म से विमुख व्यक्ति है

हिंदी भावार्थ:

जो व्यक्ति धर्म से विमुख है, वह बलवान होते हुए भी अशक्त, धनवान होते हुए भी निर्धन, और विद्वान होते हुए भी मूर्ख ही समझा जाता है।


भावार्थ व शिक्षा:

  • धर्म किसी संप्रदाय विशेष तक सीमित नहीं, यह कर्तव्य, सदाचार, सत्य, न्याय और आत्मकल्याण का समुच्चय है।
  • यदि कोई व्यक्ति इनका परित्याग करता है, तो उसके बाह्य बल, संपत्ति या ज्ञान का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
  • धर्मविहीन जीवन में सत्य का प्रकाश नहीं, इसलिए वह मूर्खता और अधोगति की ओर अग्रसर होता है।

नीति-कथा – "धर्महीन बलि"

प्राचीन काल में एक बलशाली राजा था। उसके पास धन, सेना, और विद्वानों का समूह था, परंतु वह धर्म की उपेक्षा करता था। उसने दया, सत्य और न्याय को त्याग दिया। शीघ्र ही प्रजा उससे विमुख हो गई, विद्वान दरबार छोड़ गए, और उसकी सेना में भी फूट पड़ गई।

एक वृद्ध मुनि ने उससे कहा –
"राजन्! तू बलवान, धनवान और ज्ञानी होते हुए भी अशक्त, निर्धन और मूर्ख बन गया है – क्योंकि तू धर्म से विमुख हो गया है।"

राजा को बोध हुआ, और उसने पुनः धर्म का पालन आरम्भ किया – जिससे उसका राज्य पुनः समृद्ध हुआ।


संक्षेप में नीति-संदेश:

"धर्म ही जीवन का मूल स्तंभ है। धर्म से विमुख व्यक्ति बाह्यरूप से जितना भी तेजस्वी दिखे, वह भीतर से शून्य होता है।"

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