जैसे समय बीतने के साथ- साथ कुछ भक्त- कवियों के द्वारा रचित विभिन्न रामायण ग्रन्थों में, मूल रामायण में लिपिबद्ध प्रसंग से अलग अनेक नए- नए कथा जुड़े है, ऐसे ही अधिक रोचक बनाने के लिए वेदव्यासकृत मूल भागवत महापुराण से अलग, कुछ नए विषयवस्तु भी वैष्णव साहित्य में शामिल किया गया है। जैसे उदाहरण स्वरूप मूल भागवत में "राधा" शब्द भी नहीं किंतु "राधाकृष्ण लीला" के बिना आज कृष्णकथा को अधूरा माना जाता है।
भागवत महापुराण के मुख्य चरित्र तो अवतारी लीलामय श्रीकृष्ण हैं किन्तु वैष्णव-चेतना में उनके साथ अनन्य प्रेमभाव की प्रतीक रूप में गोपांगना राधाजी की भी नाम है। और मूल भागवत में श्रीकृष्ण के महारानी के रूप में सिर्फ पतिव्रता धर्म के अपूर्व मिशाल रुक्मणि जी की कथा बहु चर्चित है। उन दोनों को वैष्णव-साहित्य में एक ही नारी की दो अलग-अलग रूप में प्रतिनिबद्धित करने की कोशिश की गई है।
कुछ विद्वानों के दृष्टिकोण में राजा भीष्मक की पुत्री रूप में जन्मी रुक्मिणी को बचपन में ही मथुरा राजा कंस के राक्षसी बहन पूतना ने विदर्भ से चुराकर जब आकाश मार्ग से ले जा रही थी, तब रास्ते में दैवी-लीला से रुक्मणी ने अपना वजन बढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे घबराकर पूतना इन्हें बरसाना में छोड़कर भाग गई थी। इसके बाद इन्हें बाल्यकाल में लाडली पुत्री राधा नाम से वहाँ वृषभानु ने पाला-पोषा और बड़ा किया। बाद में श्रीकृष्ण जी अक्रूर के साथ मथुरा चले जाने के बाद, विदर्भराज भीष्मक को पता चला कि उनकी खोई हुई पुत्री बरसाने में हैं, तो उन्हें वहाँ से अपने साथ ले आए और फिर राधारानी ही भीष्मक कन्या रुक्मणी कहलाने लगीं ! ऐसी वैष्णव- दर्शन प्रामाणिक है कि नहीं, इस बारे में सोचने का वक्त अब नहीं रहा है।
द्वारकापुरी में स्थायी रूप से रहने के बाद द्वारकाधीश श्रीकृष्ण और बड़े भाई बलरामजी का नाम चारों ओर फैल गया था। बड़े- बड़े नृपति और सत्ताधिकारी भी उनके गुण गान कर मस्तक झुकाने लगे थे। बलराम के बल- वैभव और उनकी ख्याति पर मुग्ध होकर रैवत नामक राजा ने अपनी पुत्री रेवती का विवाह उनके साथ कर दिया था।
भीष्मक नन्दिनि रुक्मिणी अपनी अंदरूनी आध्यात्मिक शक्ति, बुद्धिमता, सौंदर्य और न्यायप्रिय व्यवहार के लिए प्रसिद्ध थीं। इन्हें द्वारकाधीश श्रीकृष्ण जी के बारे में कई कहानियां सुनी थी और मन ही मन कृष्ण- प्रेम में डूबते हुए कृष्णजी को समर्पित हो गयी थी। जब विवाह की उम्र हुई, तो इनके लिए कई रिश्ते आए; लेकिन इन्होंने सभी को मना कर दिया। इस कारण से इनके विवाह को लेकर माता- पिता और भाई रुक्मी चिंतित थे।
एक बार एक पुरोहित जी अपनी पुत्री सुनन्दा के साथ विदर्भ आए थे। वंहा से उनको द्वारका जाना था। विदर्भ राजगृह में उन्होंने श्रीकृष्ण के रूप- गुण और व्यवहार के अद्भुत वर्णन के साथ, श्रीकृष्ण जी के एक तस्वीर भी दिखाए थे। देवी रुक्मिणी ने तस्वीर को देखकर भावविभोर हो गईं थी और पति रूप में कृष्ण को पाने के लिए ही उनकी हृदय में अभीप्सा जाग उठी। लेकिन एक कठिनाई यह थी कि इनके पिता तथा भाई का संबंध जरासंध, कंस और शिशुपाल के पिता दमघोश से था। और ऐसी राजनीतिक कारणवश रूक्मिणी की विवाह शिशुपाल से तय हुआ था। राजा दमघोश और चेदि साम्राज्य की रानी सुतासुभा का पुत्र था शिशुपाल। सुतासुभा भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव की बहन थीं। ऐसे वासुदेव की दो बहनें हैं-- पांडवों की मां कुंती और शिशुपाल की मां सुतासुभा। इसीलिए राजकुमार शिशुपाल सम्पर्क में श्रीकृष्ण का भाई लगता था।
इस प्रतिकूल स्थिति को पार होने के लिए रुक्मिणी ने प्रेमपत्र लिखकर, उस पुरोधा ब्राह्मण का कन्या सुनन्दा के हाथ श्रीकृष्ण के पास भेज दी थी। श्रीकृष्ण भी रुक्मणी के बारे में पहले से बहुत कुछ जानते थे। इसीलिए श्रीकृष्ण जी प्रेम की आमंत्रण पाने के बाद रुक्मिणी को द्वारका लाने के लिए बड़े भाई से परामर्श लेकर एक योजना बनाई थी। उस योजना के अनुसार जब शिशुपाल बारात लेकर विदर्भ- राजघर में उपस्थिति हुआ, तत्क्षण श्रीकृष्ण ने शंखनाद में अपनी उपस्थिति को सूचित कर ही रुक्मिणी का अपहरण कर लिया था।
इस शंखनाद को सुनकर वहाँ के सभी लोगों के साथ विदर्भ राजा भीष्मक तथा राजकुमार रुक्मी और शिशुपाल हैरान रह गए कि यहां श्रीकृष्ण कैसे आ गया ! इसी बीच उन्हें सूचना मिली की श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर लिया है। क्रोधित रुक्मी श्रीकृष्ण का वध करने के लिए निकल पड़ा और उस भयंकर युद्ध में विजयी श्रीकृष्ण जी रुक्मिणी को लेकर द्वारिका आ गए थे। इसके बाद द्वारिका में भव्य तैयारी के साथ बलाराम जी ने रुक्मिणी के साथ श्रीकृष्ण का विवाह संपन्न किया था।
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