संस्कृत श्लोक "दरिद्रान् भर कौन्तेय समृद्धान् न कदाचन" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक "दरिद्रान् भर कौन्तेय समृद्धान् न कदाचन" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 

🌸 जय श्रीराम। सुप्रभातम्। प्रस्तुत श्लोक अत्यंत अर्थगर्भित, नीतिपरक और सामाजिक न्याय का संदेश देने वाला है। आइए इसका विस्तृत विश्लेषण करते हैं, जिसमें सम्मिलित होंगे —
संस्कृत मूल, अंग्रेजी लिप्यंतरण (Transliteration), हिंदी अनुवाद, व्याकरण, आधुनिक संदर्भ, और एक संवादात्मक नीति-कथा।


🌿 संस्कृत मूल श्लोक:

दरिद्रान् भर कौन्तेय समृद्धान् न कदाचन ।
व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरोगस्य किमौषधैः ॥


🔤 Transliteration (अंग्रेजी लिप्यंतरण):

Daridrān bhara Kaunteya samṛddhān na kadācana |
Vyādhitasyauṣadhaṁ pathyaṁ nīrogasya kimauṣadhaiḥ ||


🇮🇳 हिंदी अनुवाद:

हे कुन्तीपुत्र! निर्धनों (गरीबों) का पालन-पोषण करो, कभी भी समृद्ध लोगों का नहीं।
जैसे रोगी के लिए औषधि और उचित आहार आवश्यक होता है, परंतु जो निरोग है, उसे औषधि की क्या आवश्यकता?

संस्कृत श्लोक "दरिद्रान् भर कौन्तेय समृद्धान् न कदाचन" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
संस्कृत श्लोक "दरिद्रान् भर कौन्तेय समृद्धान् न कदाचन" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 

 


🧠 व्याकरणात्मक विश्लेषण:

पद पद का प्रकार रूप अर्थ
दरिद्रान् संज्ञा (पुं.) बहुवचन, द्वितीया निर्धनों को
भर धातु (√भृ) लोट् लकार, मध्यम पुरुष पालन करो
कौन्तेय संज्ञा सम्बोधन कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
समृद्धान् संज्ञा (पुं.) बहुवचन, द्वितीया सम्पन्न लोगों को
न कदाचन अव्यय कभी नहीं
व्याधितस्य संज्ञा (पुं.) एकवचन, षष्ठी रोगी के लिए
औषधं संज्ञा (नपुं.) एकवचन, कर्तृ औषधि
पथ्यं विशेषण/संज्ञा एकवचन, कर्तृ उचित आहार
नीरोगस्य संज्ञा एकवचन, षष्ठी निरोग (स्वस्थ) व्यक्ति के लिए
किम् औषधैः प्रश्नवाचक तृतीया बहुवचन औषधियों से क्या?

🧭 आधुनिक संदर्भ में अर्थ:

यह नीति श्लोक हमें सामाजिक न्याय और विवेकपूर्ण संसाधन वितरण की सीख देता है:

  • सहायता उन्हें दो जिन्हें सच में जरूरत है – जैसे निर्धन, रोगी, संकटग्रस्त।
  • अत्यधिक सम्पन्न या समर्थ व्यक्ति को सहायता देना न केवल अनावश्यक है, बल्कि सीमित संसाधनों की बर्बादी भी है।
  • आधुनिक समाज में यह नीति नीतियों, सरकारी योजनाओं, CSR (Corporate Social Responsibility), और परोपकार के क्षेत्र में अत्यंत लागू होती है।

📖 संवादात्मक नीति-कथा: "राजा और दो याचक"

राजा हरिशील के दरबार में एक दिन दो याचक आए –
एक अत्यंत निर्धन, कुपोषित और थका हुआ; दूसरा अत्यंत भव्य वस्त्रों में, महंगी गाड़ी से उतरा।

राजा ने पहले से पूछा:
“क्या चाहते हो?”
वह बोला – “राजन्! मैं निर्धन हूँ। रोटी और वस्त्र की इच्छा है।”
राजा ने उसे अन्न, वस्त्र, और घर की व्यवस्था करवाई।

अब राजा ने दूसरे से पूछा – “तुम इतने समृद्ध होकर क्या मांगते हो?”
उसने कहा – “बस, दरबारी उपाधि और थोड़ी और ज़मीन।”
राजा मुस्कराया और बोला:

"नीरोग को औषधि नहीं दी जाती;
दान उसका होता है जो असहाय हो,
समर्थ की लालसा लोभ कहलाती है।"


🪔 नैतिक शिक्षा:

"संसाधनों का सदुपयोग वहीं होता है, जहाँ आवश्यकता हो।
सहायता वहीं सार्थक है, जहाँ अभाव हो।
नीतिवान वही है, जो विवेक से देता है, भाव से नहीं बहता।"

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