संस्कृत श्लोक "विषमां हि दशां प्राप्य दैवं गर्हयते नरः" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
यहाँ मैं इस श्लोक का एक व्यवस्थित और विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें संस्कृत मूल, अंग्रेज़ी ट्रान्सलिटरेशन, हिन्दी अनुवाद, व्याकरणात्मक विश्लेषण, आधुनिक सन्दर्भ और एक संवादात्मक नीति-कथा शामिल है।
१. संस्कृत मूल श्लोक
विषमां हि दशां प्राप्य दैवं गर्हयते नरः ।
आत्मनः कर्मदोषांस्तु नैव जानात्यपण्डितः ॥
२. अंग्रेज़ी ट्रान्सलिटरेशन (IAST)
viṣamāṃ hi daśāṃ prāpya daivaṃ garhayate naraḥ ।
ātmanaḥ karmadoṣāṃs tu naiva jānāty apaṇḍitaḥ ॥
३. पद-पद अर्थ (Word-by-Word Meaning)
संस्कृत पद | प्रकार | अर्थ |
---|---|---|
विषमाम् | विशेषण | कठिन, विपरीत |
दशाम् | संज्ञा | अवस्था, स्थिति |
प्राप्य | कृदन्त | पाकर, प्राप्त करके |
दैवम् | संज्ञा | भाग्य, fate |
गर्हयते | क्रिया | दोष देता है, blames |
नरः | संज्ञा | मनुष्य |
आत्मनः | सर्वनाम | अपने |
कर्मदोषान् | संज्ञा | कर्म के दोष, गलतियाँ |
तु | अव्यय | किन्तु, but |
न एव | अव्यय | बिल्कुल नहीं |
जानाति | क्रिया | जानता है |
अपण्डितः | विशेषण | अज्ञानी, मूर्ख |
४. सरल हिन्दी अनुवाद
जब कोई मूर्ख कठिन परिस्थिति में पड़ता है, तो वह अपने भाग्य को दोष देता है; किन्तु अपने ही कर्मों की गलतियों को वह कभी नहीं पहचानता।
५. English Translation
When a fool falls into trouble, he blames fate; but he never realizes that his own wrong actions are the true cause of his suffering.
६. व्याकरणिक विश्लेषण (Grammatical Analysis)
- विषमाम् दशाम् — कर्मधारय समास, "कठिन अवस्था"
- प्राप्य — कृदन्त (ल्यबन्त), "प्राप्त करके"
- गर्हयते — लट् लकार, आत्मनेपदी, प्रथम पुरुष, एकवचन, "दोष देता है"
- कर्मदोषान् — द्वंद्व-समास, "कर्म + दोष" (कर्म की गलतियाँ)
- अपण्डितः — नञ्-प्रत्यय + पण्डित, "जो पण्डित नहीं है"
७. आधुनिक सन्दर्भ (Modern Relevance)
- आजकल भी कई लोग असफलता या कठिनाई आने पर परिस्थितियों, सरकार, या भाग्य को दोष देते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि उनके निर्णय, आदतें और कर्म ही मुख्य कारण हो सकते हैं।
- आत्मचिन्तन और आत्मजवाबदेही (Self-accountability) ही प्रगति की कुंजी है।
८. संवादात्मक नीति-कथा
शीर्षक: "दर्पण और धूल"
एक गाँव में एक व्यक्ति हर असफलता के लिए अपने तारे-भाग्य को दोष देता था।
एक दिन गाँव के बुजुर्ग ने उसे एक धूल से भरा दर्पण दिया और कहा — “इसे साफ़ करो और देखो।”
उसने दर्पण साफ़ किया और अपना चेहरा स्पष्ट देखा।
बुजुर्ग ने कहा — “भाग्य को दोष देना ऐसे है जैसे धूल लगे दर्पण को देखते हुए कहना कि चेहरा गंदा है। पहले अपने कर्मों की धूल हटाओ, फिर भाग्य भी चमकेगा।”
नीति: भाग्य से पहले कर्म को देखो, क्योंकि बीज बोने वाला हम ही हैं, मौसम नहीं।
९. सार-सूत्र (Takeaway)
मूर्ख की सोच | ज्ञानी की सोच |
---|---|
"भाग्य ने धोखा दिया" | "मेरे कर्मों ने यह फल दिया" |
बाहरी दोष ढूँढना | आत्मचिन्तन करना |
सुधार नहीं करना | अनुभव से सीखना |