श्रीशुक उवाच(श्रीशुकदेव जी कहते हैं) -
एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः
अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् ॥
एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिव की पूजा करने के लिए बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्दसे भरकर बैलों से जुती हुई गाडिय़ों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की।
एकदा शब्द शिवरात्रि का सूचक है, अम्बिका वन गुजरात प्रान्त में सिद्धपुर शहर के निकट है। श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि ग्वाले फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के दिन यात्रा पर रवाना हुए,अम्बिका वन मथुरा से उत्तर पश्चिम दिशा में सरस्वती नदी के किनारे स्थित है, अम्बिका वन इसलिए विख्यात है क्योंकि इसमें श्री शिव तथा उनकी पत्नी देवी उमा के अर्चाविग्रह हैं।
तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्।
आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च नृपतेऽम्बिकाम् ॥
वहाँ उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान् शंकरजी का तथा भगवती अम्बिकाजी का बड़ी भक्ति से अनेक प्रकार की सामग्रियों के द्वारा पूजन किया, वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणों को दिये तथा उनको खिलाया, वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान् शंकर हम पर प्रसन्न हों।
ऊषु: सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतव्रता: ।
रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादय: ॥
उस दिन परम भाग्यवान् नन्द-सुनन्द आदि गोपों ने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रात के समय सरस्वती नदी के तट पर ही बेखटके सो गये।
कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः।
यदृच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत् ॥
उस अम्बिकावन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था, उस दिन वह भूखा भी बहुत था, दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजी को पकड़ लिया, अजगर के पकड़ लेने पर नन्दराय जी चिल्लाने लगे—
स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्ण कृष्ण महानयम्।
सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय॥
‘बेटा ! कृष्ण ! कृष्ण ! दौड़ो, दौड़ो। देखो बेटा ! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ,नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुँह में देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों (अधजली लकडिय़ों) से उस अजगर को मारने लगे, किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबाको छोड़ा नहीं, इतने में ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया।
स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः।
भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम् ॥
भगवान् के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोडक़र विद्याधरार्चित सर्वाङ्गसुन्दर रूपवान् बन गया,उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी, वह सोने के हार पहने हुए था, जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोडक़र भगवान् के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा—
को भवान्परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः।
कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः ॥
‘तुम कौन हो ? तुम्हारे अङ्ग-अङ्ग से सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखने में बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगर-योनि क्यों प्राप्त हुई थी ? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा’,अजगर के शरीर से निकला हुआ पुरुष बोला—
अहं विद्याधरः कश्चित्सुदर्शन इति श्रुतः।
श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन्दिशः ॥
भगवन् ! मैं पहले एक विद्याधर था, मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी, इससे मैं विमान पर चढक़र यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था।
ऋषीन्विरूपाङ्गिरसः प्राहसं रूपदर्पितः।
तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना ॥
एक दिन मैंने अङ्गिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखकर अपने सौन्दर्यके घमंड से उनकी हँसी उड़ायी, मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर-योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था, उन कृपालु ऋषियों ने अनुग्रह के लिये ही मुझे शाप दिया था, क्योंकि यह उसीका प्रभाव है कि आज चराचर के गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलों से मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये।
तं त्वाहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्।
आपृच्छे शापनिर्मुक्तः पादस्पर्शादमीवहन् ॥
समस्त पापों का नाश करनेवाले प्रभो ! जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार से भयभीत होकर आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयों से मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणों के स्पर्श से शाप से छूट गया हूँ और अपने लोक में जाने की अनुमति चाहता हूँ।
प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते।
अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर ॥
भक्तवत्सल ! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम ! मैं आपकी शरण में हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरों के परमेश्वर ! स्वयं प्रकाश परमात्मन् ! मुझे आज्ञा दीजिये।
ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्।
यन्नाम गृह्णन्नखिलान्श्रोतॄनात्मानमेव च।
सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते॥
अपने स्वरूप में नित्य-निरन्तर एकरस रहने वाले अच्युत ! आपके दर्शनमात्र से मैं ब्राह्मणों के शाप से मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामों का उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओं को भी तुरंत पवित्र कर देता है, फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरण कमलों से स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्ति में क्या सन्देह हो सकता है।
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवन्द्य च।
सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नन्दश्च मोचितः॥
इस प्रकार सुदर्शन ने भगवान् श्रीकृष्ण से विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया, फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोक में चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकट से छूट गये।
निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं
व्रजौकसो विस्मितचेतसस्ततः।
समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्व्रजं
नृपाययुस्तत्कथयन्त आदृताः॥
जब व्रजवासियों ने भगवान् श्रीकृष्ण का यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ, उन लोगों ने उस क्षेत्र में जो नियम ले रखे थे, उनको पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेम से श्रीकृष्ण की उस लीला का गान करते हुए पुन: व्रज में लौट आये।
विद्याधर की कथा का रहस्य ----
शरीर की आकृति प्रारब्ध अनुसार ईश्वर देते है, “मेरा शरीर सुन्दर है” ऐसी कल्पना से काम का- अभिमान का जन्म होता है। शरीर में कौन से सुंदरता है? वह तो रुधिर,मांस, चाम से बना हुआ है। यदि रास्ते में हड्डी पड़ी हो तो लोग कतराकर निकल जायेंगे। सो शरीर को सुन्दर मत मानें,किसी की आकृति और त्वचा का रंग मत देखें, त्वचा का चिंतन करना पाप है। महात्मा रंग-आकृति नहीं - पर (परमात्मा की) कृति देखते है। आकार मन में विकार उत्पन्न करता है, संसार के,शरीर के सौंदर्य का चिंतन करने से मन चंचल होता है,परमात्मा के सौंदर्य का विचार करने से मन शान्त होता है, ईश्वर के सौंदर्य की कल्पना से भक्ति शुरू होती है। प्रभु को प्रसन्न करने का साधन दीनता है,यही विद्याधर की कथा का रहस्य है।
कदाचिदथ गोविन्दो रामश्चाद्भुतविक्रमः।
विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम् ॥
एक दिन की बात है, अलौकिक कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रि के समय वन में गोपियों के साथ विहार कर रहे थे, भगवान् श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे, दोनों के गले में फूलों के सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीर में अङ्गराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्द से ललित स्वर में उन्हीं के गुणों का गान कर रही थीं, अभी-अभी सायंकाल हुआ,आकाश में तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी, बेला के सुन्दर गन्ध से मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशय में खिली हुई कुमुदिनी की सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने एक ही साथ मिलकर राग अलापा, उनका राग आरोह-अवरोह स्वरों के चढ़ाव-उतार से बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत् के समस्त प्राणियों के मन और कानों को आनन्द से भर देने वाला था, उनका वह गान सुनकर गोपियाँ मोहित हो गयीं, उन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रही कि वे उस पर से खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियों से बिखरते हुए पुष्पों को सँभाल सकें।
एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः सम्प्रमत्तवत्।
शङ्खचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात् ॥
जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्त की भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शंखचूड नामक एक यक्ष आया, वह कुबेर का अनुचर था, दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर बेखटके उत्तर की ओर भाग चला, जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं।
क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्।
यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम् ॥
दोनों भाइयों ने देखा कि जैसे कोई डाकू गौओं को लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियों को लिये जा रहा है और वे ‘हा कृष्ण ! हा राम !’ पुकार कर रो पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े--
मा भैष्टेत्यभयारावौ शालहस्तौ तरस्विनौ।
आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम् ॥
‘डरो मत, डरो मत’ इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथ में शाल का वृक्ष लेकर बड़े वेग से क्षण भर में ही उस नीच यक्ष के पास पहुँच गये।
स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्।
विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया ॥
यक्ष ने देखा कि काल और मृत्यु के समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुँचे, तब वह मूढ़ घबड़ाकर गोपियों को वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचाने के लिये भागा,तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिये बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये,वे चाहते थे कि उसके सिर की चूड़ामणि निकाल लें।
अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः।
जहार मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभुः ॥
कुछ ही दूर जाने पर भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्ट के सिर पर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ामणि के साथ उसका सिर भी धड़ से अलग कर दिया।
शङ्खचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्।
अग्रजायाददात्प्रीत्या पश्यन्तीनां च योषिताम् ॥
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण शंखचूड को मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियों के सामने ही उन्होंने बड़े प्रेम से वह मणि बड़े भाई बलरामजी को प्रदान कर दिया।
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