Yasmin Ruste Bhayam Nasti Shloka Meaning | यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति श्लोक का अर्थ, शब्दार्थ और शिक्षा

Sooraj Krishna Shastri
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Explore the meaning of the Sanskrit Shloka "यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः" which explains the futility of anger without power. The verse teaches that when a person’s anger causes no fear, his happiness brings no benefit, and he has neither authority to punish nor to reward — then his anger is meaningless. Here you will find Sanskrit text, English transliteration, Hindi translation, word-by-word meaning, grammar analysis, modern relevance, moral story, and conclusion. This verse is highly relevant today as it guides us to ignore empty anger and focus only on meaningful actions. A perfect lesson for students, teachers, and those interested in Sanskrit Shloka with Hindi meaning and timeless life lessons from Niti Shastra.

Yasmin Ruste Bhayam Nasti Shloka Meaning | यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति श्लोक का अर्थ, शब्दार्थ और शिक्षा


1. श्लोक

यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः ।
निग्रहानुग्रहौ न स्तः स रुष्टः किं करिष्यति ॥


2. English Transliteration

Yasmin ruṣṭe bhayaṃ nāsti tuṣṭe naiva dhanāgamaḥ ।
Nigrahānugrahau na staḥ sa ruṣṭaḥ kiṃ kariṣyati ॥


3. हिन्दी अनुवाद

जिस व्यक्ति के क्रोधित होने पर कोई भय उत्पन्न नहीं होता, और प्रसन्न होने पर कोई लाभ (धन या अन्य सुविधा) प्राप्त नहीं होता, जिसमें दण्ड और कृपा दोनों की सामर्थ्य नहीं है — उसका क्रोध व्यर्थ है, वह क्रुद्ध होकर भी क्या कर लेगा?

Yasmin Ruste Bhayam Nasti Shloka Meaning | यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति श्लोक का अर्थ, शब्दार्थ और शिक्षा
Yasmin Ruste Bhayam Nasti Shloka Meaning | यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति श्लोक का अर्थ, शब्दार्थ और शिक्षा



4. शब्दार्थ

  • यस्मिन् = जिसमें, जिस व्यक्ति में
  • रुष्टे = क्रोधित होने पर
  • भयम् = भय
  • नास्ति = नहीं होता
  • तुष्टे = प्रसन्न होने पर
  • नैव = भी नहीं
  • धनागमः = धन का आगमन, लाभ
  • निग्रह-अनुग्रहौ = दण्ड (निग्रह) और कृपा/प्रसाद (अनुग्रह)
  • न स्तः = नहीं हैं
  • सः = वह
  • रुष्टः = क्रोधित होकर
  • किं करिष्यति = क्या कर लेगा

5. व्याकरणात्मक विश्लेषण

  1. रुष्टे / तुष्टे – सप्तमी विभक्ति, एकवचन (स्थितिवाचक प्रयोग: "जब क्रोधित हो / जब प्रसन्न हो")।
  2. भयम् / धनागमः – प्रथमा विभक्ति, एकवचन (कर्तृ/कर्म रूप में)।
  3. निग्रह-अनुग्रहौ – द्वन्द्व समास; द्विवचन रूप।
  4. न स्तः – "न स्तः" = "न स्तः (स्तः = स्तः = द्विवचन)" अर्थात् वे दोनों नहीं हैं।
  5. किं करिष्यति – प्रश्नवाचक वाक्य; "क्या करेगा?"

6. आधुनिक सन्दर्भ

  • यह श्लोक हमें बताता है कि जिन व्यक्तियों की प्रशंसा या अप्रसन्नता से न तो भय हो और न ही लाभ हो, उनके क्रोध को महत्व देना मूर्खता है।
  • आज के समाज में भी कई लोग व्यर्थ में अपना रोष दिखाते हैं, परन्तु उनकी स्थिति, सामर्थ्य या पद से किसी को हानि या लाभ नहीं होता।
  • ऐसे लोगों की नाराज़गी से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
  • व्यर्थ क्रोध दिखाना केवल अपनी शक्ति की हीनता का प्रमाण है।

7. संवादात्मक नीति कथा

स्थान – एक गाँव की पंचायत

पात्र – वृद्ध पंडित और एक युवक

युवक – पंडितजी, हमारे गाँव में एक व्यक्ति है जो हर सभा में सब पर क्रोधित होता रहता है। हमें बहुत परेशानी होती है।

पंडित – क्या जब वह क्रोधित होता है तो तुम पर कोई दण्ड लगा सकता है?

युवक – नहीं, उसके पास कोई अधिकार नहीं है।

पंडित – जब वह प्रसन्न होता है तो क्या तुम्हें कोई लाभ देता है?

युवक – नहीं, ऐसा भी नहीं है।

पंडित – तो फिर उसके क्रोध से क्यों घबराते हो? वह केवल अपना मन ही दुखी कर रहा है।

युवक – अब समझ गया पंडितजी, निरर्थक क्रोध का कोई मूल्य नहीं है।


8. निष्कर्ष

  • इस श्लोक का सार यह है कि क्रोध तभी प्रभावी है जब उसके साथ शक्ति, सामर्थ्य और नियंत्रण हो।
  • जिसकी प्रसन्नता या अप्रसन्नता से किसी को न भय हो न लाभ, उसका क्रोध शून्य है।
  • नीति-संदेश: हमें केवल उन्हीं के क्रोध या प्रसन्नता को महत्व देना चाहिए जो वास्तव में हमारे जीवन को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखते हैं।
  • व्यर्थ क्रोधी लोगों को अनदेखा करना ही बुद्धिमानी है।

👉 यह श्लोक हमें सिखाता है कि शक्ति और अधिकार के बिना क्रोध केवल शून्य शोर है।

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