एक पहुंचे हुए महात्माजी थे। उनके पास एक शिष्य भी रहता था। एक बार महात्माजी कहीं गए हुए थे उस दौरान एक व्यक्ति आश्रम में आया। आगंतुक ने कहा- मेरा बेटा बहुत बीमार है। इसे ठीक करने का उपाय पूछने आया हूं।
शिष्य ने बताया कि महात्माजी तो नहीं हैं, आप कल आइए। आगंतुक बहुत दूर से और बड़ी आस लेकर आया था। उसने शिष्य से ही कहा- आप भी तो महात्माजी के शिष्य हैं। आप ही कोई उपाय बता दें बड़ी कृपा होगी। मुझे निराश न करें, दूर से आया हूं।
उसकी परेशानी देखकर शिष्य ने कहा- सरल उपाय है, किसी पवित्र चीज पर राम नाम तीन बार लिख लो, फिर उसे धोकर अपने पुत्र को पिला दो,ठीक हो जाएगा।
दूसरे दिन वह व्यक्ति फिर आया, उसके शिष्य के बताए अनुसार कार्य किया था तो उसके पुत्र को आऱाम हो गया था। वह आभार व्यक्त करने आया था।
महात्माजी कुटिया पर मौजूद थे। आगंतुक ने महात्माजी के दर्शन किए और सारी बात कही- बड़े आश्चर्य की बात है, मेरे बेटा ऐसे उठ बैठा जैसे कोई रोग ही न रहा हो।
यह सब जानकर महात्माजी शिष्य से नाराज हुए,वह बोले- साधारण सी पीड़ा के लिए तूने राम नाम का तीन बार प्रयोग कराया,तुम्हें राम नाम की महिमा ही नहीं पता, इसके एक उच्चारण से ही अनंत पाप कट जाते हैं, तुम इस आश्रम में रहने योग्य नहीं हो,जहां इच्छा है वहां चले जाओ। शिष्य ने उनके पैर पकड़ लिए और क्षमा मांगने लगा।
महात्माजी ने क्षमा भी कर दिया पर उन्होंने सोचा कि शिष्य को यह समझाना भी जरूरी है आखिर उसने गलती क्या की।
महात्माजी ने एक चमकता पत्थर शिष्य को दिया और बोले- शहर जाकर इसकी कीमत करा लाओ,ध्यान रहे बेचना नहीं है,बस लिखते जाना कि किसने कितनी कीमत लगाई।
शिष्य पत्थर लेकर चला, उसे सबसे पहले सब्जी बेचने वाली मिली,पत्थर की चमक देखकर उसने सोचा यह सुंदर पत्थर बच्चों के खेलने के काम आ सकता है, उसके बदले वह ढेर सारी मूली और साग देने को तैयार हो गई।
शिष्य आगे बढ़ा तो उसकी भेंट एक बनिए से हुई. उसने पूछा कि इसका क्या मोल लगाओगे, उसने कहा- पत्थर तो सुंदर और चमकीला है, इससे तोलने का काम लिया जा सकता है। इसलिए मैं तुम्हें एक रूपया दे सकता हूं।
शिष्य आगे चला और सुनार के यहां पहुंचा, सुनार ने कहा- यह तो काम का है,इसे तोड़कर बहुत से पुखराज बन जाएंगे, मैं इसके एक हजार रुपए तक दे सकता हूं।
फिर शिष्य रत्नों का मोल लगाने वाले जौहरी के पास पहुंचा,अभी तक पत्थर की कीमत साग-मूली और एक रुपए लगी थी इसलिए उसकी हिम्मत बड़े दुकान में जाने की नहीं पड़ी थी।
पर हजार की बात से हौसला बढ़ा,जौहरी ठीक से पत्थर को परख नहीं पाया लेकिन उसने अंदाजा लगाया कि यह कोई उच्च कोटि का हीरा है। वह लाख रूपए तक पर राजी हुआ।
शिष्य एक के बाद एक बड़ी दुकानों में पहुंचा। कीमत बढ़ती-बढ़ती करोड़ तक हो गई। वह घबराया कि कहीं उसे अब भी सही कीमत न पता चली हो।हारकर वह राजा के पास चला गया।
राजा ने जौहरियों को बुलाया, सबने कहा ऐसा पत्थर तो कभी देखा ही नहीं,इसकी कीमत आंकना हमारी बुद्धि से परे हैं। इसके लिए तो सारे राज्य की संपत्ति कम पड़ जाए।
महात्माजी की प्रसिद्धि से सब परिचित थे। राजा ने कहा- गुरूजी से कहना कि यदि वह इसे बेचना चाहें तो मैं उन्हें सारा राज्य देने को तैयार हूं। शिष्य ने कहा कि नहीं सिर्फ कीमत पता करनी है।
वह वापस आश्रम पर चला आया और सारी कहानी सुना दी, फिर बोला कि जब राजा पत्थर के बदले अपनी सारी संपत्ति देने को राजी है तो इसे बेच ही देना चाहिए।
गुरुजी ने कहा- अभी तक इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकी है।शिष्य ने पूछा- गुरुजी राजा अपना पूरा राज्य देने को राजी है।इससे अधिक इसकी क्या कीमत हो सकती है ?
गुरु ने उसे एक लोहा लेकर आने को कहा। वह लोहे के दो चिमटे लेकर आया।गुरु ने चिमटों से पत्थर का स्पर्श कराया तो वे सोने के हो गए। शिष्य की तो जैसे आंखें फटी ही रह गईं।
गुरूजी ने पूछा- तुमने इस पत्थर का चमत्कार देखा,अब बोलो इसकी क्या कीमत होनी चाहिए।शिष्य बोला- संसार में हर चीज की कीमत सोने से लगती है, पर जो स्वयं सोना बनाता हो उसका मोल कैसे लगे।
महात्माजी बोले- यह पारस है,इससे स्पर्श करते ही लोहे जैसी कुरुप और कठोर चीज सोने जैसी लचीली और चमकदार हो जाती है। भगवान के नाम का महिमा भी कुछ ऐसी ही है।
इस पारस के प्रयोग से तो केवल जड़ पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं जो नश्वर हैं, परमात्मा तक तो यभी नहीं पहुंचा सकता। लेकिन राम नाम तो सच्चित आनंद का मार्ग है। इसका मोल पहचानो।
जिस नाम के प्रभाव से इंसान भव सागर पार करता है उस प्रभु को मामूली सी परेशानी में बुला लेना उचित नहीं।राम नाम का प्रयोग सोच-समझ कर करना चाहिए।
इसी तरह है तुम्हारी अपनी कीमत,इंसान को अपनी कीमत का तब तक पता नहीं चलता जब तक उसे सही पहचानने वाला न मिले।
सोचें कितनी बड़ी बात कही महात्माजी ने, आपकी क्या कीमत है उसे सही-सही पहचानने वाला नहीं मिला। जैसे पारस पत्थर साग बेचने वाले के लिए बस कुछ मूली के बराबर मोल का था। बनिए के लिए एक रूपए और सुनार के लिए हजार रुपए की कीमत वाला जबकि राजा अपना पूरा राज-पाट इसके बदले देने को राजी हो गया।
भगवान का नाम सर्वश्रेष्ठ है और आप यदि भगवान के बताए सत्य के मार्ग पर चल रहे हैं तो उनके प्रिय भक्त. भगवान के प्रियभक्त का मोल समझ लेना किसी ऐरे गैरे के बस की बात तो है नहीं।
यदि आप सत्य के मार्ग पर हैं और कोई आपकी कद्र नहीं कर रहा तो कमी आपमें नहीं है, कमी तो उसमें है जिसे आपका मोल नहीं पता।वह आपके योग्य नहीं।कोई आपको नहीं पहचान पा रहा तो आप हताश न हों, बल्कि पहले से ज्यादा नेक कार्य आरंभ कर दें।
आप सही मार्ग पर चल रहे हैं, किसी का अहित नहीं करते, किसी से द्वेष नहीं रखते, शत्रुता नहीं रखते तो आप ही ईश्वर के प्रिय अनुचर हैं।स्वयं से प्रेम कीजिए। अपना मोल पहले आप तो समझिए, संसार तो बाद में समझेगा।
आपके लिए आप बहुत अहम है फिर संसार. परंतु ऐसा सोचने का अधिकार केवल उनको ही प्राप्त है जो सचमुच ईश्वर के बताये सत्य के मार्ग पर हैं. जिनमें सच्चाई, सद्भाव, दया और क्षमाशीलता जैसे गुण हैं. यदि इऩ गुणों से विहीन होकर यह भावना रखेंगे तो सावधान करता हूं, ईश्वर आपको कभी फलते नहीं देख सकते।
आप यदि अवगुणों से भरे किसी व्यक्ति को बहुत फलते-फूलते देख रहे हैं तो निराश न हों. आपको नहीं पता कि अंदर से वह कितना भयभीत कितना खोखला है।वह तो पूर्वजन्म के संचित पुण्यकर्मों के खाते में से दोनों हाथ से उड़ा रहा है। जिस दिन वह पुण्य समाप्त हुआ उसका बुरा हश्र होगा।
बुरी राह पर चलने वाले लोगों की संताने क्यों दुखी रहती हैं. माता-पिता के पूर्वजन्म से संचित कर्मों से बच्चों को अंश मिलता है।अब पापी उस पुण्य को लुटा रहा है तो बच्चों के लिए बचाएगा ही क्या? इसी कारण उनकी संतानें कष्ट भोगती हैं।
भगवान के नाम का प्रभाव और उसका रहस्य जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक किसी भी शिक्षा का कोई मोल नहीं।
आत्मबोध करें, दूसरों के ज्ञान और उपदेश को ग्रहण करें, कहीं ऐसा न हो कि किसी अभिमान में आप ऐसे जौहरी को ठुकरा रहे हों जो आपमें पारस देखता है।
विशेष,,,,,,, आत्मा की अनुभूति का होना आवश्यक है ! जिनकी आत्मा सुसुप्त अवस्था में होती है उनको आत्मा की उपस्थिति का अनुभव नहीं होता है ।
जिसकी आत्मा जाग्रत अवस्था में होती है वह एक नेक इंसान है और उचित अनुचित , नैतिक एवं अनैतिक के भेद को समझकर ही आचरण करता है वही इंसान साधु है और पारस पत्थर के सभी गुण उसमे होते है ! प्रभु कृपा उस पर बरसती रहती है ।
आज इस माया से भरे संसार में सत्कर्म करने की इच्छा किसी की नहीं होती है । सब अपनी वासनाओं / इन्द्रियों को पुष्ट करने में लगे रहते हैं ।
प्रभु कृपा होने पर ही जीव की सत्कर्म करने की इच्छा जागृत होती है ।
thanks for a lovly feedback