देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥

Sooraj Krishna Shastri
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देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें  कर ठाढ़ी॥
देखा  जीव  नचावइ  जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥

अर्थात्, सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यंत भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है।

यही माया और भक्ति ही दो नारियां है, जो कभी एक दूसरे को नहीं मोहती, बल्कि एक दूसरे के विपरीत रहती है, जहां भक्ति है, वहां मेरे राघव जी है। और जहां मेरे राघव जी है। वहां माया मेरे राघव जी के सम्मुख हाथ जोड़े भयभीत खड़ी रहती है, और राम विमुख, भक्तिहीन जीव को नचाती रहती है।

भगवान के पास दो शक्तियाँ हैं। दोनों भगवान की हैं एक है माया और दूसरी है भक्ति, जब कोई भगवान के समक्ष जाता है भगवान को प्रणाम करता है तो वह पूछते हैं बोलो क्या चाहिए माया चाहिए या भक्ति ?

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें  कर ठाढ़ी॥ देखा  जीव  नचावइ  जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें  कर ठाढ़ी॥
देखा  जीव  नचावइ  जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥


भक्त पूछता है महाराज दोनों में अंतर क्या है ? भगवान बोले देखो दोनों में एक ही अंतर है अगर तुम्हें नाचना हो तो माया ले जाओ और अगर मुझे नचाना हो तो भक्ति ले जाओ। क्योंकि जीव जिसके वश में रहे उसका नाम माया और भगवान जिसके वश में हो जाएं उसका नाम भक्ति। भक्ति के राज्य में तो भगवान नृत्य करते हैं और माया के राज्य में समस्त संसार नाचता है जबकि भक्ति के राज्य में भगवान नाचते हैं।

रामचरित मानस की एक-एक  चौपाई मे, कई सारे अर्थ समाये हुये है, जितनी बार पढ़ो ये नए रूप में सामने आती है।

मंत्र तो हैं ही ये चौपाइयां। इन्हें पढ़ने से ध्वनि तरंगें आसपास एक सकारात्मक आभामंडल बना देती हैं हमारे आसपास और हम चेतन हो जाते हैं, हनुमानजी की कृपा भी मिलनी प्रारम्भ हो जाती है।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी।

अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥

बाललीला में जब राघव जी ने मैया को अपने स्वरूप का दर्शन करवा दिया।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

  अहंकार   विमूढात्मा  कर्ताहमिति  मन्यते ।।

जो जीव प्रकृति के द्वारा गुणों को अपनी क्रिया समझे वही जड़ है। माया का यही गुण हैं वो मनुष्य को जड़वत बना देती है, 

भक्ति "सीता" हैं, वो शक्ति जो अपना निर्णय स्वयं लेने में समर्थ है। जो शिव-धनुष को उठा सकती है। जिसे पार्वती के आशीष पे विशवास है। जो वैरागी है, कर्म करना है यानी स्वयंबर में जाना है, शेष माँ की इच्छा पूर्ण समर्पण। जो दशरथ की राज्यसभा में वन जाने के लिये अपना मत सबके आगे रखती है। जो वन में सारी कठिनाइयां सहती हुई भी राम को कहती है.. हे! नाथ तुम्हारे बाण से कोई भी निर्दोष राक्षस नहीं मारा जाय, जो वनवासिनों की माँ बन जाती हैं। राजमहलों की दृढ़ता और संयम सिखाती है।

राजमहलों से सुखों को भूल वन के हिंसक पशुओं को भी प्यार से अपना कर लेती है। भक्ति वो सीता है जो अग्नि परीक्षा देके, राम को ग्लानि से बचाती है और सम्राटों की मर्यादा को अक्षुण रखती है पर दूसरी बार सम्राट का विरोध कर स्वयं की समाधी बना उसमें समा जाने की शक्ति भी रखती है। मोह का कोई बंधन नहीं। यही है नारी के दो रूप (माया और भक्ति) दोनों में संज्ञा नारी ही है, या यूँ कहें दोनों नारी संज्ञक हैं, पर भक्ति जगजननी जानकी है, शक्तिस्वरूपा, भक्ति मीरा है भक्ति राधा है।

माया भगति सुनहु तुम्ह  दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥

पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु  नर्तकी बिचारी॥

 माया और भक्ति -ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं। फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनी मात्र) है॥

 जिसके हृदय में भक्ति का वास है, वहां माया रहने से सकुचाती है।

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा

यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।

यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां

वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌॥

 जिनकी मायाके वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्तासे रस्सी में सर्पके भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छावालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणोंसे पर (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलानेवाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूं !

निर्गुण फांस लिए कर बैठी

बोले मधुरी वाणी।

माया महा ठगिनी हम जानी।।

 सारा संसार जिस पुरुषात्मक शक्ति का गर्व करता है वो पुरुष माया और भक्ति के चारों ओर ही नृत्य कर रहा है, इस स्त्री शक्ति के बिना वो शक्तिहीन है, यही नारी उसे जड़ बनाती है माया का रूप लेके और यही चेतन बनाती है भक्ति से ज्ञान और वैराग्य का आलंबन देके ।

इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥

मोह  न  नारि  नारि कें रूपा। पन्नगारि  यह रीति अनूपा॥

यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़ जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती॥

 गरुड़ जी का प्रश्न है, वैराग्य क्या है? ज्ञान या भक्ति ? कागभुशुण्डि कहते हैं ज्ञान और भक्ति एक ही है, अलग नहीं है। 

संन्यासः   कर्मयोगश्च   निःश्रेयसकरावुभौ ।

 तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥

त्याग और कर्मयोग, दोनों ही परम आनंद की ओर ले जाते हैं। परन्तु इन दोनों में से कर्मयोग, कर्मसंन्यास से श्रेष्ठ है।

जीव में ज्ञान होगा भक्ति होगी तभी वैराग्य होगा और वैराग्य होगा तभी चेतना होगी, चेतना होगी तभी रामजी मिलेंगे। यहां ये समझना भी अनिवार्य है की वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़ देना नहीं, वरन रामजी पे अटूट अनुराग है, उनको अपने को समर्पित करके फिर कर्म करना।

ज्ञान पुरुष और भक्ति नारी है। पर नारी के दो रूप हैं  माया और भक्ति।

माया जो भगवान विष्णु की ही रचना है, स्वाभाव से निर्बल है तो अपने अस्तित्व को संजोये रखने के लिये दूसरे का आलंबन लेती है उसे जड़ कर देती है।

हे प्रभु अपने भक्तों पर इतनी कृपा बनाए रखना -

जैसी लाज राखी अर्जुन की, वैसी ही लाज हमारी।

नहिं निज बल बुद्धि बड़ाई है, प्रभु पग-पग राखनहारी॥

द्रोण बिदेह, भीष्म चित भेदा, कर के रथ को हारी।

खर-धनु त्याग, गह्यो केसरिन्ह, कीन्हो जीतन हारी॥

जाके हेतु सिंहासन त्याग्यो, रह्यो साँझ सुकमारी।

‘सूर’ शरणागत को न त्याग्यो, राख्यो भगत कुमारी॥

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