पश्चिम की ओर देखती आँखें और पूर्व की भूली पहचान
🔸 प्रस्तावना: पश्चिम की ओर देखती आँखें और पूर्व की भूली पहचान
वर्तमान समय में हम यह देख रहे हैं कि भारतीय समाज, विशेषतः नई पीढ़ी, जीवन के हर क्षेत्र में पश्चिमी मानकों को श्रेष्ठ मानने लगी है। चाहे त्योहार हों, सामाजिक उत्सव हों या जीवनशैली – हम अपनी मौलिकता छोड़, पश्चिमी फोटोकॉपी अपनाने में गर्व अनुभव कर रहे हैं।
🔸 भारतीय पर्व और पश्चिमी विकल्प: तुलना या प्रतिस्थापन?
भारतवर्ष की संस्कृति इतनी प्राचीन, गूढ़ और जीवन-संवादी है कि हर भाव, संबंध, ऋतु और उद्देश्य के लिए एक विशिष्ट पर्व या उपासना पद्धति हमारे पास पहले से ही उपलब्ध रही है। किंतु अब, उसी भाव को दोहराने के लिए पश्चिमी ‘डेज़’ का चलन आरंभ हो गया है। आइए, कुछ उदाहरण देखें:
📿 सनातन परंपरा | 🎈 पश्चिमी विकल्प |
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मातृनवमी, मातृ-पितृ पूजन | Mother's Day |
गुरुपूर्णिमा | Teacher’s Day |
संतान सप्तमी | Children’s Day |
रक्षाबंधन | Sister’s Day |
भाईदूज | Brother’s Day |
कौमुदी महोत्सव | Valentine’s Day |
धन्वंतरि जयंती | Doctor’s Day |
विश्वकर्मा जयंती | Technology Day |
आंवला नवमी, तुलसी विवाह | Environment Day |
यह महज़ संयोग नहीं, एक सोचा-समझा सांस्कृतिक प्रतिस्थापन है। जहां हमारी चेतना को धीरे-धीरे पश्चिम के तथाकथित ‘प्रगतिशील’ विचारों के अनुसार ढाला जा रहा है, वहीं हमारी मूल संस्कृति को अप्रासंगिक घोषित किया जा रहा है।
🔸 पश्चिमी 'डे' संस्कृति की मौलिकता बनाम भारतीय 'त्योहारों' की भावधारणा
पश्चिमी ‘डेज़’ एक ही दिन की स्मृति हैं, जबकि भारतीय उत्सव भाव और व्यवहार की परंपरा हैं।
उदाहरणार्थ:
- मातृनवमी केवल मां को याद करने का दिन नहीं, अपितु उसे पूजा का स्थान देने वाला पर्व है – मां को ईश्वर के रूप में देखना। इसके विपरीत Mother's Day उपहार, कार्ड और सोशल मीडिया स्टेटस तक सीमित हो गया है।
- गुरुपूर्णिमा में गुरु के प्रति श्रद्धा के साथ आत्मसमर्पण है। जबकि Teacher’s Day मात्र औपचारिक अभिनंदन बन कर रह गया है।
🔸 सनातन के पर्व: केवल धार्मिक नहीं, जीवन वैज्ञानिक उपादान हैं
भारतीय त्योहार केवल भावनात्मक नहीं, गहरे वैज्ञानिक, सामाजिक और आत्मिक कारणों से जुड़े होते हैं:
- धन्वंतरि जयंती शरीर और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का पर्व है।
- विश्वकर्मा जयंती तकनीक और निर्माण के आराध्य की पूजा है, न कि मात्र एक इंजीनियरिंग डे।
- नवरात्रि में शक्ति की उपासना, स्त्री सशक्तिकरण की गहराई से जुड़ी हुई है।
ये पर्व जीवन के प्रत्येक पक्ष – शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक और आध्यात्मिक – का संतुलन बनाए रखते हैं।
🔸 क्या आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों से कट जाना है?
आज की शिक्षा प्रणाली, संचार माध्यम और बाजारवाद, एक ऐसी मानसिकता विकसित कर रहे हैं जिसमें “भारतीयता” पिछड़ेपन का प्रतीक बन चुकी है और “अंग्रेज़ियत” आधुनिकता का। यह मानसिक उपनिवेशवाद (Mental Colonialism) हमारे आत्मविश्वास को भीतर से खोखला कर रहा है।
जब जड़ें कटती हैं, तो पेड़ हरा नहीं रह सकता।जब संस्कृति विस्मृत होती है, तो समाज दिशाहीन हो जाता है।
🔸 समाधान: मूल की ओर लौटना, केवल गर्व नहीं, उत्तरदायित्व है
- जागरूकता: युवा पीढ़ी को यह बताना आवश्यक है कि हमारे पर्व केवल 'रीति-रिवाज' नहीं, बल्कि 'संजीवनी' हैं।
- शिक्षा में समावेश: पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति, पर्वों, और परंपराओं का वैज्ञानिक और सामाजिक महत्त्व समझाया जाए।
- घर से शुरुआत: मातृ-पितृ पूजन, तुलसी विवाह, कन्या पूजन जैसी परंपराओं को पुनः घरों में जीवंत किया जाए।
- मीडिया और सोशल मीडिया: पश्चिमी ‘डे’ की तरह ही भारतीय पर्वों के प्रचार-प्रसार हेतु रचनात्मक अभियान चलाए जाएं।
🔸 निष्कर्ष: जब आपके पास अमृत है, तो कीचड़ क्यों चुनें?
"जब हमारे पास अमृत से भरे कलश हैं, तो हम उन्हें छोड़ कीचड़ क्यों भरें?"
सनातन संस्कृति केवल आस्था नहीं, अनुभव है। यह कोई पुरातन वस्त्र नहीं जिसे पहनने में संकोच हो, अपितु एक ऐसा तेज है जिससे युग प्रकाशित हुए हैं।
हमारे पर्व, व्रत, उत्सव – ये सभी मिलकर एक सामूहिक चेतना का निर्माण करते हैं, जो केवल संस्कृति की नहीं, सभ्यता की आत्मा है।
तो आइए, पश्चिम की छाया नहीं, पूर्व का प्रकाश बनें। अपनी जड़ों की ओर लौटें – और ‘जीवित संस्कृति’ के वाहक बनें।